वो अमेरिका जिसने अपने हजारों बेकसूर बहादुर सैनिकों को मिट्टी के खिलौने की मानिंद, बे-मकसद ही मरवा डाले अफगानिस्तान में कथित "शांति" का दौर लाने की बेतुकी जिद में. उस अफगानिस्तान की खातिर जो किसी भी कीमत पर कभी भी अमेरिका के लिए 'अंडा देने वाली मुर्गी' तो कम से कम नहीं ही रहा था. ऐसे में सवाल पैदा होता है कि आखिर फिर अमेरिका ने अफगानिस्तान में अमन का बीणा उठाकर खुद को फौज, गोला-बारूद, आर्थिक रूप से आखिर कई दशक पीछे क्यों धकेला? खैर छोड़िए, अमेरिका के चंद सनकी हुक्मरानों ने जो किया, वो अपने देश के लिए करा-धरा. चाहे अच्छा था या फिर बुरा. हमें अमेरिका की चिंता नहीं करनी करनी चाहिए. यह महज एक बे-फिजूल के मुद्दे पर वक्त जाया करने से ज्यादा और कुछ नहीं साबित होगा.
दूसरे को बचाने में खुद की हालत खस्ता
मुद्दे की बात यह है कि जो अमेरिका अफगानिस्तान को बचाने के चक्कर में अपने देश की हालत खस्ता किए बैठा है. वही 'सुपर-पॉवर' अफगानिस्तान में अपने वर्तमान, भविष्य का सही आंकलन करने में चूक गया. क्या ऐसे में अफगानिस्तान के झगड़े-फसाद-खून-खराबे में कूदकर मौजूदा हालातों में 'उछल कूद' मचाने वाला पाकिस्तान अपनी सलामती देख रहा है? अतीत के पन्ने पलटिए तो बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है. अमेरिकी फौज के हटने की घोषणा के बाद, दो महीने पहले जब अफगानिस्तान के 'सिंहासन' को लेकर वहां तालिबान और अफगानी सैनिकों के बीच खून-खराबा शुरू हुआ. लग रहा था कि कहीं अगर अफगानी सेना भारी पड़ गई तो तालिबान खुद की जान कहां छिपकर बचाएगा? इस सवाल के जबाब में तालिबान तो कुछ नहीं बोल सका. क्योंकि वो तब अपने ही देश (अफगानिस्तान) की सेना से युद्ध में मशरूफ था. उसी दौरान खबरें आने लगीं कि पाकिस्तान मुसीबत की उस घड़ी में तालिबान को अपने यहां शरण देकर उसका मददगार साबित होगा.
पाकिस्तान का ढोंग और ISI का राग
बस फिर क्या था? इन खबरों के खंडन के लिए पाकिस्तानी हुकूमत और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के आकाओं ने खुलेआम राग अलापना शुरू कर दिया. यह कहकर कि वह (पाकिस्तान) किसी भी तरह से तालिबान को अपने देश में नहीं घुसने देंगे. इसके लिए पाकिस्तान ने ढोंग रचा. इसी ढोंग के क्रम में उसने पाकिस्तानी व इंटरनेशनल मीडिया में कुछ तस्वीरें छपवाईं. उन तस्वीरों में दिखाया गया कि एहतियातन पाकिस्तान किस तरह से अफगानिस्तान सीमा पर कंटीली बाड़, दीवार रातों-रात तैयार करवा रहा है. इन तस्वीरों के साथ ही पाकिस्तानी हुकूमत ने खबर भी उछलवाई. खबर थी कि यह सब इंतजामात पाकिस्तान इसलिए कर रहा है ताकि, अपने ही देश की हुकूमत से हारने के हालात में अचानक तालिबान कहीं पाकिस्तान का रूख न कर बैठें. लिहाजा हर हाल में तालिबानियों को पाकिस्तान में घुसने से रोका जाएगा.
