बढ़ती मुद्रास्फीति की मार
मुद्रास्फीति एक तरफ लोगों की क्रयशक्ति तो कम कर ही देती है, लोग निवेश करने से भी बचते हैं। इस तरह मांग में कमी होती जाती है और उत्पादन भी घटता चला जाता है।
विजय प्रकाश श्रीवास्तव: मुद्रास्फीति एक तरफ लोगों की क्रयशक्ति तो कम कर ही देती है, लोग निवेश करने से भी बचते हैं। इस तरह मांग में कमी होती जाती है और उत्पादन भी घटता चला जाता है। जब निवेश नहीं होता तो विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है और इस प्रकार एक दुश्चक्र बनता जाता है, जिससे निकलना कठिन होता जाता है।
भारत का मध्यवर्ग अपनी बचत को आमतौर पर बैंकों या डाकघर में मियादी जमा (एफडी) के रूप में रखना पसंद करता है, क्योंकि यहां उसे अपनी रकम सुरक्षित लगती है और इसमें बचत खाते की तुलना में ब्याज भी ज्यादा मिलता है। मियादी जमा की अवधि पूरी होने पर ब्याज स्वरूप जो भी रकम मिलती है, उसे पाकर यह वर्ग खुश हो लेता है।
लेकिन कम ही लोग यह समझ पाते हैं कि ब्याज को मिला कर उन्हें अपनी जो रकम बैंक या डाकघर से मिली है, उसका वास्तविक मूल्य कई बार उस राशि से कम होता है जो उन्होंने जमा की थी। यदि किसी को उसकी जमाराशि पर पांच फीसद का वार्षिक ब्याज मिलता है और मुद्रास्फीति की सालाना दर साढ़े छह फीसद है तो ब्याज कमाने के बावजूद मौद्रिक रूप से वह नुकसान में है। यानी ऊंची मुद्रास्फीति का क्या असर होता है, इसका यह एक सरल उदाहरण है।
मुद्रास्फीति का व्यापक अर्थ महंगाई दर से है। इस महीने भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर को चार फीसद से बढ़ा कर 4.40 फीसद कर दिया। इस वृद्धि का स्वागत कम और आलोचना ज्यादा हुई। हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि रिजर्व बैंक ने यह कदम मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के एक उपाय के रूप में उठाया है। कुछ अर्थशास्त्री इसे मौद्रिक सख्ती के जरिए मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की रिजर्व बैंक की प्रतिबद्धता के रूप में भी देख रहे हैं। सरकार सबसे अधिक चिंतित खाद्य मुद्रास्फीति को लेकर है जिससे जन असंतोष बढ़ता है।
कृषि उत्पादों से जुड़ी मुद्रास्फीति के इस साल अप्रैल के जो आंकड़े आए हैं, उन्हें लेकर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय भी कम परेशान नहीं हैं। मई 2014 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति 8.3 फीसद दर्ज की गई थी। इस साल अप्रैल में यह 7.8 फीसद रही। मुद्रास्फीति की यह दर रिजर्व बैंक के निर्धारित छह फीसद की सहन योग्य दर से काफी ज्यादा है।
हाल में मौद्रिक नीति की घोषणा के समय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा भी था कि उनकी प्राथमिकताओं के क्रम में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण, विकास से पहले है। हालांकि इस दृष्टिकोण से कई अर्थशास्त्री सहमत नहीं हैं। इनका कहना है कि सरकार का काम विकास सुनिश्चित करना और मुद्रास्फीति को दायरे में रखना दोनों है। ऐसे में जब यहां दो लक्ष्य हैं तो इन्हें हासिल करने के लिए रणनीतियां भी दो होनी चाहिए। मुद्रास्फीति से निबटने के लिए मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों में तालमेल बेहद जरूरी है।
मुद्रास्फीति से इस समय भारत ही नहीं, दुनिया के कई देश जूझ रहे हैं। क्या मुद्रास्फीति सचमुच डरने की चीज है? इसका जवाब हां भी है और नहीं भी। अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि हल्की मुद्रास्फीति विकास के लिए अनुकूल होती है जब यह उपभोक्ता मांग और आर्थिक प्रगति में मददगार बनती है। अपस्फीति यानी डिफ्लेशन के मुकाबले इस मुद्रास्फीति को बेहतर माना जाता है। पर एक सीमा के बाद मुद्रास्फीति समस्याएं खड़ी करने लगती है जैसा हम अब अपने देश में देख रहे हैं। मुद्रास्फीति की स्थिति में बाजार में पैसा ज्यादा होता है और सामान की उपलब्धता कम हुआ करती है।
