यह सामाजिक प्रक्रिया कश्मीर में भी देखी गई थी। पलायन के दौर में उप्र में समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। चूंकि सपा और उसके नेताओं को मुस्लिमवादी करार दिया जाता रहा है, लिहाजा जब सिर्फ मुसलमानों को मुआवजा देने की घोषणा की गई, तो अदालत ने हस्तक्षेप किया कि संप्रदाय के आधार पर मुआवजा नहीं दिया जा सकता। यह पूरी पृष्ठभूमि बताना इसलिए जरूरी था, क्योंकि पलायन कर चुके सिर्फ 50 हिंदू परिवार ही कैराना में लौटे हैं। प्रदेश की भाजपा सरकार का उन्हें पूरा समर्थन है। पुनर्वास का भी आश्वासन मिलता रहा है, लेकिन हिंदू अब भी डरे हुए हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उन पीडि़त परिवारों के आंसू पोंछने और उन्हें सुरक्षा का भरोसा देने कैराना गए थे। उन्होंने तमाम पलायन किए परिवारों के घर लौटने का आह्वान भी किया है। मुख्यमंत्री के इन प्रयासों की प्रतिक्रिया में सियासत शुरू हो गई कि योगी सांप्रदायिक धु्रवीकरण कराना चाहते हैं। पलायन मुस्लिम परिवारों के भी हुए हैं। मुख्यमंत्री उनकी दहलीज़ तक क्यों नहीं गए? लखीमपुर खीरी में जिन सिख किसानों की, कारों तले कुचल कर, हत्या कर दी गई, मुख्यमंत्री उनके पीडि़त परिवारों के आंसू पोंछने क्यों नहीं गए? हालांकि ऐसी प्रतिक्रियाओं के जवाब में योगी ने एक ही सवाल किया कि यदि पीडि़त हिंदू हैं, तो क्या उनसे मिलने जाना गुनाह है, अपराध है? मुख्यमंत्री ने कैराना पलायन को देश की आन, बान, शान पर आंच का मुद्दा करार दिया। इसे हिंदुओं की अस्मिता की लड़ाई भी माना।
उन्होंने कहा कि जिन्होंने कैराना को उजाड़ने की कोशिश की थी, उनकी स्थिति सुबाहू-मारीच जैसी होगी। बहरहाल पहले गृहमंत्री अमित शाह और अब मुख्यमंत्री योगी का राजनीतिक संदेश स्पष्ट है कि यदि भाजपा को वोट नहीं देंगे, तो राज्य में सपा सरकार आ सकती है। फिर मुजफ्फरनगर और कैराना दोहराए जाएंगे। मुख्यमंत्री के पश्चिमी उप्र के संवेदनशील इलाके में जाने के मायने ये हैं कि भाजपा नाराज़ किसानों और जाटों को तोल लेना चाहती है कि चुनावी नुकसान कितना होगा। किसान आंदोलन की बुनियादी ताकत प. उप्र ही है। 2017 के चुनाव में यहां की कुल 136 सीटों में से भाजपा के हिस्से 109 सीटें आई थीं। लोकसभा चुनाव में करीब 91 फीसदी वोट मोदी के नाम पर पड़े थे। अब राजनीतिक संकेतों को पढ़ा जाए, तो यकीनन हिंदू-मुसलमान वाली सांप्रदायिक स्थिति उप्र में बनाई जा रही है। ये समीकरण भाजपा को बेहद रास आते हैं, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक को लामबंद करने का कोई एक राजनीतिक आधार नहीं है। वे आज भी बिखराव की स्थिति मंे हैं। सवाल है कि 2022 के चुनाव में कैराना और अयोध्या एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनकर भाजपा की मदद करेंगे? क्या हिंदुत्व किसान आंदोलन के प्रभाव की काट साबित होगा? चुनाव में सिर्फ 3-4 माह ही शेष हैं, लेकिन चुनाव सांप्रदायिक आधार पर बंटता दिख रहा है।