महंगाई के मद्देनजर इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी योजना वित्तीय वर्ष 2022-23 तक बढ़ानी चाहिए
भारत में थोक महंगाई दर नवंबर में बढ़कर 14.23 फीसदी हो गई
वरुण गांधी । भारत में थोक महंगाई दर नवंबर में बढ़कर 14.23 फीसदी हो गई। यह 12 साल में सबसे ज्यादा है। यही नहीं, यह दर बीते आठ महीनों से लगातार दोहरे अंकों में बनी हुई है। इस वृद्धि का असर आम भारतीयों के जीवन के साथ उपभोक्ताओं को हासिल विकल्पों पर पड़ा है। कई लोगों को इसने फिर से वैसे ही पीछे धकेल दिया है, जहां से वे हाल में ही उभरे थे। इस सूरत ने आम किसान की स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। अगर वे खेती करना चाहते हैं तो उन्हें खाद की बड़ी किल्लत से जूझना पड़ रहा है।
1200 रुपए में मिलने वाली डीएपी के 45 किलो की बोरी की कीमत नवंबर के आखिर में कालाबाजारी में 1,500 रुपए तक पहुंच गई। जाहिर है कि ऐसे में अपनी फसल को बेहतर करने के लिए खाद के इस्तेमाल का आसान रास्ता भी उनके लिए मुश्किल हो गया है। ऐसे में क्या उन्हें खेती छोड़कर पशुपालन पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। पर हालात यहां भी तकरीबन वैसे ही हैं। चिकन फीड की कीमत अब प्रीमियम ब्रांड के आटे जितनी है और इससे मुर्गीपालन का पूरा अर्थशास्त्र हिल गया है।
इस दौरान रसोई में क्या पकाना है, यह सवाल जरूरतों को मजबूरन समेटने जैसा हो गया है। घरों में किराने के सामान पर महंगाई का असर सर्वाधिक है। थोक महंगाई के पैमाने पर देखें तो गेहूं के लिए यह दर नवंबर 2020 से नवंबर 2021 के बीच 10.14 जबकि फलों के लिए यह 15.50 फीसदी रही।
जब सब्जी खरीदने की बारी आती है तो रसोई का बजट बढ़ने का खतरा सामने आ जाता है। भिंडी, चुकंदर, ककड़ी और बीन्स जैसी सब्जियों की कीमतें हाल में 100 रुपए किलो के ऊपर पहुंच गई। आलम यह है कि सहजन 15 दिसंबर को तिरुवनंतपुरम में 320 रुपए किलो के भाव बिका। जाहिर है कि आम रसोई में बनने वाला सांभर तक अब खासा महंगा पड़ रहा है।
एक आदर्श सूरत में सरकार न्यूनतम खरीद मूल्य (एमएसपी) और सार्वजनिक स्टॉकिंग नीति की घोषणा करती है ताकि सब्जियों, दालों और खाद्य तेलों की कीमतों में बेमौसम होने वाली बढ़ोतरी पर काबू रखा जा सके। पर यहां तो सूरत यह है कि इस दिसंबर के महीने गोवा में एक व्यक्ति के लिए एक किलो टमाटर खरीदने के मुकाबले एक चॉकलेट का डिब्बा खरीदना ज्यादा सस्ता है।
अंतरराष्ट्रीय दरों में तेज वृद्धि को देखते हुए खाद्य तेलों की कीमतों में भी वृद्धि जारी है। इनमें से ज्यादातर की कीमत इस साल 200 रुपए के ऊपर पहुंच गई। भारत को इस तरह के आयात के लिए अहम भुगतान करना पड़ रहा है। 2020-21 में सरकार के लिए अकेले पाम ऑयल के आयात के लिए यह खर्च 63 फीसदी ऊपर चढ़कर 1.17 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया। यह स्थिति तब है जब आयात शुल्क को बार-बार परिवर्तित किया जा रहा है। दिलचस्प है कि 1970 के दशक तक यह देश खाद्य तेलों का बड़ा निर्यातक था।
ऐसे हालात में फौरी उपाय के तौर पर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने वालों को खाद्य तेल मुफ्त बांटे जा रहे हैं। पर लंबे दौर और टिकाऊ समाधान के लिए एमएसपी बढ़ाने और धान-गेहूं जैसे प्रचलित फसल के बजाय तिलहन की खेती को प्रोत्साहित करना होगा। एक आकलन के मुताबिक भारत में खाद-बीज जैसी फसली सुविधाओं को बढ़ाने भर से खाद्य तेलों के उत्पादन को 3.6 मिलियन टन तक बढ़ाया जा सकता है, जो इनके आयात के 27 फीसदी के बराबर होगा। यह बदलाव सब्जियों की खेती के मामले में भी मुमकिन है।
