कैसे बने भारत खुशहाल
सवाल है कि भारत खुशहाली के वैश्विक पायदान में ऊपर कैसे आए! कैसे हम दुनिया को यह संदेश दें कि हम भी किसी से कम खुशहाल नहीं हैं। जाहिर है, इसके लिए व्यवस्थागत स्तर पर आमूलचूल बदलावों के साथ प्रयास करने होंगे।
कुंदन कुमार: सवाल है कि भारत खुशहाली के वैश्विक पायदान में ऊपर कैसे आए! कैसे हम दुनिया को यह संदेश दें कि हम भी किसी से कम खुशहाल नहीं हैं। जाहिर है, इसके लिए व्यवस्थागत स्तर पर आमूलचूल बदलावों के साथ प्रयास करने होंगे। भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चुनौतियों से निपटना होगा। नौजवानों को रोजगार देना होगा। भारत में आज बेरोजगारी चरम पर है। देश की युवा आबादी के लिए यह संकट कम गंभीर नहीं है।
आज के युग में खुशी का संबंध आर्थिक संपन्नता से ज्यादा जुड़ गया है। व्यक्ति जब आर्थिक रूप से संपन्न होता है तो वह स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और आवास जैसी मदों पर अधिक खर्च कर पाने की हैसियत रखता है। व्यावहारिक रूप से यह उचित इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि बिना बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और आवास के खुशहाल जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती। सच्चाई यह भी है कि व्यक्ति जब स्वस्थ रहेगा, तभी वह खुश भी रह पाएगा। पर बिना आर्थिक संपन्नता के खुश रहने की बात करना आज के युग में बेमानी ही है।
विभिन्न देशों में खुशहाली के आकलन के लिए खुशहाली सूचकांक की कसौटी पर लोगों की खुशी का अनुमान लगाया जाता है। इसकी शुरुआत संयुक्त राष्ट्र सतत विकास कार्यक्रम के तहत की गई थी। संयुक्त राष्ट्र की ओर से हर साल वैश्विक खुशहाली रिपोर्ट जारी की जाती है। पहली वैश्विक खुशहाली रिपोर्ट वर्ष 2012 में आई थी। इसके बाद दुनियाभर में आर्थिक विकास के साथ-साथ खुशहाली को भी महत्ता दी जाने लगी। बहरहाल, वैश्विक खुशहाली सूचकांक की ताजा रिपोर्ट पिछले महीने आई।
रिपोर्ट बताती है कि खुशहाली के मामले में पिछले साल यानी 2021 में दुनिया के एक सौ उनचास देशों में भारत का स्थान एक सौ उनतालीसवां रहा। इससे पता चलता है कि हमारे देश में लोग कितने खुशहाल हैं! यह गंभीर बात इसलिए भी है जो देश अगले पांच-दस साल में दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के दावे कर रहा है, उसकी हालत यह है कि दुनिया के सिर्फ दस देशों के नागरिकों ही खुशहाली के मामले में उससे नीचे हैं, बाकी एक सौ उनतीस देशों के लोग उससे ज्यादा खुशहाल की जिंदगी जी रहे हैं।
खुशहाली सूचकांक में पूर्व के वर्षों में भी भारत की स्थिति बेहतर नहीं रही है। वर्ष 2020 की रिपोर्ट में भी भारत को सबसे नीचे के दस देशों में स्थान मिला था। उस समय एक सौ तिरपन देशों की सूची में भारत एक सौ चवालीसवें स्थान पर था। वर्ष 2019 में भी हम एक सौ छप्पन देशों की सूची में एक सौ चालीसवें स्थान पर थे। 2018 में एक सौ तैंतीसवां स्थान था। यानी दुनिया में शांति और खुशहाली का संदेश देने वाले हमारे देश में खुशहाली की स्थिति लगातार चिंताजनक ही बनी हुई है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्यों हम खुशहाल नहीं हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, भरपूर संसाधन, सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से सशक्त और आर्थिक रूप से भी मजबूत होने का दावा करने के बावजूद अगर हम खुशहाली के निर्धारित वैश्विक पैमाने पर खरे नहीं उतर रहे हैं, तो यह हमारी व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करता है।
वैश्विक खुशहाली की रिपोर्ट बता रही है कि हमारे पड़ोसी देशों के नागरिक हमसे ज्यादा खुशहाल जिदंगी गुजार रहे हैं। रिपोर्ट में चीन चौरासीवें, नेपाल सत्तासीवें, बांग्लादेश एक सौ एक, पाकिस्तान एक सौ पांच और श्रीलंका एक सौ उनतीसवें स्थान पर आया है। दूसरी ओर, सबसे खुशहाल देशों में फिनलैंड है। फिनलैंड आज से नहीं, बल्कि पिछले चार साल से लगातार अव्वल बना हुआ है।
फिनलैंड के बाद दूसरे स्थान पर डेनमार्क, तीसरे पर स्विटजरलैंड, चौथे पर आइसलैंड और पांचवें पर नीदरलैंड है। सर्वाधिक दस खुशहाल देशों की सूची में नार्वे, स्वीडन, लक्जमबर्ग, न्यूजीलैंड व आस्ट्रिया भी शामिल हैं। बाकी देशों की बात करें, तो जर्मनी तेरहवें, ब्रिटेन सत्रहवें, अमेरिका उन्नीसवें और जापान जापान छप्पनवें स्थान पर है। हालांकि यह सुनने में अजीब लगता है कि जापान जैसा देश जो विकसित देशों में शुमार है और हर लिहाज से संपन्न, फिर भी वहां लोग अपेक्षाकृत कम खुशहाल हैं।
