जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हैदराबाद महानगर पालिका के चुनावों में फीके मतदान से सिद्ध हो गया है कि इस शहर के लोगों पर स्थानीय प्रशासनिक मुद्दों को राष्ट्रीय फलक तक ले जाने का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है।
इसे हम भारतीय मतदाताओं की परिपक्वता के रूप में भी देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि वे विभिन्न सदनों के लिए होने वाले चुनावों को किस नजर से देखते हैं। किसी नगर पालिका या महानगर पालिका के चुनाव स्थानीय समस्याओं जैसे बिजली, पानी व सड़कों के सुचारू होने तक ही सीमित रहते हैं।
इनका राजनीतिक आधार पर लड़ा जाना इसलिए जायज कहलाता है कि विभिन्न सियासी पार्टियां इन चुनावों की मार्फत अपने-अपने कार्यकर्ताओं को राजनीति में प्रशिक्षित करती हैं। यह प्रशिक्षण इस प्रकार होता है कि स्थानीय स्तर की परीक्षाएं पास करके ये कार्यकर्ता राज्य स्तरीय और बाद में राष्ट्र स्तरीय राजनीति के योग्य बनते हैं, परन्तु तीनों ही स्तर पर राजनीति का अर्थ केवल जन सेवा ही होता है और नगर पालिका चुनाव इसकी पहली सीढ़ी होते हैं। हालांकि पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायतों को भी इस सीढ़ी पर रखा जा सकता है।
इन चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों का विशेष महत्व नहीं होता है क्योंकि इनका लक्ष्य राष्ट्रीय नीतियां बनाना नहीं होता बल्कि स्थानीय या मोहल्ला स्तर पर लोगों की समस्याएं सुलझाने का होता है और ये समस्याएं किसी राजनीतिक विचारधारा की मोहताज नहीं होती परन्तु राजनीतिक दल इन चुनावों में प्रत्याशियों को दलगत पहचान कर राजनीतिक प्रशिक्षण भी करते हैं जिसे लोकतन्त्र में शुभ माना जाता है।
भारत में एेसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब किसी नेता ने पंचायत स्तर से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाया और नाम भी कमाया। इनमें सबसे ऊपर नाम स्व. बी.डी. जत्ती का रखा जा सकता है जो देश के उपराष्ट्रपति रहने के साथ कई बार कार्यवाहक राष्ट्रपति भी रहे। वह मूलतः कर्नाटक के थे और ग्राम पंचायत से ऊपर उठ कर विधानसभा का रास्ता तय करते हुए उप राष्ट्रपति बने थे। अतः स्थानीय स्तर के चुनावों को कम करके आंकने का कोई कारण नहीं बनता है परन्तु मूल प्रश्न यह है कि हर चुने हुए सदन के अपने कर्त्तव्य व सामाजिक सरोकार होते है।
राजधानी दिल्ली में 1967 में जब पहली बार विपक्ष में रहने वाली भारतीय जनसंघ( भाजपा) नगर निगम चुनावों में जीती थी तो महापौर व उप महापौर के पद इसकी झोली में आये थे तब महापौर पद पर स्व. लाला हंसराज गुप्ता बैठे थे और उपमहापौर पद पर स्व. मेहरचंद सुशोभित हुए थे। इन दोनों ने ही दिल्ली नगर निगम में साफ-सफाई से लेकर स्वास्थ्य व प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर काम करने की कोशिश की थी जिसका लोगों ने स्वागत किया था और इसी का परिणाम हुआ था कि जब 1971 के लोकसभा चुनावों में दिल्लीवासियों ने सातों सीटें इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस को दे दी थीं तो इसके कुछ समय ही बाद हुए नगर निगम चुनावों में पुनः भारतीय जनसंघ को विजय दिलाई थी। इससे दिल्लीवासियों की राजनीतिक परिपक्वता का ही पता चला था। इसका अर्थ यह निकाला गया था कि दिल्लीवासियों ने राष्ट्रीय व स्थानीय स्तर पर अपनी वरीयता प्रकट कर दी थी, परन्तु हैदराबाद नगर निगम में पिछले 2016 के चुनावों में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व असीदुद्दीन ओवैसी की इत्तेहादे मुसलमीन पार्टी का गठबन्धन था जिसने अपार सफलता प्राप्त की थी। कुल 150 सदस्यों की महानगर पालिका में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के 99 सदस्य थे और ओवैसी की पार्टी के 44 पार्षद चुन कर आये थे, जबकि तेलगूदेशम का एक, कांग्रेस के दो व भाजपा के चार पार्षद चुने गये थे।
इन चुनावों में भाजपा ने बहुत आक्रमणकारी तरीके से चुनाव प्रचार किया और प्रचार में ऐसे मुद्दे भी उठाये जो स्थानीय समस्याओं से सम्बन्धित नहीं थे। इसे देख कर लगता था कि इस बार चुनाव प्रचार में इसके राष्ट्रीय नेताओं की शिरकत की वजह से मतदान प्रतिशत बढे़गा मगर ऐसा नहीं हो पाया। वैसे और पीछे जायें तो 2020 के शुरू में हुए तेलंगाना के नगर निगम चुनावों में भाजपा को अपेक्षानुरूप सफलता नहीं मिल पाई थी। कुल 120 नगर पालिका चुनावों में इसका कब्जा केवल दो पालिकाओं पर ही हो पाया था जबकि पहले स्थान पर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति व दूसरे पर कांग्रेस पार्टी थी, लेकिन निजामाबाद शहर के पालिका चुनावों में यह सबसे बड़े दल के रूप में 28 स्थान प्राप्त करके उभरी थी। इसे देखते हुए पार्टी हैदराबाद महानगर पालिका जीतने के लिए पूरी ताकत लगा रही थी और इसी के अनुरूप इसने अपनी रणनीति भी तय की थी। चुनाव प्रचार में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ को विशेष रूप से लाया गया। जिन्होंने हैदराबाद का नाम बदल कर इसे भाग्यनगर बनाने का आश्वासन भी दिया। महानगर पालिका चुनावों में ये मुद्दे उठे मगर मतदान फीका देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि मतदाताओं ने इन पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी है और शहर में बाढ़ के भरे पानी के प्रकोप पर उनका ज्यादा ध्यान रहा है। इसके साथ इन चुनावों में ईवीएम मशीनों का प्रयोग न होकर बैलेट पेपरों का प्रयोग हुआ है। बहुत वर्षों बाद किन्हीं चुनावों में बैलेट पेपर का प्रयोग होने से भी इन चुनावों के प्रति जिज्ञासा बढ़नी स्वाभाविक है। अब फैसले वाले दिन का इन्तजार रहेगा।