पाला बदलने में माहिर पाकिस्तान
अब आप खुद ही पकड़ लीजिए पाकिस्तान के झूठ-फरेब को. जैसे ही तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तानी फौज को खदेड़ कर, वहां के सिंहासन पर काबिज होते दिखे. पाकिस्तानी हुकूमत ने तुरंत पाला बदल लिया. वो तालिबानी लड़ाकों के सुर में सुर मिलाकर ना सिर्फ बोलने लगी. वरन् यह कहा जाए कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबान का पलड़ा भारी देखते ही बेतहाशा चीख-चिल्लाकर यह भी जमाने में जाहिर करने लगा कि, वो हर हद से पार जाकर तालिबान का किस कदर 'खैर-ख्वाह' है. मतलब साफ हो गया कि पाकिस्तान न जमाने में कभी भरोसे के लायक था. न आज है न वो कभी भरोसे के लायक होगा.
उसकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है. पाकिस्तान कब किस वक्त किसके खेमे में हवा का रुख बदलते ही, जाकर लोटने-पोटने लगे. इस बारे में सटीक कुछ कह देना हमेशा मुश्किल ही रहेगा. बहरहाल खूनी जंग में जीत तालिबान की हुई. लिहाजा तालिबान का पलड़ा भारी पड़ता देख चंद घंटों में ही पाकिस्तान ने पाला बदल डाला. जब उसने देखा कि अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे में सिर्फ और सिर्फ 'पंजशीर' नहीं आ रहा है. तो उसने मौके का फायदा उठाते हुए पहले तो अपने विदेश मंत्री को तालिबानी नेताओं की गुफा में भेजा.
पाकिस्तान के बदौलत मिला पंजशीर
उसके तुरंत बाद ही पाकिस्तानी हुक्मरानों ने अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख को रातों रात तालिबानी लड़ाकों के मुखियाओं के पास दौड़ा दिया. नतीजा वही निकल कर सामने आया जिसकी जमाने को उम्मीद थी. आईएसआई प्रमुख की वापसी के अगले दिन पाकिस्तानी वायुसेना के लड़ाकू विमानों ने सैकड़ों कुंटल-टन गोला-बारूद पंजशीर के ऊपर जाकर झोंक दिए. इसके अगले ही दिन तालिबान ने घोषणा कर दी कि उसने अजेय-अभेद्य समझे जाने वाले उस 'पंजशीर' को फतेह कर लिया है, जिसे किसी जमाने में रूस भी हासिल नहीं कर सका था.
इससे साफ हो गया कि पाकिस्तानी हुकूमत और वहां के हुक्मरान किस दर्जे के 'डबल-माइंडेड' हैं. वे अपनी जीत का कोई भी मौका हाथ से गंवाना नहीं चाहते. चाहे फिर वो तालिबान जैसे किसी खूंखार आंतकवादी संगठन से हाथ मिलाने का ही क्यों न हो. रातों-रात जुबान से पलट कर यह सब ओछी हरकत करने वाला वही पाकिस्तान था जो, तालिबान और अफगानिस्तानी फौजों के बीच चल रही खूनी जंग के दौरान, तालिबानियों को पाकिस्तान में घुसने देने से रोकने के लिए देश की सीमाओं पर (अफगानिस्तान से जुड़ी सीमा) कंटीली बाड़ लगाने का झूठा प्रचार-प्रसार कर-करा रहा था.
करनी और कथनी में जग-जाहिर फर्क
यह तो रही तालिबान को लेकर पाकिस्तान के दोगले, दोमुंहे रुख की बात. अब चलते हैं इस सबकी तह में. ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान को आतंकवाद (तालिबान) की आग में झोंके जाने से बचाने के लिए हिंदुस्तान नें यादगार प्रयास नहीं किए. हिंदुस्तान ने जो कुछ या फिर क्या कुछ अफगानिस्तान के हित में किया. गाने-बताने की जरूरत नहीं है. सब जमाने के सामने मौजूद है. बदले में हिंदुस्तान ने अफगानिस्तान से किसी तरह की कोई अपेक्षा की हो. ऐसा भी नहीं है. यह भी दुनिया के तमाम बड़े देश जानते हैं.