खुशहाली के मामले में सबसे बदतर देशों में अफगानिस्तान है। हालांकि यह मुल्क पिछले कई दशकों से जिस तरह का हिंसक संघर्ष झेल रहा है, उसमें खुशहाल जीवन की कल्पना संभव नहीं है। जिंबाब्वे और रवांडा जैसे गरीब अफ्रीकी देश भी सबसे नीचे के दस देशों में ही हैं। ये दोनों देश लंबे समय से गृहयुद्ध झेल रहे हैं। अगर ब्रिक्स के सदस्य देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका की बात करें, तो इसमें भी भारत की स्थिति सबसे खराब है। खुशहाली के मामले में ब्राजील पैंतीसवें स्थान के साथ सबसे अच्छी स्थिति में है। ब्राजील के बाद रूस छिहत्तरवें, चीन चौरासीवें और दक्षिण अफ्रीका एक सौ तीनवें स्थान है।
दुनिया के अधिकांश देश अब मानने लगे हैं कि विकास एवं लोक नीतियों का सही मानदंड वास्तव में खुशहाली ही है। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय सरकारों के साथ-साथ स्थानीय निकाय भी खुशहाली के मानदंडों को अपना कर नीति निर्माण की दिशा में बढ़ने को महत्त्व देने लगे हैं। सजग और उत्तरदायी सरकारें इस कोशिश में लगी हैं कि लोक नीतियों की ऐसी संरचना तैयार की जाए, जिससे नागरिकों के जीवन में खुशहाली का स्तर बढ़ाया जा सके। खुशहाली के मापन के लिए संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क ने छह मानदंडों को अपनाया है।
प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद, लोक विश्वास, उदारता, जीवन विकल्पों के चयन की स्वतंत्रता, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा और सामाजिक सहयोग को खुशहाली का पैमाना बनाया गया है। भारत की बड़ी विडंबना यह है कि खुशहाली और संपन्नता जैसे मुद्दे यहां कभी भी बहस का मुख्य विषय बन ही नहीं पाते। लिहाजा, खुशहाली सूचकांक में इतना पिछड़ने पर कहीं कोई चर्चा भी नहीं होती।
खुशहाली सूचकांक में दूसरे देशों से भारत का पिछड़ना वास्तव में विचारणीय है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में हम दुनिया के विकसित देशों से बहुत पीछे हैं। देश में भ्रष्टाचार का क्या आलम है, यह किसी से छिपा नहीं है। खुशहाली मापन में उदारता को भी शामिल किया गया है। इतिहास गवाह है कि भारत के लोग और शासक कैसे उदार हुआ करते थे। महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी तक की उदारता की चर्चा आज भी दुनिया करती है। परंतु हमारे देश के लोग उदारता को अब शायद विसराने लगे हैं। धार्मिक उदारता को लेकर भी भारत पर अंगुलियां उठने लगी हैं।
इसी तरह जीवन विकल्पों के चयन की स्वतंत्रता भी हकीकत में कम ही दिखाई देती है। अपनी पसंद के हिसाब से जीवन जीना महज कागजी ख्यालात भर है। स्वतंत्र जीवन जीने की पहली शर्त है आत्मनिर्भरता और व्यक्ति आत्मनिर्भर तभी होगा जब वह आर्थिक रूप से संपन्न होगा। व्यक्ति जब अपनी पसंद से जीता है, तभी वह खुश भी रह पाता है। जीवन प्रत्याशा भी खुशहाली मापक का एक तत्व है।
जीवन प्रत्याशा इस बात का द्योतक है कि मानव संसाधन पर निवेश कितना किया गया है। भारत में वर्ष 2020 में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 67.5 वर्ष और महिलाओं की 69.8 वर्ष थी। जबकि फिनलैंड जैसे सबसे खुशहाल देश में औसत जीवन प्रत्याशा 81.1 वर्ष है। भारत में जीवन प्रत्याशा का लगातार कम होना भी खुशहाली सूचकांक में हमारे स्थान को प्रभावित करता है।
सवाल है कि भारत खुशहाली के वैश्विक पायदान में ऊपर कैसे आए? कैसे हम दुनिया को यह संदेश दें कि हम भी किसी से कम खुशहाल नहीं हैं। जाहिर है, इसके लिए व्यवस्थागत स्तर पर आमूलचूल बदलावों के साथ प्रयास करने होंगे। भ्रष्टाचार, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य जैसी चुनौतियों से निपटना होगा। नौजवानों को रोजगार देना होगा। भारत में आज बेरोजगारी चरम पर है। देश की युवा आबादी के लिए यह संकट कम गंभीर नहीं है।
बेरोजगारी के कारण नौजवान पीढ़ी हताशा और अवसाद में डूब रही है और इसकी दुखद परिणति आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति के रूप में देखने को मिल रही है। ये सब सरकार की नीतिगत खामियों का नतीजा है। अगर भारत को खुशहाल बनाना है तो हमें उन छोटे-बड़े देशों से सबक लेना चाहिए जिनकी प्राथमिकता अपनी जनता का दर्द दूर करना होती है।