कोई भी संस्कृति विकास के दौर में अपने अनुभवों के आधार पर उत्पन्न जरूरतों और अपेक्षाओं की पूर्ति की दिशा में कार्यरत हो कर आगे बढ़ती है। समाज जाने-अनजाने अपने अनुभवों से सीखते हुए अपने क्रियाकलापों को संशोधित भी करता रहता है। पिछला ज्ञान अगले ज्ञान प्राप्ति की सीढ़ी बन जाता है। इस प्रक्रिया में कई सारी बातें अपने कड़वे अनुभवों के कारण वह, छोडऩे या संशोधित करने का प्रयास करता रहता है और कई सारी बातों में उसे कुछ नया करने की जरूरत अनुभव होती है, जिसे वह कई तरह के नवाचारों से पूरा करने का प्रयास करता है। ये नवाचार भौतिक जरूरतों से लेकर सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, कलात्मक, सुरक्षात्मक, शासनात्मक आदि अनेक प्रकार के होते हैं। इन सबके मेल से एक संस्कृति का निर्माण होता है जिसमें कई अनायास और सप्रयास तत्व जुड़े रहते हैं। सप्रयास तत्व संशोधन की प्रक्रिया में से निकलते हैं और अनायास तत्व समाज की ‘कम से कमतर संघर्ष’ की जरूरत वाला मार्ग अनुसरण करने की सहज प्रवृत्ति का परिणाम होते हैं। जो समाज जितने ज्यादा स्वतंत्र रहे उतना ज्यादा सप्रयास संशोधन के प्रयास वहां ज्यादा हुए। गुलामी के बंधन में फंसे समाज ‘कम से कमतर संघर्ष’ की जरूरत वाला मार्ग अपनाने पर विवश होते हैं क्योंकि उनके लिए अस्तित्व बचाए रखना ही बड़ी प्राथमिकता होती है।
इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को देखें तो इसके लिए गुप्त काल तक स्वतंत्र रहने सोचने का जो लंबा अवसर मिला उसी में इसके साहित्य, ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, गणित, कला, वास्तु शास्त्र आदि का विकास हुआ। उसके बाद के गुलामी का काल तो अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्षों की भेंट ही चढ़ता रहा, जिसमें कई अच्छी चीजें मिट गईं और कई गलत चीजें मजबूत होती गईं क्योंकि संशोधन का समय ही कहां था। कई नए दोष भी पनप गए। इन सबके गुण-दोष विवेचन में कार्य-कारण की भूमिका की तलाश तो समाज शास्त्रियों और इतिहासकारों का कार्य क्षेत्र है। हम तो वर्तमान में अच्छा क्या है, गलत क्या है, उसी पर अपनी-अपनी समझ अनुसार नजर डाल सकते हैं और जो अच्छा है, उसे बचाने और जो गलत है उसे दूर करने के प्रयास कर सकते हैं। वर्तमान में हमें जातिवाद एक बड़ा दोष नजर आता है जिसके आधार पर छोटा और बड़ा निर्धारित करना, पूर्णत: अवैज्ञानिक और मानवतावाद की नजर से और आध्यात्मिक नजर से भी तर्कसम्मत कदापि नहीं है। इसे सारे अहंकार छोड़ कर समाप्त करने की दिशा में हम जितना ज्यादा प्रयास करेंगे उतना ही हमारा भविष्य उज्ज्वल होगा। जातिमुक्त समाज समय की मांग भी है। इसे ही हम सामाजिक न्याय कह रहे हैं। जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, रंग, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर कोई भी भेद सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस बात को हृदयंगम करने का आसान तरीका है समानुभूति।