इसके बाद भी जब से अमेरिका ने अपनी फौज अफगानिस्तान से हटाने की घोषणा की. अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज वापिस होने के बाद वहां तालिबान ने जो कहर बरपाया. वो सबने देखा. इस सबके बावजूद हिंदुस्तान ने पूरे एपीसोड में कहीं कोई किसी तरह की बयानबाजी नहीं की. न ही पाकिस्तानी हुकूमत या उसके हुक्मरानों की मानिंद कोई ऊल-जलूल बयानबाजी की. न ही अफगानी सेना और तालिबान के बीच चल रही खूनी जंग के दौर में कोई वाहियाद बयानबाजी की. न ही वहां अपनी फौज तैनात करने जैसा कोई कदम उठाया. इस सबके विपरीत भारत ने तय किया कि वो अफगानिस्तान के हर डिवेलपमेंट पर चुपचाप नजर रखेगा.
हम तैयार हैं उतावले कतई नहीं
हिंदुस्तानी हुकूमत और यहां के सियासतदानों की मंशा थी कि वो अफगानिस्तान में शांति बहाली होने तक खामोश रहेंगे. हां, जब अफगानिस्तान को हिंदुस्तान की मदद की जरूरत होगी तो, चाहे तालिबान हो और फिर चाहे वहां की चुनी हुई सरकार. दोनो कभी भी हिंदुस्तान को अपना शुभचिंतक मानकर पुकार सकते हैं. हम (हिंदुस्तान) तत्काल उनकी मदद के लिए उपलब्ध रहेंगे. पाकिस्तान जैसी उछल-कूद या धमाचौकड़ी न तो हिंदुस्तानी हुकूमत ने मचाई, न ही हिंदुस्तानी हुकूमत के किसी नुमाईंदे ने. हिंदुस्तानी हुकूमत के खामोशी अख्तियार करने के पीछे उसका अफगानिस्तान में छिड़ी खूनी जंग से डरकर दुम दबा लेना भी कतई नहीं था.
दरअसल हिंदुस्तानी हुकूमत सिर्फ यह देख रही थी कि अफगानिस्तान में छिड़ी जंग का अंत आखिर कहां और क्या होता है? भारत जैसे किसी भी भारी-भरकम दमखम वाले देश की हुकूमत का सब्र के साथ यह सब देखना ही सबसे उचित भी था. ताकि बड़बोले पाकिस्तान की तरह जमाने में हमारी भी थू-थू न हो. मसलन पाकिस्तान को लगा कि तालिबानी लड़ाके जंग में मात खा जाएंगे.
ऐसे साफ हुई पाक की 'नापाक' मंशा
जब उसने अफगानिस्तान की सीमा पर कंटीली बाड़ लगाने का प्रोपेगेंडा फैलाना शुरू किया यह कहकर कि तालिबान को वो अपने देश में किसी भी कीमत पर नहीं घुसने देगा. पाकिस्तान को जैसे ही लगा कि अब तालिबान जंग में जीत की ओर बढ़ रहा है. उसे (तालिबान को) पंजशीर फतेह करने के लिए अब सिर्फ और सिर्फ गोला-बारूद व हवाई हमले के लिए किसी वायुसेना (लड़ाकू विमानों) की दरकार है. तो पाकिस्तान ने चंद घंटों में अपनी वायुसेना भेजकर पंजशीर घाटी में अंधाधुंध गोला-बारूद झुंकवा डाला. पाकिस्तान ने जो कुछ किया वो सब उसके 'डर' का पैरामीटर तय करने के लिए भी काफी है. उसकी इन चंद उट-पटांग या कहिए कि बचकानी चालों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि, पाकिस्तान किसी का सगा नहीं है. अगर वो कुछ है तो सिर्फ और सिर्फ मौका-परस्त. जब जिसका पलड़ा भारी देखता है. उसी ओर लुढ़क जाना पाकिस्तान की जन्मजात फितरत है. पाकिस्तानी हुक्मरानों की सोच किस स्तर तक की गिरी हुई है? अफगानिस्तान में तालिबान और वहां की सेना के बीच मचे खूनी घमासान के दौरान, पाकिस्तानी हुकूमत और उसके हुक्मरानों की "उछल-कूद" से यह सब भी जमाने की नजरों में साफ हो गया.
