भारत और भारत की संसद
भारत की संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र में चुने हुए सदनों की महत्ता विभिन्न तात्कालिक व नीतिगत विषयों पर होने वाली बहस से भी तय होती है
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत की संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र में चुने हुए सदनों की महत्ता विभिन्न तात्कालिक व नीतिगत विषयों पर होने वाली बहस से भी तय होती है क्योंकि इन बहसों में सदनों में पहुंचे हुए जनप्रतिनिधि अपने विचारों से न केवल अपने समय के लोगों को अवगत कराते हैं बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए भी उन्नति के रास्ते सुझाते हैं। इस मामले में संसद की महत्ता सबसे ऊपर है क्योंकि इसके दोनों सदनों में राष्ट्र निर्माण से लेकर वैश्विक सन्दर्भों में भारत की प्रगति को सुनिश्चित करने के मार्ग खोजे जाते हैं। इसके साथ ही संसद देश की समस्त जनता के मनोभावों का अक्स होती है जिसमें हर क्षेत्र व प्रदेश से आये हुए सांसद इन्हीं प्रगतिमूलक उपायों में आम लोगों की सहभागिता को असरदार बनाते हैं। इसीलिए जीवन्त संसद का यह पैमाना माना जाता है कि यह किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सड़कों पर घट रही घटनाओं का आइना बनें। हमारे पुरखों ने इसकी व्यवस्था बहुत सावधानी और अक्लमन्दी के साथ की और दोनों ही सदनों में अलग-अलग नाम से शून्य काल को नियत किया जिससे सांसद ज्वलन्त घटनाओं पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करा सकें परन्तु हम लगभग पिछले तीस सालों से देख रहे हैं कि संसद का काम-काज सुचारू ढंग से नहीं चल पाता है और सत्ता व विपक्ष के बीच किसी न किसी मोड़ पर गतिरोध की स्थिति बन जाती है। बेशक इसकी शुरूआत 1986 में बोफोर्स कांड के साथ हुई थी मगर बाद में जिस प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियां देश में निर्मित हुईं उससे सबसे ज्यादा नुकसान हमारी संसद को ही हुआ क्योंकि इसमें तर्क-वितर्क की वह तीक्ष्णता समाप्त होती गई जो दलगत भावना से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हुआ करती थी। इसका असर धीरे-धीरे संसद की कार्यप्रणाली पर इस प्रकार पड़ा कि हर साल संसद की बैठकों की अवधि छोटी से छोटी होती चली गई। मगर इन तीस सालों में एक और महत्वपूर्ण बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में आया और केन्द्र में साझा गठबन्धनों की सरकारों का दौर आया जिससे देश के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दल तक को सत्ता में बैठने का सुख प्राप्त हुआ। आज देश में एकाध पार्टी को छोड़ कर कोई एेसा राजनीतिक दल नहीं है जिसका प्रतिनिधि कभी न कभी केन्द्र सरकार में शामिल न हुआ हो परन्तु इसके विपरीत संसद की दक्षता वह नहीं रही जो तीस साल पहले हुआ करती थी। आलोचक कह सकते हैं कि 1975 से लेकर 1977 तक के इमरजेंसी के दौर में संसद को पूरी तरह पंगु बना दिया गया था क्योंकि उस दौरान लोकतन्त्र की अवधारणा को ही बदल दिया गया था। मगर इसके बाद 1977 में नये चुनाव होने के बाद से परिस्थितियां बदलीं और संसद पुनः अपने पुराने स्वरूप में आयी और यह क्रम 1989 तक जारी रहा। एक तथ्य हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय लोकतन्त्र में संसद की स्वायत्ता इस प्रकार निर्धारित है कि इसके कार्यक्षेत्र में सरकार की दखलन्दाजी नहीं होती। संसद की व्यवस्था के संरक्षक लोकसभा के अध्यक्ष होते हैं जिनका चुनाव संसद सदस्य ही करते हैं। संसद के भीतर लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति की हैसियत प्रत्येक राजनीतिक दल के चुने हुए सदस्य के अधिकारों के संरक्षक की होती है। अपने आसन पर बैठ कर वह भूल जाते हैं कि कौन सा सदस्य सत्ता पक्ष का है और कौन सा विपक्ष का। वह विपक्ष के सांसदों द्वारा सरकार की होने वाली जवाबतलबी को भी संरक्षण देते हैं और सरकार की तरफ से दिये जाने वाले जवाब की भी रक्षा करते हैं। इसके लिए प्रत्येक सदन के अपने नियम होते हैं जिनके तहत कार्यवाही का संचालन होता है। इन्हीं नियमों के अनुसार अध्यक्ष या सभापति सदन को चलाते हैं। इसके साथ-साथ सदन में स्थापित परंपराओं का भी ध्यान रखा जाता है जिससे लोकतन्त्र पूरी शुचिता और निर्भयता के साथ चल सके परन्तु केवल 19 बैठकों वाले समाप्त हुए संसद के शीतकालीन सत्र में हमें देखने को मिला कि इस सत्र के शुरू हुए पहले दिन ही राज्यसभा से 12 विपक्षी सांसदों को शेष सत्र अवधि तक के लिए मुअत्तिल कर दिया गया। उनकी मुअत्तिली पिछले सत्र के अतिम दिन 11 अगस्त को सदन में हुई कार्यवाही को लेकर की गई जिसे संसद की प्रतिष्ठा के विरुद्ध बताया गया। इस पर मुअत्तिल सांसदों ने पूरे सत्र तक संसद परिसर में ही धरना दिया और सदन के भीतर विपक्षी दलों ने उनकी मुत्तिली को समाप्त करने की लगभग रोजाना मांग की। इस मामले में सदन की नियमावली के नियम की व्याख्या दोनों पक्षों ने अपने-अपने तरीके से की। इसका मतलब यह हुआ कि सदन के नियम की व्याख्या किये जाने को लेकर भी सन्देह या भ्रम की स्थिति बनी रही। इस मामले में ही सबसे ज्यादा सोचने की जरूरत है कि हम भूल से भी एेसी परंपरा स्थापित न करें जिसका खामियाजा आने वाले समय में नई पीढि़यों को भुगतना पड़े। इसके साथ ही संसद के कार्य की समीक्षा करने का यह पैमाना भी उचित नहीं कहा जा सकता कि सत्र में कितने विधेयक पारित किये गये अथवा नहीं। इस बारे में लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर का यह कथन हमें हमेशा याद रखना चाहिए जो उन्होंने संसदीय प्रणाली की उपयोगिता के बारे में कहे थे। श्री मावलंकर ने कहा था कि 'आने वाली पीढि़यां सांसदों को इस बात के लिए याद नहीं रखेंगी कि उन्होंने कितने विधेयक पारित किये बल्कि इस बात के लिए याद करेंगी कि संसद के माध्यम से उन्होंने कितने लोगों के जीवन में बदलाव लाया।'संपादकीय :जानलेवा ओमीक्राेन : तीसरा युद्धआपका स्नेह आशीर्वाद , बहुत याद आता हैजम्मू-कश्मीर की बढ़ी सीटेंअफस्पाः संवेदनशील मुद्दाकेरल की खूनी सियासतआधार कार्ड और मतदाता कार्ड