ढोलरू गायकों को मानदेय

सोमवार के पहले दिन अपनी परंपरा ढूंढता चैत्र महीने का अंदाज, ढोलरू गायकों की बाट जोहता हुआ प्रतीत हो रहा, फिर भी हिमाचल के बड़े भूभाग को इंतजार है

Update: 2022-03-16 19:15 GMT

सोमवार के पहले दिन अपनी परंपरा ढूंढता चैत्र महीने का अंदाज, ढोलरू गायकों की बाट जोहता हुआ प्रतीत हो रहा, फिर भी हिमाचल के बड़े भूभाग को इंतजार है कि कोई ढोलक की थाप पर सुना दे, 'ए जी, पहला जां नां लैणा नारायणे दा नां।' लोक गायन की इस परंपरा को हालात, बेरुखी और आर्थिक मजबूरियों ने इतना अवसरवादी बना दिया है कि अब एक जाति विशेष को अपने कलात्मक पक्ष का बोध निराश करता है। बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा, चंबा के अलावा मंडी, ऊना व सोलन के कुछ भागों में चैत्ता लोकगायन परंपरा अब सिमटती हुई विरासत है। आश्चर्य यह कि इसे सरकार और भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग ने भी मरने के लिए छोड़ दिया है या यह मान लिया गया कि गीत-संगीत की यह रिवायत अवसरवादी है। सवाल यह भी कि अगर इसी प्रदेश में बजंतरी समाज के लिए सरकार निरंतर प्रयास के साथ हर साल मानदेय राशि में बढ़ोतरी करते हुए, इस वर्ष पूरी तरह निहाल हो सकती है, तो प्रश्रय का यह खजाना ढोलरू गायकों के लिए भी तो खुलना चाहिए।

हम बजंतरियों के मानदेय बढ़ोतरी को न्यायोचित ठहराते हैं, लेकिन सरकार के फैसलों की व्यापक परिधि में पूरे लोक कला क्षेत्र के साथ न्याय की मांग भी करते हैं। एक पूरा महीना हर घर की पलकों को इंतजार रहता है कि परंपरा के उस भाव में डुबकी लगाए, जहां ईश वंदना की रुहानियत में हर गायक आशीर्वाद देता है। परंपरा के इस दूत को कभी नजदीक से देखने की कोशिश हुई या कला-संस्कृति विभाग ने यह सोचा कि लोकगायन की इस संवेदना को कैसे जिंदा रखा जाए। आज ढोलरू गायकों की पदचाप घायल है, तो इसलिए कि इस श्रेष्ठ कार्य के प्रति सरकारों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। क्या इन गायकों का पंजीकरण करके मानदेय की व्यवस्था नहीं की जा सकती। क्या यह अपने तौर पर न केवल परंपरा को ढो रहे हैं, बल्कि गायक की पद्धति व सांस्कृतिक पक्ष के तिलिस्म को कंठ दे रहे हैं। गायन की जिस विधा से एक जाति विशेष के परिवार जुड़े हैं, उनका महत्त्व केवल चैत्र महीने या संवत्सर गायन तक ही सीमित नहीं, बल्कि सदियों के सांस्कृतिक उद्गार से निकले शब्द और संगीत का त्योहार तो हर माह के वर्णन को छूता है। इन जातियों ने अपने रियाज़ से समाज की रिवायत को आज भी जिंदा रखा है, तो यह दाल-नमक का रिश्ता नहीं, बल्कि ईश्वर का हुक्म मानकर सृष्टि के रचयिता से सीधा संवाद भी है। कला-संस्कृति एवं पर्यटन विभाग, प्रशासन के साथ मिलकर 'चैत्र पर्यटन' का आगाज कर सकते हैं। प्रदेश के कुछ मंदिरों से चैत्ता लोकगायन का लाइव प्रसारण, इस प्रथा को सशक्त कर सकता है।
जरूरत यह भी है कि साल भर और खास तौर पर पर्यटन सीजन के दौरान लोक संस्कृति उत्सवों का आयोजन करते हुए, परंपरागत गीत-संगीत की रिवायतों में पले लोक कलाकारों को अपना हुनर दिखाने का अधिकतम अवसर दिया जाए। लोकगायन परंपराओं से जुड़े परिवारों को चिन्हित करके इनकी पारंपरिक व व्यावसायिक दक्षता को माकूल माहौल देने की जरूरत है। यह अलग-अलग वर्कशाप के आयोजन, सांस्कृतिक समारोहों में उचित भागीदारी व आजीविका के प्रश्रय से ही संभव होगा। परंपराओं की परिस्थितियों में अनुकूलता पैदा करने के लिए सरकार की जिम्मेदारी से अगर बजंतरी समाज को मानदेय देकर प्रदेश धन्य होता है, तो बजट का एक छोटा-सा टुकड़ा ढोलरू व अन्य परंपरावादी गायकों तथा लोक कलाकारों को भी हासिल होना चाहिए। इनके जीवन का आकाश छोटा-सा है, इसलिए ढोलरू गायन अब एक-आधे वाक्यांश में सिमट रहा है। ऐसे मेें इस बार के चैत्र माह में सरकार और कला-संस्कृति विभाग को भी कान लगाकर सुन लेना चाहिए कि पांव में छाले लिए हुए कोई न कोई ढोलरू दंपति गायक क्या सुना रहा है और इसका सांस्कृतिक मूल्य कितना अर्थपूर्ण और यथार्थवादी है।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचल

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