शौक उधारी की बात का
क्या अंगरेजी और उर्दू का उपयोग वाकई प्रभावित करता है और लोग केवल इसी वजह से आपको विद्वान और प्रभावी वक्ता मानते हैं? किसी भी लेखक को समझने और जानने के लिए उसकी कृति की गहराई तथा उसके साथ पूरी तरह जुड़ना जरूरी है।
सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी: क्या अंगरेजी और उर्दू का उपयोग वाकई प्रभावित करता है और लोग केवल इसी वजह से आपको विद्वान और प्रभावी वक्ता मानते हैं? किसी भी लेखक को समझने और जानने के लिए उसकी कृति की गहराई तथा उसके साथ पूरी तरह जुड़ना जरूरी है। लेखक जिस गहराई से चीजों को देखता है वह सामान्य लोगों के वश की बात नहीं है। वह समय के आगे देखता है। अंतर्दृष्टि ही लेखक को ऊंचाई देती है।
कविता की व्याख्या, समीक्षा और विश्लेषण करते वक्त विशेष सावधानी और तैयारी की जरूरत होती है। अगर कविता की समझ ही न हो, तो अर्थ तो एक तरफ अलग-थलग रह जाएगा और अनर्थ ही समाने आएगा। कभी-कभी तो स्थिति हास्यास्पद ही नहीं, चिंतनीय भी हो जाती है। मसलन एक शेर देखिए- 'तुम मुखातिब भी हो, करीब भी हो, तुम को देखें कि तुमसे बात करें।' नासमझ लोग इस शेर को फिजूल में पैदा की गई उलझन मानते हैं और कहते हैं कि भाई, इसमें क्या परेशानी है, आप देखें भी और बात भी करें।
वे उस उलझन और भावनाओं के अंतर्संबंध को समझ ही नहीं पाते, जो इसमें व्यक्त किया गया है। दो भावों का इस तरह आपस में गुंथ जाना और भ्रम जैसी स्थिति पैदा कर देने में ही तो शेर की सार्थकता है कि आप तय ही नहीं कर पाए कि उसे यह करना है कि वह करना है। इसलिए कविता की व्याख्या और विश्लेषण के लिए अत्यधिक सावधानी, समझदारी और संवेदनशीलता की जरूरत है। मशहूर शायर कृष्णबिहारी 'नूर' की ग़्ाजल का शेर है- 'उस चश्मेलब को नींद न आए, दुआ करो, जिस चश्मेलब को ख्वाब में दरिया दिखाई है।' लोग ताज्जुब करते हैं कि कैसा शायर है जो चाहता है कि उसकी प्रेमिका को कभी नींद ही न आए। मगर इस शेर की बारीकी ही इस इशारे में है।
वह इसलिए नहीं चाहता कि उसकी महबूबा सोए, क्योंकि अगर वह सोएगी तो ख्वाब देखेगी और और ख्वाब देखेगी तो उसमें दरिया देखेगी और ऐसे में अगर वह दरिया में कूद गई या गिर गई तो क्या होगा? न वह सोएगी, न ख्वाब देखेगी और न ही दरिया दिखाई देगा। उसका यह सोचना अपनी महबूबा के प्रति अत्यधिक प्यार और चिंता ही प्रकट करता है।
गलत जगह पर गलत उदाहरण, गलत वक्त पर गलत शेर वे लोग ही कहते हैं, जो जानकार होने का दिखावा करते हैं। कोई जरूरी नहीं कि आप जब बोलें, कोई शेर पढ़ें तो यह दिखाएं कि आप उर्दू जानते हैं। कई बार कही गई बातों का कुछ शब्दों के न जान पाने के कारण हम गलत अर्थ लगा लेते हैं। इस गलती का अहसास हमें बाद में होता है। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
एक बार एक मुसलिम बुजुर्ग ने एक बच्चे को आशीर्वाद देते हुए कहा- 'खुदा तुम्हें सलामत रखे। खूब तरक्की करो, मां-बाप का कलेजा ठंडा करो।' बच्चा सुन कर रोने लगा। लोगों की समझ में नहीं आया कि वह रो क्यों रहा है। लोगों ने उससे कहा कि वे बुजुर्ग आशीर्वाद दे रहे हैं और चाहते हैं कि वह बड़ा होकर सबको खुश रखे। तब कहीं बात बनी। ऐसे ही अज्ञानतावश भ्रम हो जाता है। ऐसे ही किसी ने कहा कि कभी हमारे घर को भी रोशन अफरोज कीजिए। यह भी समझ पाना आसान नहीं था। लोग झिझक में पूछने की हिम्मत नहीं कर पाते कि आखिर कहने वाले का आशय क्या है।
इसे आप वांछित साहस की कमी कहें या लोकह्रास की शर्म, पर इस कारण फिजूल का भ्रम फैलता है। अंगरेजी कवि विलियम वडर््सवर्थ अपनी प्रकृति कविता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके चाहने वालों ने जोश-जोश में उनकी तारीफ में ऐसी कविताओं का भी उल्लेख कर दिया, जो उनकी श्रेष्ठ कविताएं थी ही नहीं। जरा सोच-समझ कर और लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद कविताओं का चयन किया होता, तो ऐसी शर्म की स्थिति बनती ही नहीं। साहित्य के इतिहास में उस भूल का जिक्र आज तक होता है।
साहित्य में हर उल्लेख जवाबदारी से किया जाना चाहिए। हिंदी हो, उर्दू हो या फिर अंगरेजी, अगर रोब गांठने के लिए बिना जानकारी के कोई भी उल्लेख करेंगे, तो हास्यास्पद स्थिति बनेगी ही। चाहे समुचित हो या न हो, शेर पढ़ कर लोगों को प्रभावित करने की कोशिश आम बात हो गई है और संसद तक में यह प्रयास किया जाता है। मेहरबानी करके जांच-परख लें, तब यह शौक पालें तो लोगों पर भी कृपा होगी और शायरी पर भी।
उद्धरित करने का यह शौक प्राय: अंगरेजी और उर्दू शायरी से उधार लेकर ही अधिक पूरा किया जाता है। लोग अब भी मानते हैं कि अंगरेजी और उर्दू के उल्लेख से बात में वजन पड़ता है। लोग बाहरी दिखावे से प्रभावित करने की कोशिश में ही लगे रहते हैं। ऐसे प्रयास क्षणभंगुर ही होते हैं और बड़ी जल्दी लोगों की पोल खुल जाती है।