अधूरा गणतंत्र : भारत-वेदना पर अट्टहास, कश्मीरी हिंदुओं को नेताओं ने ही विफल किया
जो नरसंहारों के अट्टहासों पर अंतिम विराम लगाएगा।
वेदना पर अट्टहास क्रूरता और मूर्खता का दुखद समन्वय होता है, जिसका अनिवार्यतः विनाश में ही परिणाम निकलता है। दुख बहुत कष्टकारी होता है। इतिहास साक्षी है कि दुख सहन करते हुए भारत के अनेक क्षेत्रों से अग्निधर्मा क्रांतियां जन्मीं। बंदा सिंह बहादुर के छह वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में रखकर मारा गया-चांदनी चौक के पास बंदा सिंह के साथ आए आठ सौ सिखों को हर दिन सौ-सौ के हिसाब से कत्ल करने वाले भी अट्टहास करते थे। उस समय औरंगजेब या फर्रुखसियर सर्वेसर्वा थे। वे हंसे, तो सब दरबारी हंसते थे। हंसना ही होता था। उनकी विद्वत्ता, संपन्नता, शासकीय रौब-दाब सब मिट्टी में मिल गया।
धूल में भी उनके नाम नहीं हैं। गुरु तेगबहादुर और बंदा सिंह बहादुर आज भी अमर हैं, पूजे जाते हैं। किसी के दर्द पर दुख मना सको, तो मनाओ। वर्ना चुप रहो। रावण तपस्वी साधक था। उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण और शिव भक्त था। धन में कुबेर को मात देनेवाला। उसने राम की वेदना का मजाक उड़ाया, सीता की पीड़ा पर अट्टहास किया। उसका नाश हो गया। राजपूताना में पिछले छह सौ वर्षों से कितने ही राजा, सामंत, महाराजा हो गए। जमींदारों, मनसबदारों, सूबेदारों की संख्या भी बहुत बड़ी होगी। छह सौ वर्ष। और हम सब राजपूताना की धरती के किन लोगों को याद करते हैं?
राणा सांगा, राणा प्रताप, पद्मावती, मेवाड़ घराना, भामा शाह, अमर सिंह, पन्ना धाय। बाकी का हिसाब इतिहास ने ले लिया। वहां कहावत है-माई ऐहा पूत जन जेहा राण प्रताप। हल्दीघाटी में रह लेना, घास की रोटी खा लेना, चेतक की पीठ पर नींद ले लेना, पर कभी परकीय आक्रांता से समझौता मत करना। देश के सबसे धनी महाराजा मान सिंह जैसा पूत जने, ऐसा कभी राजस्थान की माताओं ने नहीं कहा। आज देश में धनपतियों की कमी नहीं। सांसद, विधायक, मंत्री, उनके आलीशान बंगले, संपन्नता, ऐश्वर्य, उनके मॉल्स, पीवीआर, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज। गिन न पाएं, इतनी राशि।
अभी कन्नौज में एक साहब के घर करोड़ों रुपयों के ढेर मिले। पर वह हमेशा स्कूटर पर चलते थे। जीवन की 'सादगी' में भरोसा दिखावे के लिए था, घर में करोड़ों का काला धन था। यह राजनीति भी ऐसी ही है। बाहर से सिंपल, भीतर से डिंपल। कश्मीरी हिंदुओं के दर्द पर वास्तविक उबाल और तूफान 1990, 91, 92, 95, 2000, 2010 में उठना चाहिए था। मैं स्वयं 1990 में श्रीनगर, हजरतबल में रहकर जमीनी रिपोर्टिंग कर चुका हूं। अनंतनाग और किश्तवार, डोडा और सोपोर के नरसंहारों की मैंने रिपोर्टिंग की है। कश्मीरी हिंदुओं के दर्द और निष्क्रमण पर खूनी सन्नाटा ओढ़े सरकारों के विरुद्ध लिखा है।
छह विशेषांक केवल कश्मीरी हिंदुओं के दर्द पर प्रकाशित-संपादित किए। लेकिन गिलानी और यासीन मालिक जैसों को भी लाशों पर सार्वजनिक रूप से अट्टहास करते हुए नहीं देखा, जो दिल्ली की विधानसभा में दिखा। ये सब भारतीय हैं। हिंदू हों या न हों, यह बात बेमानी है। भारतीय के दर्द पर भारतीयों का अट्टहास भारत की वेदना, उसकी आत्मा की पीड़ा पर अट्टहास है। द कश्मीर फाइल्स बनाने वाला यदि हजार-दो हजार करोड़ रुपये कमाए, तो भी कम और संदर्भहीन है।
कश्मीरी हिंदुओं को भारत के नेताओं ने विफल किया, उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं के निष्क्रमण को एक संस्थागत रूप देकर उसे स्थायी सत्य मान लिया, उन्होंने कश्मीरी हिंदुओं को मनुष्य के नाते कभी स्वीकार ही नहीं किया। स्वतंत्र देश का संविधान और गणतंत्र दिवस अपने ही देश के राष्ट्रभक्त नागरिकों को शरणार्थी बनते देखकर चुप रहे, तो न तो वह गणतंत्र है और न ही उस देश की आजादी संपूर्ण है। वह अधूरी है। द कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया गया है, वह यथार्थ का मात्र एक अंश है।
इससे भी अधिक भयानक वारदात हुईं, जिनका वर्णन सुनना भी कठिन है। इन भारतीयों के दर्द को भारत का दर्द ही मानना होगा और जो इस पर अट्टहास कर रहे हैं, उनके सार्वजनिक जीवन के अंत का प्रारंभ हो गया, यह माना जाना चाहिए। पंजाब बांझ धरती नहीं है। खालिस्तानी रक्तिम काल भी झेल गए। तब बेअंत सिंह और केपीएस गिल थे। सीमा पार वाले ने हमारे लोगों के नरसंहार पर अट्टहास किया था।
उसी के लोगों ने उसको आसमान से गिरकर धरती के गड्ढों में काल कवलित होते देखा। यहां के नेताओं में भगत सिंह, लाला लाजपत राय, उधम सिंह, सरदार बेअंत सिंह जाने जाते हैं। सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालना नेता होना नहीं होता। बेअंत सिंह के बाद कोई नेता नहीं हुआ। सब सत्ता के सौदागर रहे। विश्वास रखिए, पंजाब में कोई तो भगत सिंह आएगा ही, जो नरसंहारों के अट्टहासों पर अंतिम विराम लगाएगा।
सोर्स: अमर उजाला