न्याय में देरी की लाइलाज बीमारी, न्यायिक सुधारों पर सजगता दिखाए सुप्रीम कोर्ट

दिल्ली के उपहार सिनेमाघर अग्निकांड में सुबूतों से छेड़छाड़ के मामले में 24 साल बाद सजा सुनाए जाने के फैसले ने एक बार फिर यह साबित किया

Update: 2021-11-10 06:20 GMT

राजीव सचान। दिल्ली के उपहार सिनेमाघर अग्निकांड में सुबूतों से छेड़छाड़ के मामले में 24 साल बाद सजा सुनाए जाने के फैसले ने एक बार फिर यह साबित किया कि न्याय में देरी की बीमारी लाइलाज बनी हुई है। यह पहला ऐसा मामला नहीं, जिसमें न्याय देने में जरूरत से ज्यादा देरी हुई हो। इस तरह के मामले सामने आते ही रहते हैं। ऐसे मामले इतने अधिक हैं कि उन्हें अपवाद भी नहीं कहा जा सकता। वास्तव में जो अपवाद होना चाहिए, उसी ने अब नियम का रूप ले लिया है। अधिकतर मामलों में 15-20 साल की देरी होना आम हो गया है। देरी उन मामलों में भी होती है, जिन्हें संगीन माना जाता है। आतंकी घटनाओं, सामूहिक हत्याओं, बड़े पैमाने पर हिंसा, लूट, दुष्कर्म, कत्ल और दंगे सरीखे जघन्य अपराधों में भी ऐसा होता है।

बेहमई कांड में 40 साल बाद भी न्याय के लिए प्रतीक्षारत है पीडि़त

कुख्यात बेहमई कांड, जिसमें फूलन देवी और उनके साथियों ने 20 से अधिक लोगों को गोलियों से भून दिया था, 40 साल बाद भी न्याय के लिए प्रतीक्षारत है। इस मामले के ज्यादातर अभियुक्त, गवाह और यहां तक कि पीड़ित भी न्याय की प्रतीक्षा करते-करते गुजर चुके हैं। ऐसे मामलों की गिनती करना भी मुश्किल है, जो न्याय में देरी को बयान करते हैं। जो मामला जितना संगीन होता है, उसमें उतनी ही अधिक देर होती है। इसी तरह जिस मामले में जितने बड़े रसूखदार लिप्त होते हैं, उनमें भी उतनी ही अधिक देरी होती है। इसका ताजा प्रमाण उपहार सिनेमाघर अग्निकांड है। यह मामला इसका भी उदाहरण है कि रसूख वालों के लिए न्याय प्रक्रिया का हरण करना कितना आसान होता है। ऐसा ही एक मामला दिल्ली का ही बीएमडब्ल्यू कांड था, जिसमें तीन पुलिस वालों समेत छह लोग मारे गए थे। इस मामले में भी सुबूतों से छेड़छाड़ की गई थी। इस छेड़छाड़ में दो बड़े वकील भी लिप्त पाए गए थे, जिनमें से एक राज्यसभा सदस्य बने।

सभी समर्थ लोग स्वीकार करने को सदैव तैयार दिखते हैं कि समस्या है, लेकिन...!

न्याय में देरी किन कारणों से होती है और यह देरी किस तरह अन्याय का परिचायक बनती है, इससे वे सभी अच्छी तरह परिचित हैं, जिन्हें उनका निवारण करना है। ऐसे लोग समय-समय पर इन कारणों का जिक्र भी करते हैं और चिंता भी जताते हैं, लेकिन वे आवश्यक कदम उठाने से इन्कार करते हैं। कभी न्यायपालिका के लोग न्याय में देरी के लिए कार्यपालिका के लोगों को कठघरे में खड़ा करते हैं तो कभी इसका उलट होते हुआ दिखता है। कभी कोई संसाधनों की कमी का रोना रोता है तो कभी कोई सड़े-गले कानूनों, लचर आपराधिक दंड संहिता का उल्लेख कर कर्तव्य की इतिश्री करता दिखता है। इसी तरह कभी कोई तारीख पर तारीख के सिलसिले को दोष देता है तो कभी पुलिस की कार्यप्रणाली को। कुल मिलाकर सभी समर्थ लोग यह स्वीकार करने को तो सदैव तैयार दिखते हैं कि समस्या है, लेकिन उसका समाधान करने के लिए कमर कसते हुए नहीं दिखते।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कागजी बने रहे
यदि कभी व्यवस्था के किसी अंग से कोई पहल होती भी है तो दूसरा अंग अड़ंगा लगा देता है। जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों के लिए सात सूत्रीय दिशानिर्देश जारी किए तो राज्य सरकारें उन्हें निष्प्रभावी करने में जुट गईं। केंद्र सरकार ने भी राज्य सरकारों के अनुरूप व्यवहार किया और इस तरह सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश कागजी बने रहे। जब विधायिका ने उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को सुधारने की पहल की तो खुद सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज करने के लिए आगे आ गया। उसने संसद द्वारा पारित और विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित संविधान संशोधन कानून को रद कर दिया, ताकि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते रह सकें। ऐसा दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में नहीं होता, लेकिन भारत में धड़ल्ले से हो रहा है।

कई राज्यों ने ग्राम न्यायालयों के गठन में तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाई

केंद्र सरकार एक लंबे अर्से से अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन करने के पक्ष में है, लेकिन कई उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों को यह विचार रास नहीं आ रहा है। ऐसा तब है, जब 1960 से ही इसके लिए कोशिश की जा रही है। यह देर के साथ अंधेर का एक शर्मनाक उदाहरण है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। जैसे अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन में दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही है, वैसे ही ग्राम न्यायालयों के गठन में भी। कई राज्यों ने ग्राम न्यायालयों के गठन में तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। नतीजा यह है कि लोगों को दरवाजे पर ही न्याय उपलब्ध कराने का उद्देश्य पूरा होने का नाम नहीं ले रहा है।

भले ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यह कहें कि जब चीजें गलत होती हैं तो लोगों को यह भरोसा होता है कि न्यायपालिका से उन्हें राहत मिलेगी। यह सही नहीं। मुसीबत में पड़े लोग जब न्यायालय के पास जाते हैं तो अक्सर उन्हें तारीख पर तारीख के सिलसिले से जूझना पड़ता है। बीते लगभग एक साल से कृषि कानून विरोधी प्रदर्शनकारी दिल्ली के सीमांत इलाकों में राजमार्गों को घेर कर बैठे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तारीख पर तारीख देने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। उसकी नाक के नीचे ही न्याय देर और अंधेर का शिकार है। न्याय में देरी से केवल आर्थिक विकास ही प्रभावित नहीं होता, बल्कि सामाजिक विकास पर भी बुरा असर पड़ता है। इसके अलावा लोगों का लोकतंत्र और उसकी व्यवस्थाओं पर से भरोसा उठता है। इतना ही नहीं, कानून के शासन को गंभीर चोट पहुंचती है और इसके नतीजे में अराजक तत्वों, अपराधियों और देश-विरोधी ताकतों को बल मिलता है। यह किसी से छिपा नहीं कि सड़कों पर उतरकर अराजकता फैलाने, रास्ते रोकने, पुलिस, थानों पर हमला करने के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)


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