मानव सभ्यता: पहरेदारी के खिलाफ थे गांधी
आज भी अगर हम गांधी के विचारों की गहराई को समझकर अमल करें, तो बहुत कुछ ठीक किया जा सकता है।
मानव सभ्यता आज हिंसा और पर्यावरण संकट की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गांधी का जीवन और उनके विचार ही हमें सही रास्ता दिखाते हैं। दुनिया भर में लोकतंत्र पर आतंकवाद का खतरा मंडरा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण पर्यावरण का संकट अन्य संकटों को जन्म दे रहा है। यहीं नहीं, बेरोजगारी की समस्या भी एक बड़ी चुनौती है। इन तमाम संकटों के बीच फंसी मानव जाति के लिए गांधी पथप्रदर्शक की तरह हैं, यही वजह है कि दुनिया भर में आज गांधी को याद किया जाता है और कहा जाता है कि गांधी के जीवन मूल्यों और उनके विचारों को याद रखना होगा।
आज कोई भी भारतीय विदेशों में जाता है, तो गांधी के बगैर उसका कोई वजन नहीं है। हमारे देश के राजनेता विदेशों में जाकर अक्सर गांधी का नाम लेते हैं, लेकिन अपने देश में गांधी के विचारों का सम्मान नहीं करते। साबरमती आश्रम की शक्ल बदल देना क्या बताता है? साफ है कि वे गांधी को मिटा देना चाहते हैं। गांधी जी का संपूर्ण जीवन सादगीपूर्ण था। उन्हें पहरेदारों की निगरानी पसंद नहीं थी। उनका मानना था कि कोई मुझसे मिलने आए और मैं उससे न मिलूं, यह हो ही नहीं सकता-चाहे वह दुश्मन ही क्यों न हो। वह मारे भी इसलिए गए कि उन्होंने किसी तरह की हिंसक सुरक्षा लेने से इन्कार कर दिया था।
तत्कालीन सरकार ने उनकी सुरक्षा के लिए पहरेदार रखने का प्रस्ताव दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। अब साबरमती आश्रम को पर्यटक स्थल बनाने की कवायद चल रही है, जिसमें पुलिस का पहरा रहेगा और बिना अनुमति के किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होगी या अनुमति होगी भी, तो लोगों से उसके लिए शुल्क वसूला जाएगा। यह तो गांधी के विचारों के बिल्कुल विपरीत है। मेरा मानना है कि सभी ऐतिहासिक जगहें पर्यटक स्थल नहीं बन सकतीं। कुछ श्रद्धा स्थल होते हैं, उन्हें श्रद्धा स्थल के रूप में ही रहने देना चाहिए, जहां जाकर लोग कुछ नए मूल्यों की प्रेरणा पाएं।
महात्मा गांधी केवल व्यक्ति के जीवन में ही अहिंसा के पक्षधर नहीं थे, बल्कि पूरे समाज को अहिंसक बनाना चाहते थे। लेकिन आज हमने अहिंसा के मार्ग को लगभग त्याग दिया है। चाहे चीन की बात हो या पाकिस्तान की, हमारे राजनीतिक वर्ग ने एक राष्ट्र के रूप में लोगों के सामने हमेशा इन्हें दुश्मन के रूप में पेश किया है, मैत्री का हाथ नहीं बढ़ाया है। मैं स्वयं पाकिस्तान गई हूं, वहां के लोगों से मिलकर मुझे जरा भी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं किसी दुश्मन देश के लोगों से मिल रही हूं।
हां, वहां के राजनेता जरूर भारत को दुश्मन बताकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और कुछ कट्टरपंथी लोग उससे खुश होते हैं, लेकिन आम जनता जैसे हमारे देश की है, उसी तरह पाकिस्तान की भी है। और अब तो अपने देश में भी राजनेता चीन और पाकिस्तान का डर दिखाकर वोट मांगते हैं और नागरिकों के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों की उपेक्षा करते हैं। गांधी जी सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते थे। एक समुदाय को दूसरे समुदाय से अलग करने की राजनीति सांप्रदायिक सोच है और हर सांप्रदायिक सोच हिंसक होती है।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट के मौजूदा दौर में तो गांधी के विचार और भी प्रासंगिक हो उठे हैं। उन्होंने कहा था कि पृथ्वी के पास सभी की जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन हर किसी के लालच के लिए नहीं। आज दुनिया भर के पर्यावरणीय आंदोलनों में इसे दोहराया जाता है। पर्यावरण के बारे में आज हम जितना सोचते हैं, उससे ज्यादा अहिंसक समाज की उनकी कल्पना में, उनके ग्राम स्वराज की कोशिश में पर्यावरण के संरक्षण का भाव निहित है।
गांधी जी का स्वदेशी का विचार प्रकृति के खिलाफ आक्रामक हुए बिना स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के उपयोग की बात करता है। उन्होंने कृषि और कुटीर उद्योगों पर आधारित एक ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का आह्वान किया। वह हाथ से काते, हाथ से बुने खादी के कपड़े की बात करते थे, क्योंकि वह पर्यावरण के लिहाज से सही था। उसमें कोई धुआं, कोई प्रदूषण नहीं होता था। उसमें मशीन का इस्तेमाल नहीं होता था, बल्कि लोग स्वयं काम करते थे।
जबसे मशीनों के जरिये उत्पादन होने लगा, तभी से लोगों का शोषण भी बढ़ता चला गया। गांधी का खादी का विचार एक मूल्य था, जिसे अपनाने से न केवल प्रदूषण से मुक्ति मिलती थी, बल्कि मानव पूंजी का इस्तेमाल होने से बेरोजगारी की समस्या का भी हल होता था। अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में उन्होंने औद्योगिक सभ्यता को मानवता के लिए खतरा बताया था। भारत के लिए गांधी की दृष्टि प्राकृतिक संसाधनों के समझदारीपूर्ण उपयोग पर आधारित है, न कि प्रकृति के दोहन और विनाश पर। उनके अनुसार, असली सभ्यता अपने कर्तव्यों का पालन करना और नैतिक व संयमित आचरण करना है। उनका मानना था कि लालच पर अंकुश लगना चाहिए।
गांधी जी की नई तालीम की व्यवस्था में प्रारंभिक शिक्षा के दौर में ही इसकी पहचान की जाती है कि कोई बच्चा किस कार्य के योग्य है और उसे उसी के अनुसार उच्च शिक्षा दी जाती है। उसमें जीवन, समाज, प्रकृति से जुड़े विषयों की पढ़ाई होती है, उसके बाद छात्रों की रुचि एवं प्रतिभा के अनुसार उच्च शिक्षा देने की बात है। पर उसे किसी भी सरकार ने स्वीकार नहीं किया। अगर उसे स्वीकारा गया होता, तो देश में करोड़ों बेरोजगारों की फौज खड़ी नहीं होती। मैंने जीवन भर नई तालीम का काम किया है और मुझे मालूम है कि उसमें लोगों को रोजगार देने की क्षमता है। आज भी अगर हम गांधी के विचारों की गहराई को समझकर अमल करें, तो बहुत कुछ ठीक किया जा सकता है।