By: divyahimachal
पर्यटन के भारतीय खाके में सुधार के लिए धर्मशाला में पर्यटन मंत्रियों का सम्मेलन, खाक छानते हुए एक राष्ट्रीय पर्यटन नीति के आगमन का इंतजार करते दिखा। पर्यटन के कई पहलू और कई द्वार हैं, लेकिन दिशाहीन वृद्धि ने संभावनाओं के अक्स में बदसूरती भर दी है। राष्ट्रीय स्तर पर सभी राज्यों का पर्यटन एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन कनेक्टिविटी के आधार पर एक समान एप्रोच चाहिए। आश्चर्य यह कि जिस धर्मशाला शहर को पर्यटन सम्मेलन अपनी जुबान दे रहा है, उसके प्रांगण में प्रस्तावित कान्वेंशन सेंटर की एक ईंट तक तैयार नहीं हुई। पर्यटन मंत्रियों के सामने हिमाचल आखिर अपनी प्रस्तुति में जो दिखा पाएगा, उसके बावजूद हम यह नहीं कह सकते हैं कि इस क्षेत्र को पूरी तरह साध लिया गया। राष्ट्रीय स्तर पर पर्यटन को नसीहत या सलाह देने के विचारों की कमी नहीं, लेकिन जो होना चाहिए था हुआ क्यों नहीं। हिमाचल के ही संदर्भ में लें तो पर्यटन सम्मेलन को यह कैसे समझाएंगे कि कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार के लिए पिछले पांच सालों में किया क्या। भले ही देश के प्रधानमंत्री दसवीं बार मंडी में आ रहे हैं, लेकिन उनकी यात्रा उड़ान हिमाचल को पंख नहीं दे पाई। पर्यटन मंत्रियों को मीलों दूर बैठे आध्यात्मिक गुरु सद्गुरु जग्गी वासुदेवा राय दे रहे हैं, लेकिन मात्र दस किलोमीटर दूर विराजित महामहिम दलाई लामा से सम्मेलन के आयोजनों का राफ्ता ही कायम नहीं हो रहा।
क्रिकेट खिलाड़ी कपिल देव ने पर्यटन ब्रांडिंग के सुझाव दिए हैं, लेकिन प्रदेश में आधी सदी गुजार चुके दलाईलामा को हमने अपने पर्यटन का हिस्सेदार ब्रांड माना ही नहीं। प्रदेश में तिब्बती या बौद्ध पर्यटन की क्षमता में पिछले चार दशकों में भारी उछाल आया, लेकिन किसी सरकार ने इसे एक सर्किट के रूप में न तो मान्यता दी और न ही इसके अनुरूप ढांचागत सुधार किए। लाहुल-स्पीति के प्राचीन मठों के अलावा तिब्बती मठों पर केंद्रित पर्यटन क्षमता को एकसूत्र में पिरोया होता, तो हाई एंड टूरिज्म की दिशा में यह क्षेत्र एक बड़ी संभावना का सूत्रधार साबित होता। धर्मशाला से मनाली के रास्ते के मध्य अगर कालचक्र आयोजन का कोई स्थायी ठिकाना ही विकसित कर लेते, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मुकाम हासिल होता। लगभग यही हालत धरोहर पर्यटन की है। हज़ार साल से अपने अस्तित्व की छांव में बैठे चंबा शहर को प्रमुख धरोहर शहर बनाया जाता, मंडी शहर को सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा मिलता, मकलोडगंज मिनी ल्हासा बनता, पालमपुर चाय नगरी के रूप में विकसित होता, कांगड़ा व सुजानपुर के किले ऐतिहासिक दस्तावेजों से शृंगार करते, तो आज क्षमतावान सैलानी भी यहां पहुंचते।
आश्चर्य यह कि भारत के सबसे बड़े विस्थापन से बने पौंग व गोविंदसागर बांधों को हम आज भी पर्यटन और मनोरंजन से नहीं जोड़ पाए। हमारे धार्मिक स्थलों में पर्यटन क्षमता विकास के स्थान पर आमदनी खैरात में बंटकर शिक्षण संस्थानों, राजनीतिक उपकारों और नौकरी के चमत्कारों में डूब गई। अगर मंदिर विकास प्राधिकरण का गठन करके तमाम धर्मस्थलों को दक्षिण भारतीय मंदिरों की तर्ज पर विकसित करते तो आज तक करीब पांच हज़ार करोड़ की आर्थिकी इस माध्यम से जोड़ी जा सकती थी। इसी तरह ऊना के धरोहर गुरुद्वारों के साथ-साथ सिख धर्मस्थलों पर केंद्रित सिख पर्यटन को राष्ट्रीय योजनाओं से जोड़ दें, तो ऐसी धार्मिक विविधता का शृंगार किया जा सकता है। दरअसल हिमाचल के हर विभाग, स्थानीय निकायों, मनरेगा जैसी योजनाओं व नवनिर्माण को पर्यटन की दृष्टि से आगे बढ़ाना होगा और यह जरूरी है कि प्रदेश घोषित रूप से 'पर्यटन राज्य' की अवधारणा में आगे बढ़े। जाहिर है ऐसी अवधारणा से ही स्कूल-कालेजों की पढ़ाई, युवाओं की दृष्टि तथा ढांचागत उपलब्धियों का खाका निर्मित होगा। देश में क्षेत्रीय आधार पर पांच-छह पड़ोसी राज्यों के बीच नए सर्किट, विमान व रेल सेवाओं तथा रज्जु मार्गों इत्यादि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।