भारत की सर्वप्रिय भाषा बने हिंदी
मुझे हिंदी से प्रेम है। यह बचपन से रहा है, जब मेरी मां ने मुझसे हिंदी में बात करनी शुरू की। सिर्फ हिंदी में
गोपालकृष्ण गांधी,
मुझे हिंदी से प्रेम है। यह बचपन से रहा है, जब मेरी मां ने मुझसे हिंदी में बात करनी शुरू की। सिर्फ हिंदी में। उनकी भाषा हिंदी नहीं थी। तमिज्ह थी। हां, तमिज्ह, तमिल या तामिल या तामील या फिर टामिल नहीं, तमिज्ह। चेन्नई जिस प्रांत की मुख्य नगरी है, यानी तमिज्ह नाड़ की, उस प्रांत की भाषा तमिज्ह है। भारत के हिंदीभाषी प्रांतों में उस भाषा का नाम 'तमिल' से प्रचलित हो गया है। तमिज्ह को तमिल कहने में कोई भयंकर गलती नहीं, लेकिन उसका सही उच्चारण है, तमिज्ह। यह 'ज्ह' कुछ मुश्किल है कहना, लेकिन उसको समझना और सही उच्चारण में कहना श्रेयस्कर है। उतना ही, जैसे हिंदी को हिंदी कहना, न कि हिंड्डी या हिन्ढी।
तो, मेरी मां (जिनका नाम लक्ष्मी था) तमिज्हभाषी थीं। लेकिन बहुत आनंद और लगन से उन्होंने हिंदी को बोलना, लिखना व प्यार करना सीखा और उस भाषा पर अद्भुत अधिकार पाया। उनके पिता थे चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, जिन्होंने रामायण का मूल तमिज्ह में सुंदर रूपांतर किया है। बेटी लक्ष्मी ने फिर उस रूपांतर का हिंदी में अनुवाद किया- दशरथ-नंदन श्रीराम के शीर्षक से। उसी लक्ष्मी ने (जिनका नाम शायद सरस्वती होना चाहिए था) मुझको और मेरी बहन व मेरे भाइयों को हिंदी सिखाई। भाषा के साथ संस्कार भी। उदाहरण के लिए, उन्होंने एक दिन कहा- 'गोपू, 'आ', 'आओ' और 'आइए' में फर्क है न? बड़ों को तुम 'आ' नहीं कहोगे, न ही 'आओ'। तुम कहोगे, 'आइए'। 'आइए' से भी आगे एक शब्द है, आइएगा। अगर तुम 'आइए' कहो, तो कुछ गलती न होगी, लेकिन 'आइएगा' कहो, तो शिष्टाचार से भी आगे एक भावना का परिचय दोगे, संस्कार का।
स्कूल (बाराखंबा रोड, नई दिल्ली) में भी सौभाग्यवश मुझे हिंदी के जो अध्यापक मिले, वे उसी कोटि के मिले- पुण्यश्लोक वेदव्यास जी और विष्णुदत्त जी। इन्होंने मुझे हिंदी के और भी निकट किया। गजब के अध्यापक थे वे। पाठ्यक्रम को पूरा करना सामान्य बात होती है, जो हर शिक्षक करता है, लेकिन पाठ के प्रति प्यार की भावना अंकुरित करना कुछ और बात होती है। यह उन्होंने किया।
ऐसी मां के, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं, तमिज्ह थी, और जिन्होंने मुझे तमिज्ह सीखाने से पहले हिंदी सिखाई, ज्ञानदान की स्मृति में आज यह कहता हूं कि हिंदी संस्कारी भाषा है। हिंदी जिनकी मातृभाषा नहीं, उनके मन, हृदय में हम हिंदीभाषी हिंदी के प्रति लगाव देखना चाहेंगे या नाराजगी? क्या हम नहीं चाहेंगे कि हिंदी भाषा के लिए, साहित्य के लिए, साहित्यकारों के लिए उनमें आदर, स्नेह और आकर्षण बने?
'हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा है भारत की!' यह कहना भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में अनुचित ही नहीं, अनुपयुक्त भी है। जो लोग संविधान से परिचित हैं, वे जानते हैं कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में हिंदी समेत हमारी राज्य भाषाएं भी हैं। 'जो हिंदी नहीं बोलेगा, वह नागरिकता खो लेगा' के आक्रामक कथन में हिंदी की शीलता नहीं, अवधी का सुर नहीं, ब्रजभाषा का माधुर्य नहीं। उसमें बिहारी के दोहों का हास्य नहीं, रसखान की शब्द-क्रीड़ा नहीं, महादेवी का महाहृदय नहीं, निराला का चिंतन नहीं, प्रेमचंद का व्यवहार नहीं, जैनेंद्र का गांभीर्य नहीं। उसमें जवाहरलाल नेहरू का गुलाबी मन नहीं, लाल बहादुर शास्त्री का स्नेही हाथ नहीं, अटल जी की दरियादिली नहीं।
हिंदी में जन-बल है, उसको दंगल-बल की रेत में न ढालें। भारत में दक्षिण नाम की भी एक जगह है। यह हम हिंदीभाषी न भूलें। कवि प्रदीप कतई न भूले थे। तभी तो उन्होंने चिर-स्मरणीया लता मंगेशकर के गाने को कोई गोरखा कोई मदरासी वाले अमर्त्य शब्द दिए थे। भारत के तन को भारत के मन से हम अलग न करें। हमारे कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने गाया है- जन गण मन। उस मन को हम हर वक्त याद रखें।
और उस दक्षिण में हिंदी अनिष्ट नहीं है। बिल्कुल नहीं। 'हिंदी-नीति' की दक्षिण में एक छवि है- हिंदी का आरोपण हो रहा है। हिंदी-जगत यह कह सकता है कि आरोपण करने का उद्देश्य किसी का नहीं है। अगर नहीं है, तो फिर यह छवि क्यों? कैसे? उस छवि को कौन और कैसे दूर करे? जवाहरलाल नेहरू का और फिर लाल बहादुर शास्त्री का आश्वासन तमिज्ह जगत को विश्वसनीय लगा। आरोपण का भय जाता रहा। हिंदी गौण रूप से दक्षिण में सहज, सरल और खुले रूप से बोली-सुनी जाने लगी। कोई जोर नहीं, कोई जबर्दस्ती नहीं, कोई प्रतियोगिता नहीं। यह स्थिति बदलनी नहीं चाहिए, बल्कि उसको और बल मिलना चाहिए।
कई हिंदीभाषी हैं, जो कहते हैं कि हिंदी ही राष्ट्रभाषा है। कम हिंदीभाषी हैं, जो कहते हैं, भारत भाषाओं का सागर है; दक्षिण हिंदी सीखे, उत्तर दक्षिण भाषाएं सीखे। तमिज्ह महाकाव्य तिरुक्कुरल हिंदी में उपलब्ध है। कितने हिंदीभाषी हैं, जिन्होंने उसको पढ़ने और उसके ज्ञान से लाभ उठाने का प्रयत्न किया? क्या यह जानने का प्रयत्न किया है कि बसव के कन्नड़ महावाक्य हिंदी में मिलेंगे या नहीं? क्या श्री नारायण गुरु के मलयाली कथन और त्यागराज के तेलुगू कीर्तन हिंदी में अनुदित हैं? हिंदी-नीति हिंदी के विस्तार के लिए ही नहीं, हिंदी जगत की आतंरिक सीमाओं के विस्तार, उसकी संकीर्णताओं को दूर करने के लिए कटिबद्ध होनी चाहिए। और यह देखने के लिए कि उस सुशील भाषा के प्रेमियों में अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति-उपनिवेशवाद की मानसिकता कभी न आ सके।
भाषाओं से नहीं, भाषाओं में निहित संदेशों से देश जुड़ता है। हम हिंदी में या किसी भी भारतीय भाषा में ऐसे संदेश पाएंगे, जो भारत के संयुक्त परिवार में समन्वय लाते हैं, और ऐसे भी, जो उस परिवार में अलगाव लाते हैं। भारत के हिंदीभाषी निश्चय ही बहुमत में हैं। हिंदी भारत की सर्वोच्च 'लिंक' भाषा बने, यह हिंदी जगत में एक स्वाभाविक भावना है। हिंदी भारत की सर्वप्रिय भाषा बने, यह हिंदी जगत का एक स्वधर्मी उद्देश्य होना चाहिए। राष्ट्र प्रेम में हिंदी का योगदान निश्चित रूप से बड़ा है। अगर हिंदी-प्रेम में राष्ट्र का योगदान लाना है, तो हिंदी को खुद से नहीं, अन्य भाषाओं और अन्य भाषियों से प्रेम करना सीखना होगा।