बिना खेल मैदानों के कैसे तैयार होंगे खिलाड़ी?
ओलंपिक और पैरालंपिक में ठीक-ठीक प्रदर्शन के बाद खिलाड़ियों का हौसला भी बुलंद है और खेलों का भी
ओलंपिक और पैरालंपिक में ठीक-ठीक प्रदर्शन के बाद खिलाड़ियों का हौसला भी बुलंद है और खेलों का भी. हम उम्मीद करते हैं कि 130 करोड़ की आबादी वाले भारत से अब आगे खेल जगत में ऐसी शर्मनाक परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ेगा जैसा कि पिछले कुछ दशकों में रहा है, लेकिन ऐसा तभी हो सकेगा जब हम किसी एक खेल पर नहीं, बल्कि खेलों की विविधता को प्रोत्साहित करेंगे.
हम ऐसी परिस्थितियां बनाएंगे, जहां कि हर खेल के लिए स्थान बन सके, लेकिन सोचना यह होगा कि ऐसा संभव कैसे होगा? सवाल है कि क्या इसके लिए स्कूल से ही आधारभूत संरचनाओं को विकसित किया जाएगा, या फिर वही रवैया रहेगा कि जीतने के बाद तो खिलाड़ी को करोड़ों रुपयों, घर—द्वार और अवार्ड से लादा जाएगा, लेकिन असफलताओं के बाद उसका गुजारा करना भी मुश्किल होगा ?
आर्डिंनेस की पक्की सड़कें और बड़े मैदान
मध्यप्रदेश के इटारसी के पास चांदौन गांव के विवेक सागर ओलंपिक विजेता हॉकी टीम के सदस्य रहे हैं. इस गांव से मेरा बचपन का एक रिश्ता रहा है. यह गांव आर्डिनेंस फैक्ट्री के एकदम पास बसा है. चाचाजी आयुध निर्माणीकर्मी थे, सरकारी आवास ठीक इसी गांव के सामने था. मेरी छुटिटयों अक्सर वहां बीता करतीं. आर्डिनेंस फैक्ट्री की पक्की सड़कें, स्कूल, अस्पताल, पक्के घर, व्यवस्थित बाजार, पार्क और खेल के मैदान मुझे आकर्षित करते थे, इसलिए वहां जाने का कोई भी मौका मैं नहीं छोड़ता.
बड़े खेल मैदानों में पसीना बहाते युवकों को बाउंड्री पर खड़े होकर देखा करता, क्योंकि हमारे गांव में ऐसे मैदान देखने को नहीं मिलते थे. खेल हर बचपन से जुड़ा होता है, लेकिन उसके लिए ठीक-ठीक सुविधाएं किसी-किसी को मिलती थीं. बचपन में जिन उबड़-खाबड़, गडढे वाले, खेतों में, गलियों में हम खेले, अब उनको याद करके सिहरन हो आती है. मेरे जैसे लाखों बच्चों के को ऐसे अच्छे खेल मैदान नसीब नहीं होते!
काश विवेक को मिल पाता खेल का मैदान और अभ्यास का मौका
छह फिट की संकरी गली में टीन की छत के नीचे रहने वाले विवेक सागर के गांव की कहानी भी मेरे गांव के कहानी से कोई जुदा नहीं है. यदि विवेक सागर को उन पक्के मैदानों पर खेल देखने, खेल से प्रेरणा लेने और अभ्यास करने का मौका नहीं मिलता तो हो सकता था कि हमें और मप्र सरकार को भी इस उपलब्धि पर इतराने का मौका नहीं मिलता !
सरकार के यू डाइस की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में चालीस प्रतिशत स्कूलों में खेल मैदान नहीं है. स्कूल ही वह प्राथमिक इकाई है, जहां कि बच्चे का शुरुआती विकास होता है. उसे तमाम मौके मिलते हैं, वह अपनी प्रतिभा को निखारता है, लेकिन जिस समाज में चालीस प्रतिशत स्कूलों में खेल मैदान ही नहीं हों, वहां पर अच्छे खिलाड़ियों की क्या उम्मीद रखेंगे? खेल सामग्री की तो बात ही दूर है, हमने अपनी मिडिल कक्षाओं तक तो स्कूलों में खेल सामग्री देखी ही नहीं !
प्रधानमंत्री ने मन की बात में कहा भी कि "हॉकी में 41 साल के बाद पदक लाने पर मेजर ध्यानचंद जी की आत्मा प्रसन्नता का अनुभव कर रही होगी. उन्होंने कहा कि आज, जब हमें देश के नौजवानों में हमारे बेटे-बेटियों में, खेल के प्रति जो आकर्षण नजर आ रहा है. माता-पिता को भी बच्चे अगर खेल में आगे जा रहे हैं तो खुशी हो रही है, ये जो ललक दिख रही है यही मेजर ध्यानचंद जी को बहुत बड़ी श्रद्धांजलि है."
अच्छा होगा कि सरकार खेलों के प्रति बुनियादी रूप से परिवर्तन करे और स्कूलों में खेल मैदानों और खेल सामग्री पर ज्यादा खर्च करे, तभी सही मायनों में खेलों के साथ न्याय हो पाएगा.
कितना दुखी हुई होगी मेजर ध्यानचंद की आत्मा
पिछले चालीस सालों में मेजर ध्यानचंद की आत्मा को देश ने कितना दुखी किया होगा. मेजर ध्यानचंद की आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि के लिए देश में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है. हम उम्मीद करते हैं कि खेलों से आधारभूत संरचानाओं और सुविधाओं के अभाव में जी रहे ग्रामीण भारत में भी उम्मीद की ऐसी ही किरणों को पैदा किया जाएगा. वह केवल हॉकी में ही नहीं होगा!
प्रधानमंत्री ने कहा कि "देश में खेलों को लेकर एक अलग अवसर आया है, हमें इसे थमने नहीं देना है, हमें, इस अवसर का फायदा उठाते हुए अलग-अलग प्रकार के स्पोर्टर्स में महारत भी हासिल करनी चाहिए. गांव-गांव खेलों की स्पर्धाएं निरंतर चलती रहनी चाहिए. स्पर्धा में से ही खेल विस्तार होता है, खेल विकास होता है, खिलाड़ी भी उसी में से निकलते हैं."
हम उम्मीद करते हैं कि देश इस बात को समझेगा और इसके लिए माकूल माहौल और अवसर भी पैदा करेगा. क्योंकि खेल एक कदम आगे जाकर दुनिया में एक नया रिश्ता कायम करते हैं. इस बिगड़े वक्त में जब हैट स्पीच, मॉब लिचिंग और मानवीय मूल्यों को हाशिए पर धकेला जा रहा हो, तब एक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा का बयान समाज में नया सुकून पैदा करता है, इसलिए खेल केवल पदक तक ही सीमित नहीं है, उनका दायरा इतना विशाल है कि वह समाज में एक नया नेतृत्व पैदा करने की हैसियत रखते हैं.
खेल केवल मैदानों से ही प्रोत्साहित नहीं होंगे. उसमें पोषण का भी एक पक्ष है. बेहतरीन खिलाड़ी बेहतर पोषण से ही तैयार हो सकेंगे. जिस देश में तकरीबन आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हों, वहां पर इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि इस समस्या को जल्दी से जल्दी कैसे दूर किया जा सकता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.