साम्राज्यवाद का प्रतीक नहीं हिंदी : विरोध में तमिलनाडु से ही उठती आवाज और एकता सूत्र में बांधती संपर्क की भाषा

दीनदयाल के सपनों के मुताबिक अंत्योदय के साथ ही भारतीयता का प्रसार तभी हो सकेगा।

Update: 2022-10-23 03:25 GMT
जब-जब हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की बात होती है, तब-तब उसकी राह में रोड़ा अटकाया जाता है। इसे संयोग कहें या फिर कुछ और, हिंदी के विरोध में हर बार कठोर आवाज तमिलनाडु से ही उठती है। गांधी के सपनों के मुताबिक, दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचार सभा के निदेशक रहे सी राजगोपालाचारी ने 1937 में प्रांतीय चुनावों के बाद जब मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला, तो उन्होंने जो चंद आदेश जारी किए थे, उनमें से एक तमिलनाडु में हिंदी माध्यम से पढ़ाई भी शामिल था।
यह बात और है कि उन्हीं दिनों द्रविड़ राजनीति में अपनी जगह बना रहे सी एन अन्नादुरै ने उसका विरोध शुरू किया। कुछ इसी अंदाज में एक बार फिर संसदीय राजभाषा समिति के 11वें प्रतिवेदन का विरोध भी तमिलनाडु से ही शुरू हुआ है। तमिलनाडु विधानसभा ने समिति की रिपोर्ट के मुताबिक हिंदी माध्यम से पढ़ाई की सिफारिश के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर अतीत के हिंदी विरोधी रुख को ही आगे बढ़ाया है। जाने-अनजाने हिंदी की ऐसी छवि बनाई गई है, मानो वह साम्राज्यवाद की भाषा हो।
इससे ज्यादा आश्चर्य की बात क्या हो सकती है कि हिंदी की इस छवि को कई बार हिंदी पृष्ठभूमि वाले लोगों की ओर से भी पुष्ट करने की कोशिश हुई, जो अपनी संभ्रांतता या आर्थिक ताकत की वजह से गैर हिंदीभाषी माहौल में विकसित हुए हैं। हिंदी से तब ऐसा व्यवहार किया जाता है, मानो वह विदेशी भाषा हो। हिंदीभाषियों के लिए अन्य भारतीय भाषा सीखने के तर्क के पीछे चाहे जितनी भी सदाशयता हो, पर इस तर्क ने भी हिंदी का नुकसान किया है। क्या जब भारत में साम्राज्यवाद के प्रतीक अंग्रेजी का बोलबाला नहीं था, तब क्या बृहत्तर भारतीय समुदाय तीर्थयात्राएं नहीं करता था?
देश को एक सूत्र में बांधने की हिंदी की ताकत को केशवचंद्र सेन, बाल गंगाधर तिलक समेत तमाम गैर हिंदीभाषियों ने पहचाना था। पर आजाद भारत के नीति नियंताओं ने कभी भारतीयता को स्थापित करने के लिए अपनी भाषा पर जोर देने के तरीके पर गंभीरता से विचार ही नहीं किया। 1917 में गुजरात के भरूच में हो रहे एक शैक्षिक सम्मेलन में गांधी जी ने भावी भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया था। तब शायद उन्हें आशंका थी कि भविष्य में हिंदी पर कुछ इलाकों से सवाल उठ सकते हैं।
इसीलिए उन्होंने अगले ही साल इंदौर में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन में दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार और प्रसार के लिए पांच लोगों को नामित किया था। पर आजादी के बाद हर बार हिंदी की राह में रोड़े अटकाए गए। हिंदी विरोध की राजनीति में आगे तमिलनाडु निवासी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम भी आए हैं। हैरत की बात यह है कि जिस संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट का वह विरोध कर रहे हैं, गृहमंत्री के पदेन अध्यक्ष होने के नाते वह भी अतीत में उसके अध्यक्ष रहे हैं। वर्ष 2010 में हिंदी दिवस कार्यक्रम का आयोजन उन्होंने हिंदी में किया था। तब उन्होंने कहा था, 'हिंदी आमजन की भाषा है और अब रोजी-रोटी की भाषा बन गई है। हमें आम लोगों तक उन्हीं की भाषा में पहुंचना चाहिए।'
संसदीय राजभाषा समिति ने अपनी ग्यारहवीं रिपोर्ट में हिंदी माध्यम में तकनीकी और उच्च शिक्षा देने के साथ ही देश की संपर्क भाषा बनाने का भी सुझाव दिया है। बीस लोकसभा और दस राज्यसभा सांसदों की सदस्यता वाली इस समिति ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के साथ ही नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करने की भी अनुशंसा की है। समिति ने सरकारी और न्यायिक तंत्र में हिंदी में काम करने की व्यवस्था को बढ़ाने का भी सुझाव दिया है। इन सब सुझावों से चिंदबरम समेत हिंदी विरोधी राजनीतिक हस्तियों को लगता है कि ऐसा किए जाने से गैर हिंदीभाषियों के लिए अवसर कम होंगे। लेकिन यह अर्धसत्य है।
भारत में अंग्रेजी के जरिये स्थापित अंग्रेजियत इतने गहरे तक पैठ गई है कि ऐसे सुझावों का विरोध होना स्वाभाविक है। लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हर बदलाव का विरोध होता है। राजनीति और मानव स्वभाव, दोनों यथास्थितिवादी होते हैं। तब बदलाव तभी आते हैं, जब यथास्थितिवाद के शांत पड़े तालाब में कंकड़ फेंककर हिलोर पैदा किया जाए। बदलाव के लिए इच्छाशक्ति जरूरी है। इच्छाशक्ति का दायित्व है कि वह यथास्थितिवाद को तो तोड़े ही, हिंदी समर्थन के चलते उठने वाली आशंकाएं भी दूर करे। गांधी, लोहिया और दीनदयाल के सपनों के मुताबिक अंत्योदय के साथ ही भारतीयता का प्रसार तभी हो सकेगा।

सोर्स: अमर उजाला 

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