अवैध की जमीन
जब भी किसी अवैध या अनधिकृत निर्माण को प्रशासन की ओर से ढहाया जाता है तो सरकार इसके पक्ष में तर्क देती है और आम लोग भी इसे कानूनसम्मत कार्रवाई मानते हैं। सही है कि अतिक्रमण के तौर पर बने ढांचों को तोड़ने की कार्रवाई को कानून के तहत ही अंजाम दिया जाता है
Written by जनसत्ता; जब भी किसी अवैध या अनधिकृत निर्माण को प्रशासन की ओर से ढहाया जाता है तो सरकार इसके पक्ष में तर्क देती है और आम लोग भी इसे कानूनसम्मत कार्रवाई मानते हैं। सही है कि अतिक्रमण के तौर पर बने ढांचों को तोड़ने की कार्रवाई को कानून के तहत ही अंजाम दिया जाता है, मगर आमतौर पर यह सवाल बहस से बाहर रह जाता है कि आखिर कोई व्यक्ति नियम-कायदों को ताक पर रख कर कोई इमारत कैसे खड़ी कर लेता है या फिर गलत तरीके से किसी जमीन पर कोई निर्माण कैसे कर लेता है।
जबकि अमूमन किसी भी इलाके में एक छोटे भूखंड पर भी होने वाला निर्माण सबकी नजर में होता है। खासतौर पर किसी निर्माण के शुरू होने के बाद उस पर स्थानीय पुलिस या प्रशासन की नजर रहती है। इसके बावजूद यह शिकायत आम है कि किसी व्यक्ति या परिवार को ही अवैध निर्माण के लिए कानून के कठघरे में खड़ा होना पड़ता है और इसकी जिम्मेदारी के स्रोत साफ बचे रह जाते हैं।
इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम दखल देते हुए साफ शब्दों में यह कहा है कि अगर कहीं अनधिकृत निर्माण होता है तो इसके लिए पुलिस और नगर निगम के अधिकारियों की मिलीभगत जिम्मेदार है। यह छिपा नहीं है कि किसी भी इलाके में अगर कोई निर्माण शुरू होता है तो संबंधित महकमे का कर्मचारी या पुलिसकर्मी वहां पहुंच कर एक नजर जरूर डालता है।
ऐसे में अगर कुछ वक्त बाद उसी निर्माण को अनधिकृत या अवैध बता कर कोई कानूनी कार्रवाई की जाती है तो उसकी जिम्मेदारी किस-किस पर आनी चाहिए। इसी पहलू को आमतौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ लहजे में यह कहा कि अनधिकृत निर्माण अधिकारियों और उल्लंघनकर्ता के बीच तालमेल से होते हैं, जिससे निर्माण करने वाले के लिए लागत में इजाफा होता है। अदालत के मुताबिक ऐसे निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे हैं और सच यह है कि स्थानीय पुलिस अधिकारियों और निगम प्राधिकारों की मिलीभगत के बिना र्इंट तक नहीं रखी जा सकती है।
अदालत की यह टिप्पणी अवैध निर्माणों के इस पक्ष की ओर ध्यान खींचती है कि नियम-कायदों को तोड़ने में उल्लंघनकर्ताओं के साथ-साथ वे पुलिस अधिकारी और प्रशासन के लोग भी शामिल होते हैं, जिनकी ड्यूटी होती है कानून पर अमल सुनिश्चित कराने की। यह कैसे संभव हो जाता है कि बाजारों से लेकर गली-मुहल्लों में खुली दुकानों के सामने की सड़क पर सामान फैला कर या फिर फुटपाथों तक का अतिक्रमण कर लिया जाता है और नगर निगम या पुलिस-प्रशासन की नजर नहीं पड़ती।
आम लोग किसी तरह बच-बच कर वहां से गुजरते रहते हैं। फिर किसी दिन अतिक्रमण या अनधिकृत निर्माण को हटाने के नाम पर अचानक बड़े पैमाने पर कार्रवाई शुरू कर दी जाती है। ऐसे में स्वाभाविक ही मसले के तकनीकी पहलुओं और सालों से किसी अतिक्रमण या अनधिकृत निर्माण के बने रहने के सवाल उठते हैं। इसके अलावा, मानवीयता से जुड़े कुछ बिंदुओं पर बहस होती है। जाहिर है, अगर सरकार के संबंधित महकमे अपनी ड्यूटी को लेकर सजग हों तो संभव है कि इस तरह की गतिविधियां जमीन पर उतरें ही नहीं।
जब लोगों के पास नियम-कायदों के दायरे में कोई विकल्प उपलब्ध होगा और उसकी प्रक्रिया आसान होगी तो शायद उन्हें खुद ही उसका पालन करना अच्छा लगेगा। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और नगर निगमों की मिलीभगत की वजह से चलने वाली ऐसी गतिविधियों पर जरूरी सवाल उठाया है। अब यह सरकार पर निर्भर है कि वह इस मामले में क्या रुख अख्तियार करती है।