किसी अर्थव्यवस्था में जीवंतता तब होती है जब लोगों के हाथ में अच्छी कमाई आए, जिससे लोग ज्यादा खर्च करें। खपत बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा। ऊंची मुद्रास्फीति इस क्रम को बिगाड़ देती है। मुद्रास्फीति एक तरफ लोगों की क्रयशक्ति तो कम कर ही देती है, लोग निवेश करने से भी बचते हैं। इस तरह मांग में कमी होती जाती है और उत्पादन भी घटता चला जाता है। जब निवेश नहीं होता तो विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है और इस प्रकार एक दुष्चक्र बनता जाता है जिससे निकलना कठिन होता जाता है। आज यही स्थिति बन गई है। मुद्रास्फीति सरकार की कर्ज लेने की लागत को भी बढ़ा देती है। सरकार पहले से ही भारी कर्ज में है और इसकी योजना आगे और कर्ज भी लेने की है।
मुद्रास्फीति जनित महंगाई का सबसे अधिक असर आम उपभोग की वस्तुओं पर दिखता है, इसलिए इससे समाज के मध्य और निम्न आय वर्ग को सबसे ज्यादा मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं। बढ़ती मुद्रास्फीति के लिए जो कारण गिनाए जा रहे हैं, उनमें रूस-यूक्रेन युद्ध का जिक्र बार-बार आता है। इसे लेकर कुछ विश्लेषक यह भी कह रहे हैं कि इस बार मुद्रास्फीति में वृद्धि आर्थिक कारणों से न होकर अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर राजनीतिक उथल-पुथल के कारणों से है। खनिज तेल और धातुओं की कीमतों में वृद्धि युद्धजनित परिणाम हैं जो मुद्रास्फीति बढ़ा रहे हैं।
भारत रूस और यूक्रेन दोनों को उर्वरकों का निर्यात करता रहा है, पर युद्ध के कारण इसकी आपूर्ति बाधित हुई है और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरक तथा इस जैसी चीजें काफी महंगी हुई हैं। अंदेशा इस बात का है कि डीजल, उर्वरक, पशु चारे, कोयले आदि की बढ़ती कीमतें खाद्यान्न की कीमतों पर और दबाव डाल सकती हैं।
आंकड़े बताते हैं कि मुद्रास्फीति का बोझ शहरी आबादी की अपेक्षा ग्रामीण आबादी पर ज्यादा है। यह इसलिए भी ज्यादा चिंताजनक है क्योंकि देश की दो तिहाई से अधिक आबादी ग्रामीण है। मुद्रास्फीति का एक कारण कर्ज की सहज उपलब्धता भी बताई जा रही है। कोविड के दौरान बैंकों द्वारा कर्ज देने का काम कम ही हुआ और इसलिए अर्थव्यवस्था में आने वाली नकदी सीमित रही। अब कर्ज की दबी मांग खुल कर सामने आने लगी है। न केवल बैंक बल्कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां और अन्य संस्थाएं भी फिर से उदार शर्तों पर कर्ज देने लगी हैं।
अर्थव्यवस्था में इसका असर अनदेखा नहीं किया जा सकता। निस्संदेह वर्तमान मुद्रास्फीति खाद्यान्नों और जिंसों की मौजूदा कीमतों से भी जुड़ी है। अगर कीमतों के बढ़ने को समझना है तो एक नजर कमोडिटी बाजार अनुमान की अप्रैल 2022 में प्रकाशित विश्व बैंक की रिपोर्ट पर डालनी चाहिए। इसके अनुसार जनवरी 2020 से दिसंबर 2021 तक के चौबीस महीनों में ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि की वार्षिक दर 22.4 फीसद रही। लेकिन इस वर्ष जनवरी से मार्च यानी सिर्फ तीन महीनों में ऊर्जा कीमतें चौंतीस फीसद और बढ़ चुकी हैं। गैर ऊर्जा जिंसों की कीमतों में पिछले दो वर्षों में वृद्धि अठारह फीसद वार्षिक रही और इस साल के शुरुआती तीन महीनों में अतिरिक्त तेरह फीसद बढ़ चुकी हैं। ऊर्जा और गैर ऊर्जा जिंसों की कीमतों में वृद्धि का असर अर्थव्यवस्था के बहुतेरे क्षेत्रों पर पड़ता है।
कोविड के प्रभाव से अर्थव्यवस्था के उबरने को लेकर तमाम दावे किए जा रहे हैं। इन दावों के पीछे उद्देश्य सरकार का यह दर्शाना हो सकता है कि वह अर्थव्यवस्था को कितनी जल्दी पटरी पर लौटा लाने में कामयाब रही। पर तस्वीर उतनी उजली है नहीं जितनी कि बताने की कोशिश की जा रही है। सरकार का दावा है कि देश में मुद्रा की आपूर्ति सीमित रखने के लिए उसने एहतियाती उपाय किए हैं और वह जो भी खर्च कर रही है, वह ज्यादातर ढांचागत क्षेत्र के निर्माण पर ही ज्यादा है।
इसे मान लें तो भी यह समझना जरूरी है कि कई मदों में सरकार द्वारा खर्च किया जाना जरूरी होता है यानी कि खर्च पर नियंत्रण की सरकार की अपनी सीमाएं हैं। पर सिर्फ किसी एक उपाय से मुद्रास्फीति पर नियंत्रण नहीं होने वाला। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनाव खत्म होकर जब तक विभिन्न देशों के बीच सामान की आवाजाही सामान्य नहीं होती और देश के भीतर आपूर्ति शृंखला सुचारु नहीं हो जाती, तब तक मुद्रास्फीति से कोई बड़ी राहत मिलने की उम्मीद है नहीं।