भूखे पेट प्रेम की तलाश

भूखे आदमी को प्रेम शास्त्र कैसे पढ़ाया जाए? बादल फिरते हैं तो कहीं मयूर अवश्य नाचते होंगे

Update: 2022-07-20 19:04 GMT

भूखे आदमी को प्रेम शास्त्र कैसे पढ़ाया जाए? बादल फिरते हैं तो कहीं मयूर अवश्य नाचते होंगे। अमराइयों में से कोयल की बिरही कूक अवश्य उठती होगी। आकाश की ओर बहुत दिन से देखा नहीं, लेकिन आज भी उसके बारिश से धुल पुंछ जाने के बाद कहीं तो इन्द्रधनुष खिलता होगा। लेकिन भूख से बिलबिलाते हुए लोगों की कतार उस खैरात का इन्तज़ार करती है जो उनमें आटा नहीं तो चावल के रूप में प्रति व्यक्ति बांट देने की घोषणा हो गई है। सुनो, एक विकल्प भी है। पहले दाल मिलती थी, अब चना मिलेगा। खैरात बांटने की तिथि बढ़ा दी गई है। अब केवल इसी महीने नहीं, अगले पांच महीने तक मिलेगी। जनता जानती है कि स्थिति तो तब भी नहीं सुधरेगी। लेकिन खैरात की तिथि भी तो बढ़ाई जा सकती है, बन्धु। यह खैरात एक को नहीं, पूरे अस्सी करोड़ को मिलेगी। आंकड़े आश्वस्त करते हैं लेकिन इनकी दिलासा केवल भूखे पेट पर तबला बजाती रहती है। बहुत बरस पहले अपना गांव, घर छोड़ कर ये लोग आए थे कि चलो धरती मां ने उन्हें भर पेट रोटी देने का फजऱ् छोड़ दिया। खेत आज भी फसलों के रूप में सोना उगलते हैं। लेकिन उनके लिए दिन-रात हाड तोडऩे वाले जीव उसे ट्रकों में, गोदामों में बंद होता देखते हैं। इनके जराजीर्ण ओसारे पहले भी उनकी आमद का इंतज़ार करते थे, आज भी यह इंतज़ार खत्म नहीं हुआ। वहां रह ऐसी हालत में कोई किसी प्रिया को प्रेमपाती कैसे लिखे? बरसाती नालों की तरह उफन कर कब तक उपेक्षित भीड़ में निर्वासित हो गए लोगों पर कब जवानी आई और कब वह बुढ़ौती बन गई, कोई नहीं जानता। फसलें अवश्य उनके खेतों में लहलहाती रही, लेकिन वे जन्म लेने से पहले ही बनिये बक्कालों और सूदखोर महाजनों के पास बन्धक हो जातीं। अब बन्धक फसलों में दौड़ते भागते हुए कोई युगल प्रेम गीत कैसे गा सकता है, बन्धु। पहले फसल पकती थी, उसे पास की मंडी में ले जाते थे। सरकारी दाम घोषित होते, खरीददार अफसर की चिरौरी करते, मौसम की नाराजग़ी के बावजूद जो फसल बच जाती उसे बेच जीने की उम्मीद लेकर घर वापस लौटते। अब बताइए ऐसे में बादल घुमड़ते रहें तो कैसे पपीहे पी की रट लगाते? प्रियतमा कैसे आकाश की ओर टकटकी लगा कर कहती, 'बरखा रानी जऱा थम के बरसो।'

और बरखा थमने के बाद जब माही आंगन में आ जाता तो मन झूम के गाता 'बरखा रानी मेरा दिलबर जा न पाए, अब झूम के बरसो।' लेकिन जानते हो अब ऐसे प्रेम गीतों से बड़ी बददुआ कोई नहीं। महीनों की मेहनत के बाद फसल मंडी में खुली पड़ी है। पौन सदी बीत गई। उनके सिर छिपाने के लिए गोदाम नहीं बने। ऐसे में बरखा रानी जम के बरस गई तो इन फसलों का क्या होगा? अपना शरीर ढकने को पूरे कपड़े नहीं, इनको ढंकने के लिए तिरपाल कहां से लाते। अब भला बताइए ऐसी हालत में दादुर, मोर पपीहे को नाचता देखने की इच्छा कौन करे? यहां मंडियों में खुली पड़ी फसल खराब हो गई। फसल की पूरी कमाई न मिलने के इंतज़ार में किसानों के मंडियों के चौराहों पर फंदा ले आत्महत्या करने के समाचार मिलने लगे। अब आसमान में बादल बरसने के बाद इन्द्रधनुष खिला कि उससे पहले ही टूट गया, इसकी परवाह कौन करता है। हां, फसल बेच कर अपनी नन्ही बच्ची के लिए जो गुडिय़ा खरीद कर लानी थी, वह उनके बाजार में जाने से पहले ही टूट गई। पहली फसल कटी। अब खेतों में धान बीजने चले तो हाथ बंटाने वाले मज़दूर नहीं थे, अब जब बिना मज़दूर बिना लबालब पानी प्रत्यक्ष प्रणाली से धान बीज दिया तो लीजिये बादल तूफान या सैलाब बन कर चले आए।
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com

By: divyahimachal


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