अर्थात पीडि़त की जगह अपने आपको रख कर सोचना। हमारे साथ कोई ऐसा करे तो हमें कैसा लगेगा। इससे बहुत बड़ी शक्ति मानसिक तौर पर मिलती है जिसके बल पर हम आत्म संशोधन के बड़े से बड़े कदम, समाज की निंदा स्तुति की परवाह किए बिना उठा सकते हैं। दहेज, बाल विवाह, जनसंख्या नियंत्रण का अभाव, प्रकृति विनाशक जीवन पद्धति आदि सांस्कृतिक दूषण भी समाज में विद्यमान हैं। इनसे मुक्ति सर्वांगीण प्रगति के लिए जरूरी है। लेकिन कुछ दोष आ जाने के कारण हमें किसी भी संस्कृति के गुणों से अनभिज्ञ होकर उसके साथ घृणा करने से भी बचना चाहिए। इससे हम दीर्घ कालीन अनुभव से संचित सकारात्मक संस्कार से अपने आप और समग्र समाज को वंचित कर देंगे। कोई भी संस्कृति ऐसी नहीं है जिसमें दोष न हों। और कोई भी संस्कृति ऐसी भी नहीं जिसमें गुण न हों। इसलिए गुण-दोष के आधार पर ही विवेचन होना चाहिए। आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय संस्कृति आजकल इस संकट को झेल रही है। बिना विवेचना के मनमर्जी से हम किसी भी बात को गलत ठहरा कर अपने आप को प्रगतिशील मानते हैं। निष्पक्ष विवेचना तो निष्पक्ष समाज या बुद्धि से ही की जा सकती है। इस तरह असंगत विरोध तो एक पक्षीय सोच का ही परिणाम हो सकता है। यदि हम भारतीय संस्कृति की रीढ़ या नींव को समझने का प्रयास करें तो हम पाएंगे कि प्रकृति के साथ समरसता पूर्वक जीने की कला को आत्मसात करते हुए भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति की ओर अग्रसर होना ही भारतीय संस्कृति का मूल है। इसी आधार पर हमारे त्यौहार निर्धारित हुए हैं। हमारी दैनंदिन गतिविधियां भी तो प्रकृति की आराधना और संभाल के इर्द-गिर्द ही बनी रहती हैं। सुबह धरती का वंदन, सूर्य का धन्यवाद-वंदन, तुलसी-पीपल की पूजा, शादी-विवाह के संस्कार आदि प्रकृति के साथ घनिष्ठता स्थापित करने और प्रकृति की रक्षा के प्रति सजग रहने का संस्कार देने का काम करते हैं। पानी की शुद्धता बनाए रखने के लिए पानी और नदियों पर देवत्व आरोपित करने में यही समझ काम करती है। इसका असर लोक संस्कृति में भी अलग-अलग रूपों में देखने को मिलता है। समाज में आत्मनियंत्रण के लिए पाप-पुण्य की सुंदर मान्यताओं को प्रचारित किया है। जो बच्चे छोटे हैं और पाप-पुण्य को समझ नहीं सकते उनके लिए बड़े सुंदर डर पैदा करने की प्रथा बन गई है।
पानी में पेशाब करने पर नानी को गाली लगती है। अब नानी तो सबको प्यारी है, उसको गाली न लगे इस बात का ख्याल छोटे बच्चे भी रखते थे। अनपढ़ समाज में भी इस तरह अनुशासन बनाया जाता था। अब तो समाज पढ़ लिख गया है। उसे विज्ञान की भाषा में समझाना पड़ता है। किन्तु विज्ञान तो बुद्धि का मामला है और व्यवहार तो हृदय से नियंत्रित होता है, इसलिए तमाम जानकारियों के बावजूद आज का पढ़ा लिखा समाज पानी में गंदगी करने से शर्मिंदा नहीं होता क्योंकि उसकी कोई ऐसी नानी नहीं है जिसे गाली लगने का उसे डर हो। संस्कृति में क्या ग्राह्य है और क्या त्याज्य है, उसका निर्णय बहुत समझ-सोच कर ही किया जाना चाहिए। प्रकृति से जुड़ाव का एक और उदाहरण बड़ा सुंदर है। जहां वैज्ञानिक समझ वालों के लिए एक पेड़ इतनी मात्रा में लकड़ी, फल-फूल आदि है क्योंकि अभी तक शुद्ध वायु, जल संरक्षण आदि वृक्ष द्वारा की जाने वाली अनेक पर्यावरणीय सेवाओं को, तथाकथित वैज्ञानिक समझ रखने वाला आम नागरिक आत्मसात नहीं कर पाया है, जबकि नर्क के भय से परिचालित सांस्कृतिक समझ से चलने वाले आदमी के लिए इतना विश्वास ही काफी है कि वह नरक नहीं जाएगा, इसी प्रोत्साहन से वह पञ्च आम के पेड़ लगाएगा भी और उनकी रक्षा भी करेगा। भारतीय संस्कृति के पास एक महत्त्वपूर्ण संदेश है जिसे आत्मसात करने की जरूरत है।
कुलभूषण उपमन्यु
पर्यावरणविद
By: divyahimachal