हिंदी कविता के स्वर : प्रशासनिक अधिकारी

प्रशासनिक अधिकारियों को भी हिंदी कविता ने अपनी ओर आकर्षित किया है

Update: 2021-10-30 19:04 GMT

प्रशासनिक अधिकारियों को भी हिंदी कविता ने अपनी ओर आकर्षित किया है। दिनभर कार्यालय में फाइलों से जूझते, अपने मातहतों से खिचखिच करते, ऊंची कुर्सी में बैठे राजनेताओं या अधिकारियों के साथ माथा-पच्ची करते जब थकान घेर लेती है, तब कविता उन्हें ठंडक देती है, विश्रांति लाती है, नूतन ऊर्जा देती है। महाराज कृष्ण काव, जो सोलन और कांगड़ा के उपायुक्त रह चुके हैं, और भारत सरकार के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए, ढूंढ रहे हैं एक शरीफ आदमी को और 'इक्ष्वाकु से' इसी नाम की पुस्तक में पूछ रहे हैं : 'मगर शरीफ आदमी है कौन/उठा है पहले भी यह सवाल/दुर्योधन या धर्मपुत्र/रावण या राम/चर्चिल या हिटलर/अमेरिका या वियतनाम/काले धन की तिजोरी से लिपटा/स्मगलर-सर्प/या माहवारी बटोरता/इन्कम टैक्स इंस्पैक्टर।' देवस्वरूप चंबा से हैं और राज्य सरकार के अनेक पदों पर रहकर दिल्ली चले गए। वह भारत सरकार के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए। केदारनाथ सिंह उनकी 'साक्षी है वर्णमयी' पुस्तक में छपी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं : 'देवस्वरूप अमूर्त को मूर्त रूप देने की जो कोशिश करते हैं, वह उनके रचना कौशल की विशेषता है। इसी के चलते उनकी कविताओं की आकृति कुछ विस्तार पा लेती है।' चंबा में रावी, जिसका पुराना नाम इरावती है, नदी बहती है। मिंजर मेला भी रावी नदी के किनारे संपन्न होता है।

यह मेला श्रावण माह के दूसरे रविवार को मनाया जाता है और भेंटस्वरूप एक-दूसरे को मिंजर बांटे जाते हैं। कवि इस तरह से रावी को याद करता है : 'बुलाती है नदी/कस्बे के लोगों को अपने तट/हर सावन 'मिंजर' मेले पर उड़ती/मेघ-मल्हार की लोक धुनें/सावनी हरे को खेलने बुलाती/ 'पश्वाजों', दुपट्टों की सुनहरी किनारी/शहर आता/राजकुल के इष्ट देवताओं के पीछे-पीछे/निहारते सभी इरावती का प्रवाह/वेग, उत्साह।' रमेश चंद्र शर्मा सोलन जिले के टकसाल के रहने वाले हैं। वह किन्नौर जिले के उपायुक्त भी रह चुके हैं। 90 वर्ष का हो जाने पर भी इनका लेखन जारी है। कोरोना को मात देकर यह कार्यरत हैं। ईश्वर में इनकी पूर्ण आस्था है : 'चलो न सही पूजा, अर्चना, प्रार्थना/न जाओ मंदिर में, न जाओ मस्जिद में/गुरुद्वारे में/नहीं गिरजाघर, पूजास्थल में/करो तपस्या/भगवान सदा ही, सभी जगह मौजूद है/इसका जाना-माना वजूद है/ वह वहां भी है, जहां कोई मजबूर है/जरूर है।'
विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ' आजकल बेहतरीन ़गज़लें लिख रहे हैं। यह हिमाचल सरकार के प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पद से सेवानिवृत्त हुए। इनकी सर्वप्रथम पुस्तक 'चारों दिशाएं' हिंदी कविता की थी। केदारनाथ सिंह ने इसका विमोचन किया था। जिस कविता की प्रशंसा केदारनाथ जी ने भी को हो, उस कविता में श्मशानघाट से दिखने वाले चांद और उठती लपटों का वर्णन पढि़ए और एक बार चौंक जाइए : 'चांद/कल बहुत नीचे उतर आया था/आमने-सामने/तुम्हारी चिता की/छोटी-बड़ी/समस्तल पटें/एकमय हो/जहां तक/पहुंच सकती थीं/वहां से/बस, एक हाथ भर/रह गया था/चांद।' सीआरबी ललित लंबी अवधि अर्थात सात साल तक भाषा एवं संस्कृति विभाग के निदेशक रहे हैं। यह लाहुल-स्पीति के उपायुक्त भी थे। सेवानिवृत्ति के उपरांत भी इनकी कलम चलती रही है।
यह कविता करते हैं और साथ-साथ सुंदर गीत लिखते हैं। मैं इनकी पुस्तक 'प्रेरणागीत' से 'जगमग कर लो' उठा रहा हूं: 'क्षणभंगुर यह मानव जीवन/दीपज्योति से जगमग कर लो/गा प्रकाश के गीत मनाओ/तिमिर भगा हर रात दिवाली।' तेजराम शर्मा भारत सरकार में विशेष सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। अकस्मात इन्हें मृत्यु ने आ दबोचा और हम वंचित रह गए इनकी आ सकने वाली काव्य-कृतियों से। प्रस्तुत है 'नाटी का समय' पुस्तक से उसी नाम की कविता का एक अंश : 'अलंकारों के मधुर स्वरों के बीच/परिधानों के रंगों से/गति और लय से/झरता है शृंगार रस/उड़ती है सुवासित देहगंध/प्रकृति का सृजन, संकल्प है यह नाच।' केआर भारती अपनी कविता में व्यंग्य का पुट भी दे देते हैं। यह कांगड़ा को मिलाकर अनेक जिलों के उपायुक्त रह चुके हैं।
यह हिंदी और अंगे्रजी में लिखते है, जिन भाषाओं में इनकी अनेक पुस्तकें आई हैं। एक कविता 'बदला-बदला मेरा गांव' देखिए: 'एक से दो, दो से चार, चार से आठ हो गए हैं/परिवार बीस से बढ़कर साठ हो गए हैं/सिकुड़ गए हैं बाग-बगीचे, खेत और खलिहान/इधर उधर नजर आते हैं बस मकान ही मकान।' अश्वनी रमेश एक बहुत ईमानदार अधिकारी रहे हैं। वह अनेक स्थानों पर एसडीएम रहने के उपरांत शिमला आए और अनेक पदों पर सेवाएं दी। इनकी 'अंतर' कविता मैंने इनकी पुस्तक 'जमीन से जुड़े आदमी का दर्द' से ली है। वह पहाड़ी व्यंजनों का प्रयोग इस कविता में करते हैं जो कविता को हिमाचली पुट देता है: 'मां!/तुम बांध क्यों नहीं लेतीं/सत्तु/छांछ/जौ और कुकड़ी के/पकवानों के यादों की पोटली/मैं आज गांव छोड़कर/शहर जा रहा हूं/वह सब देखने/जो मैंने/यहां नहीं देखा/वह सब करने/जो मैंने/यहां नहीं किया/और/वह सब पाने और भोगने/जो यहां नहीं पाया और भोगा/या इससे भी बढ़कर/शायद अपनी अस्मिता की तलाश में।' यह सब कविताएं उस कलम की उपज हैं जो कार्यालयों में फाइलों का पेट भरती हैं और अक्सर कलम के कातिलों में गिनी जाती हैं। कितनी संवेदनशीलता है इनमें?
-श्रीनिवास जोशी


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