हकीकत तो यह है कि यदि पाकिस्तान हड़पा हुआ कश्मीर का हिस्सा भारत को वापस कर दे तो अफगानिस्तान के रास्ते भारत इन देशों से सीधे खुद-ब-खुद जुड़ जायेगा। अतः पाकिस्तान 'सौ-सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली' मुहावरे की तर्ज पर खुद को पाक-साफ दिखाने की नाकाम कोशिश कर रहा है। हकीकत यह है कि भारत ने पाकिस्तान के निर्माण के बाद से ही इस देश के साथ दोस्ताना ताल्लुकात रखने की भरपूर कोशिश की मगर पाकिस्तान के हुक्मरानों ने सिर्फ भारत विरोध को ही अपने वजूद के लिए जरूरी समझा और इस हद तक समझा कि बेवजह ही इसने भारत से कई बार युद्ध लड़ा और अपने मुल्क में इन युद्धों को दो देशों के बीच की लड़ाई न बता कर 'हिन्दू हिन्दोस्तान' के खिलाफ जेहाद तक की संज्ञा दी।
इस बारे में एक ही उदाहरण काफी है कि जब 1972 शिमला में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो जाने के बाद समझौता करके वापस स्वदेश लौटे तो उन्होंने कराची पहुंच कर एक बहुत बड़ी जनसभा को सम्बोधित किया। इस जनसभा में उन्होंने जो तकरीर की उसके शब्द सुनिये ''मैं मानता हूं कि हमारी हार हुई है।
पिछले एक हजार साल के इतिहास में हिन्दुओं से हमारी इससे बड़ी शिकस्त कभी नहीं हुई। उन्होंने हमें जंग के मैदान में जबर्दस्त शिकस्त दी है...।'' यह सब रिकार्ड में दर्ज इतिहास है जिसके बारे में रंज मात्र भी सन्देह नहीं किया जा सकता। जबकि भारत का नजरिया शुरू से पाकिस्तान के बारे में यह रहा कि इसके साथ उसके सम्बन्ध अमेरिका-कनाडा जैसे होने चाहिए। 1947 के बाद ऐसा हुआ भी। इमरान खान मूलतः क्रिकेट खिलाड़ी हैं अतः उन्हें मालूम होना चाहिए कि पाकिस्तान बनने के तुरन्त बाद किस तरह क्रिकेट के खेल का इस्तेमाल दोनों देशों की सरकारों ने कि था जिससे बंटवारे के जख्मों को धीरे-धीरे भरा जा सके। 1956 तक भारत व पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच देखने के लिए अटारी बार्डर से ही लोग केवल परमिट लेकर इधर- उधर जाते थे। दिन में वे सीमा पार जाते थे और रात को अपने-अपने देश लौट आते थे। तब तक वीजा की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी परन्तु 1956 के बाद से पाकिस्तान में सियासत बदली और मार्शल लाॅ होने के बाद सैनिक शासन आने पर इस मुल्क की नामुराद फौजों ने भारत से दुश्मनी को अपना ईमान बना लिया और 1963 में चीन को पाक अधिकृत कश्मीर का पांच हजार वर्ग किलोमीटर हिस्सा सौगात में देकर समझा कि इससे भारत का पूरे जम्मू-कश्मीर पर दावा ढीला पड़ जायेगा। पाकिस्तान ने तब दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बनाने की रणनीति अपनाई क्योंकि 1962 में भारत- चीन के बीच युद्ध हुआ था।
परन्तु 1965 में अचानक ही बिना किसी उकसावे के पाक के फौजी हुक्मरान जनरल अयूब ने कश्मीर के रास्ते भारत पर हमला बोल दिया और मुंह की खाने के बाद उसी ताशकन्द में समझौता हुआ जो आजकल उज्बेकिस्तान की राजधानी है। इन सभी देशों में तेल व प्राकृतिक गैस के भंडार भरे पड़े हैं जिनसे भारत भली-भांति परिचित है। मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत ने तुर्कमेनिस्तान से बारास्ता अफगानिस्तान व पाकिस्तान से 1800 कि.मी. से भी ज्यादा लम्बी गैस पाइप लाइन बिछाने का समझौता हुआ था। मगर इस परियोजना को सिरे चढ़ाने में पाकिस्तान की तरफ से इतने अड़ंगे लगाये गये थे कि इस देश ने पाइप लाइन के अपने देश से गुजरने पर भारी हर्जाना दिये जाने तक की मांग की थी।
अतः इमरान खान को यह इतिहास भी मालूम होना चाहिए। इसके साथ यह भी पता होना चाहिए कि अभी तक पाकिस्तान जितना धन केवल भारत से लड़ाई करने पर खर्च कर चुका है उतने ही धन से वह आम पाकिस्तानी की औसत वार्षिक आय में तीन गुनी वृद्धि कर सकता था। मगर भारत की दुश्मनी का जुनून पैदा करने के चक्कर में इस्लामाबाद में बैठे शासकों ने अपनी अवाम को गरीब बनाये रखना बेहतर समझा।
इसलिए अगर इमरान खान चाहते हैं कि भारत के साथ उनके मुल्क के ताल्लुकात बेहतर हों तो सबसे पहले वे उस मुल्क हिन्दोस्तान का एहतराम करना सीखें जिसकी जमीन लेकर उनका मुल्क वजूद में आया है। मगर चीन की गोद में बैठ कर पाकिस्तान भारत को दोस्ती का सबक सिखाने की हिदायत नहीं दे सकता। इसके साथ ही पीठ में छुरा घोंपने की अपनी फितरत में पाकिस्तान को बदलाव करना होगा और पूरी दुनिया के सामने सिद्ध करना होगा कि उसने आतंकवाद के खिलाफ जंग लड़ने की मुहीम ठान ली है। जब पाकिस्तान दुनिया में अकेला पड़ रहा है तो उसे भारत की याद आ रही है।
''दिया जब रंज बुतों ने तो खुदा याद आया।''