नाराजगी के बावजूद
उत्तर प्रदेश सरकार के दो मंत्रियों ने भ्रष्टाचार और अपने अफसरों के रवैए को लेकर सवाल उठाए, तो स्वाभाविक रूप से सनसनी फैल गई। जलशक्ति मंत्री दिनेश खटीक तो अपने मातहत अधिकारियों के व्यवहार से इतने आहत थे कि उन्होंने अपना इस्तीफा तक मुख्यमंत्री को सौंपने के बजाय केंद्रीय गृहमंत्री को भेज दिया और उसमें अपनी व्यथा दर्ज की।
Written by जनसत्ता; उत्तर प्रदेश सरकार के दो मंत्रियों ने भ्रष्टाचार और अपने अफसरों के रवैए को लेकर सवाल उठाए, तो स्वाभाविक रूप से सनसनी फैल गई। जलशक्ति मंत्री दिनेश खटीक तो अपने मातहत अधिकारियों के व्यवहार से इतने आहत थे कि उन्होंने अपना इस्तीफा तक मुख्यमंत्री को सौंपने के बजाय केंद्रीय गृहमंत्री को भेज दिया और उसमें अपनी व्यथा दर्ज की।
उनका कहना था कि नमामि गंगे परियोजना में भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है, उनके अधिकारी उनका आदेश नहीं मानते, उनके विभाग के प्रमुख सचिव ने उनकी बात तक पूरी नहीं सुनी। अपनी व्यथा लेकर वे दिल्ली दरबार में भी हाजिर हुए। उनके अलावा लोक निर्माण मंत्री जितिन प्रसाद भी तबादलों को लेकर नाराज थे और वे दिल्ली पहुंच कर शीर्ष नेताओं के सामने अपनी पीड़ा गाई।
हालांकि दिल्ली से लौटने के बाद दोनों का सुर बदला हुआ था। दिनेश खटीक ने मुख्यमंत्री से मुलाकात की और फिर वे संतुष्ट नजर आए। उन्होंने कहा कि वे पहले की तरह काम करते रहेंगे। अच्छी बात है कि मामले को जल्दी संभाल लिया गया और इसे लेकर विपक्ष को देर तक अपनी रोटी सेंकने का मौका नहीं मिला। मगर जिस तरह दोनों नेताओं की नाराजगी फूटी उससे सरकार के कामकाज और मुख्यमंत्री के रवैए पर अंगुलियां तो उठनी ही थीं।
हालांकि यह पहली बार नहीं है, जब योगी आदित्यनाथ सरकार में किसी मंत्री ने अपनी अवहेलना को लेकर नाराजगी जताई। उनके पिछले कार्यकाल में उपमुख्यमंत्री रहे केशव प्रसाद मौर्य के प्रति मुख्यमंत्री के उपेक्षापूर्ण रवैए को खूब रेखांकित किया जाता रहा। स्वास्थ्य विभाग में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त तो कई नेता और मंत्री खुलेआम अपनी हैसियत को तवज्जो न मिल पाने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में चले गए।
इस तरह के कई मामलों को रेखांकित करते हुए कहा जाता रहा है कि मुख्यमंत्री के काम करने का तरीका लोकतांत्रिक कतई नहीं है। दिनेश खटीक चूंकि दलित समुदाय से हैं, इसलिए उनकी नाराजगी को पूरे दलित समुदाय के अपमान के तौर पर देखा जाने लगा था। इस पूरे प्रकरण में विचित्र बात है कि कैसे किसी सरकार में अफसरों की इतनी हैसियत बढ़ गई कि वे अपने मंत्री तक के आदेश का पालन करना जरूरी नहीं समझते, उनका फोन तक सुनना गंवारा नहीं करते। सरकार चलाने में अफसरों की प्रमुख भूमिका होती है, मगर नियम-कायदे के मुताबिक उन्हें अपने मंत्री के आदेश के अनुसार ही काम करना होता है। अगर वे अपने मंत्री के बजाय किसी और के आदेश पर काम करने लगें, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपमान है।
दिनेश खटीक की नाराजगी से यह तो स्पष्ट है कि उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया गया और सारे फैसले केंद्रीय मंत्री खुद करते रहे। मगर राज्यमंत्री होने का यह अर्थ कतई नहीं होता कि उसे फैसले लेने का कोई अधिकार न दिया जाए या महज दिखावे का मंत्री बन कर रहने पर मजबूर कर दिया जाए। इस तरह अगर किसी भी सरकार में केवल कुछ ही लोगों का फैसला लागू होने लगे, सारे अधिकारी उसी को खुश करने का प्रयास करें और अपने मंत्री तक की उपेक्षा करने की हिम्मत दिखाने लगें, तो इससे अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। यों उत्तर प्रदेश सरकार अपराध और भ्रष्टाचार मिटाने के दावे तो बढ़-चढ़ कर करती है, पर उसके कामकाज का तरीका अगर यही है, तो प्रदेश और समाज में बेहतरी की उम्मीद धुंधली ही नजर आती है।