समाधानकारी उपाय के तहत तिलहन की खेती के मौजूदा रकबे को भी और बढ़ाया जा सकता है। एक आकलन के तहत ऐसा करने से चावल की भूसी के तेल (राइस ब्रान ऑयल) की उत्पादन क्षमता दो मिलियन टन तक की जा सकती है, जो इसके आयात के 15 फीसदी के बराबर होगा। इसी तरह कपास के बीज के तेल की उत्पादन क्षमता 1.4 मीट्रिक टन तक बढ़ाई जा सकती है।
दिलचस्प है कि कपास के मामले में तो खेती का रकबा बढ़ाने की भी जरूरत नहीं होगी। यह वृद्धि पाम ऑयल के मामले में भी मुमकिन है जिसके लिए 1.9 मिलियन हेक्टेयर पहले से रकबा मौजूद है। खाद्य तेलों के मामले में कुछ ठोस कदम उठाने की दरकार इसलिए है कि आम लोगों की हालत यह हो गई है कि वे रसोई में एक लीटर की जगह रसोई तेल की आधे किलो की बोतल खरीद कर ला रहे हैं।
महंगाई की यह मार रसोई के बाहर भी पड़ रही है। पेंट कंपनियों ने इस साल अपने उत्पादों की कीमत में 18 फीसदी तक का इजाफा किया है जबकि दूसरे उपभोक्ता जरूरत के सामान इस दौरान सात से दस फीसदी तक महंगे हो गए हैं। आलम यह है कि महिलाओं के बीच सर्वाधिक प्रचलित साड़ी की कीमत नवंबर में आठ फीसदी ऊपर पहुंच गई, जो 2015 के बाद कीमत में सबसे बड़ी उछाल है। इसी दौरान जूते-चप्पल के दाम तकरीबन आठ फीसदी बढ़े हैं। कई नियोक्ताओं का मुनाफा इतना गिर गया है कि वे अपने कर्मचारियों को तनख्वाह तक नहीं दे पा रहे हैं।
पिछले नवंबर से इस साल नवंबर तक में ईंधन और बिजली के दामों में 39.81 फीसदी की बड़ी वृद्धि हुई है। इस महंगाई का सीधा असर लघु और मझोले आकार के उद्यमों पर पड़ा है। उनके लिए कच्चे माल की किल्लत का आलम तो यह है इनकी कीमत महंगाई और रुपए के अवमूल्यन के साथ चार दशक के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है। निकट भविष्य में कोई बहुत सुधार के भी संकेत नहीं हैं क्योंकि जानकार बता रहे हैं कि इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक थोक महंगाई दर 11.5 से 12 फीसदी रहेगी।
महंगाई से बढ़ी दुश्वारियों के बीच जहां एक तरफ कई फर्म बंद हो गए हैं, वहीं 14 फीसदी उपभोक्ता ब्रांड बाजार से बाहर हो गए हैं। जाहिर है कि बंदी का शिकार हो रहे ऐसे उद्यमों को बचाने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। लघु और मझोले उद्यमों से जुड़े एक हालिया सर्वे में पचास फीसदी लोगों ने माना कि महामारी के बीच उनकी मदद करने में मौजूदा सरकारी योजनाएं और प्रोत्साहन अपर्याप्त रहे। इनमें 43 फीसदी ने तो इस संकट में अपने कामधाम ही बदल लिए।
ऐसे में निकट भविष्य की राहत के लिए इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी योजना को वित्तीय वर्ष 2022-23 तक बढ़ाया जाना चाहिए, जिसमें संचित निधि में संभावित वृद्धि के साथ इसका लाभ उठाने वाले उद्यमियों-दुकानदारों के लिए योग्यता मानदंड में छूट दी गई है। बहरहाल, जो हालात हैं उसमें एक बात जो अंतिम तौर पर कही जा सकती है कि यह स्थिति आम भारतीयों और हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं है। यह असंतोष का समय है, नीति निर्माताओं को यह बात समझनी चाहिए।
नाकाफी रहे प्रोत्साहन
जानकार बता रहे हैं कि इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक थोक महंगाई दर 11.5 से 12 फीसदी रहेगी। लघु और मझोले उद्यमों से जुड़े एक हालिया सर्वे में 50% लोगों ने माना कि महामारी के बीच उनकी मदद करने में मौजूदा सरकारी योजनाएं और प्रोत्साहन अपर्याप्त रहे। इनमें 43% ने तो अपने कामधाम ही बदल लिए। ऐसे में निकट भविष्य की राहत के लिए इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी योजना को वित्तीय वर्ष 2022-23 तक बढ़ाया जाना चाहिए, जिसमें संचित निधि में संभावित वृद्धि के साथ इसका लाभ उठाने वाले उद्यमियों-दुकानदारों के लिए योग्यता मानदंड में छूट दी गई है।