हिंदुस्तानी खामोशी की खासियत
उधर अफगानिस्तान के इस पूरे खूनी कहिए या फिर तबाही से भरे एपीसोड में हिंदुस्तान ने जिस तरह की 'खामोशी' अख्तियार की, मौजूदा हालातों में वह अपने आप में अद्भूत कही जा सकती है. किसी भी ताकतवर और धीर-गंभीर देश की यही भूमिका होनी भी चाहिए थी. अफगानिस्तान के हर शुभचिंतक देश को सब्र के साथ सही वक्त का इंतजार करना चाहिए. न कि मौकापरस्त पाकिस्तानी की तरह मिनट में इधर मिनट में उधर 'उछलकूद' मचा डालनी चाहिए. इन तमाम बिंदुओं के बीच अब सवाल यह भी पैदा होना लाजिमी है कि आखिर, पाकिस्तान की इस मौकापरस्ती और हिंदुस्तान की खामोशी का नफा-नुकसान का गुणा-गणित या कहिए कि ऊंट किस करवट बैठेगा? तो ऐसे में यह तो साफ हो चुका है कि पाकिस्तान जिस तरह की उछलकूद मचाकर तालिबान की अंधी चाहत में खुद को डुबोकर, जमाने में अपने से ज्यादा किसी और को नसीब वाला नहीं मान रहा. उसकी यही गलती आने वाले वक्त में उसके सबसे बड़े 'दु:ख' का कारण सिद्ध होगी. तालिबान की चाहत में उसने पंजशीर में अपनी वायुसेना से हमला कराकर जो ओछा या कह सकते हैं कि अपनी मौकापरस्ती का जो घटिया नमूना पेश किया है. वो जमाने की नजरों में आ चुका है. अमेरिकी की नजर में भी पाकिस्तान आ चुका है.
'सुपर-पॉवर' सब जानता है
अमेरिका समझ चुका है कि पाकिस्तान के दांत खाने के और दिखाने के और हैं. अफगानिस्तान में मचे तालिबान के खूनी हुड़दंग में खोया पाकिस्तान भूल चुका है कि, चंद महीने पहले तक वो उसी की (अरबों-खरबों डॉलर की अमेरिकी लोन या कहिए आर्थिक मदद) रोटियों पर ही पल-बढ़ रहा था. तालिबान की इस खूनी जंग में अमेरिका सहित दुनिया ने हिंदुस्तान की तटस्थता वाली 'खामोशी' भी देख ली. जिसने कहीं कोई किसी तरह का अति-उत्साह नहीं दिखाया गया. सिवाए इसके कि जरूरत के हिसाब से जब जैसा बन पड़ेगा भारत वैसा कदम उठाने में सक्षम है. लिहाजा ऐसे में कहा जा सकता है कि जो अमेरिका 20 साल में अपने खरबों डॉलर फूंककर. अपने हजारों बेकसूर बहादुर सैनिकों को गंवाकर भी अफगानिस्तान में वहां की चुनी हुई सरकार को सुरक्षित रख पाने में नाकामयाब रहा. उस अफगानिस्तान के तालिबानी लड़ाकों से दोस्ती करके पाकिस्तान खुद को आखिर कैसा महसूस कर रहा है? ऐसा न हो कि कूटनीति के खेल में कहीं पाकिस्तान को उसका अब तक चला गया हर दांव खुद पर ही आने वाले वक्त में भारी पड़ जाए. जबकि एक अदद मगर धीर-गंभीर हिंदुस्तानी हुकूमत की महज एक बेहद परिपक्व 'खामोशी' उसके धुर-विरोधी यानि पाकिस्तान पर भारी साबित हो जाए.