मतदान को तैयार हिमाचल

हिमाचल प्रदेश में आज चुनाव प्रचार थमने के साथ ही 12 नवम्बर को मतदान की तैयारियां शुरू हो गई हैं जिसमें यह तय होगा कि इस प्रदेश के नागरिक सत्ता में बदलाव करते हैं या भाजपा को ही पुनः सरकार में बने रहने का निर्देश देते हैं। लोकतन्त्र में हर पांच वर्ष बाद या राजनैतिक आकस्मिकता के चलते बीच में ही होने वाले चुनाव जनता के ‘सेवादारों’ को अपने मालिकों की रजामन्दी लेने के लिए कहते हैं।

Update: 2022-11-11 03:37 GMT

आदित्य चोपड़ा: हिमाचल प्रदेश में आज चुनाव प्रचार थमने के साथ ही 12 नवम्बर को मतदान की तैयारियां शुरू हो गई हैं जिसमें यह तय होगा कि इस प्रदेश के नागरिक सत्ता में बदलाव करते हैं या भाजपा को ही पुनः सरकार में बने रहने का निर्देश देते हैं। लोकतन्त्र में हर पांच वर्ष बाद या राजनैतिक आकस्मिकता के चलते बीच में ही होने वाले चुनाव जनता के 'सेवादारों' को अपने मालिकों की रजामन्दी लेने के लिए कहते हैं। लोकतन्त्र की असली मालिक जनता ही होती है और राजनीतिक नेता उसके सेवादार होते हैं। चुनावों के माध्यम से जनता अपने सेवादारों को उनकी की गई 'नौकरी' का पारितोषक देती है। मतदाताओं की अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए पांच वर्ष का समय पर्याप्त होता है। इतने समय में जनता द्वारा बनाई गई सरकार की उपलब्धियों और विफलताओं का आंकलन आसानी से किया जा सकता है और उसके रिकार्ड की भली-भांति जांच व परख की जा सकती है और साथ ही यह भी जांचा जा सकता है कि उसकी नीति और नीयत क्या रही है। वास्तव में विधानसभा चुनाव विशिष्ट राज्य की समस्या और समाधान पर ही केन्द्रित रहने चाहिए क्योंकि भारत की त्रिस्तरीय प्रशासन प्रणाली में नगर पालिका से लेकर राज्य व राष्ट्र की सरकारों के अधिकार व कामकाज की व्यवस्था रहती है।राज्य के चुनावों में प्रत्येक राज्य की जनता का यह अधिकार होता है कि वह सत्ता में रहे राजनैतिक दल के उन वादों का बेबाक तरीके से पोस्टमार्टम करें जो पिछले चुनावों के समय उसने मतदाताओं से किये थे। जनता की अपेक्षाएं इन वादों से ही जुड़ी होती हैं। मगर व्यावहारिकता में हम देखते हैं कि चुनावों में अक्सर पिछले रिकार्ड को हवा में उड़ाते हुए नये वादों की झड़ी लगा दी जाती है और जनता को सभी राजनैतिक दलों द्वारा भरमाने की कोशिशें की जाती हैं। लेकिन इससे भी ऊपर जाते हुए समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने साठ के दशक में एक विमर्श खड़ा किया था कि 'जिन्दा कौमें कभी पांच साल इंतजार नहीं करती हैं'। इसका प्रमुख कारण यह था कि मतदाताओं द्वारा सत्ता सौंपे जाने के बाद राजनैतिक दल स्वयं को ही लोकतन्त्र का मालिक समझने की भूल कर बैठते थे और निरंकुश हो जाते थे। जबकि लोकतन्त्र का पहला सिद्धान्त यही होता है कि इसमें बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी स्वयं को 'निरापद' नहीं समझ सकता। हर पांच साल बाद होने वाले चुनाव इसी यथार्थ का सार्वजनिक प्रदर्शन होते हैं। अतः डा. लोहिया यह भी कहा करते थे कि हर चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है, चाहे वह ग्राम पंचायत का हो या लोकसभा का।चुनाव आम मतदाता के लिए राजनैतिक पाठशाला का काम भी करते हैं क्योंकि प्रत्येक राजनैतिक दल अपनी विचारधारा के अनुसार लोगों व समाज और राज्य व देश के विकास का खाका रखता है। ये विचारधाराएं अलग-अलग होती हैं मगर इनका लक्ष्य एक ही समाज व राज्य या देश का विकास होता है। मतदाताओं को अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए उस पार्टी या प्रत्याशी का चुनाव करना पड़ता है जिसमें उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने की क्षमता दिखाई पड़े। भारत जैसे गरीब देश के मतदाताओं को राजनैतिक रूप से बहुत सजग व चतुर माना जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह समझी जाती है कि लोकतन्त्र इनके रक्त में सांस्कृतिक व ऐतिहासिक रूप से दौड़ता है। भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने में महात्मा गांधी ने आम भारतीय के इसी सुप्त गुण को उभारा था और उसमें आत्मसम्मान व निजी विश्वसनीयता के भाव को भरने में सफलता प्राप्त की थी। आजादी के बाद से हुए हर चुनाव में परिणाम चाहे जो भी रहे हों और किसी भी पार्टी के हाथ में सत्ता की चाबी आयी हो मगर मतदाताओं के मिजाज में कभी अन्तर देखने को नहीं मिला। भारत इस मायने में गजब का देश है। इसके मतदाता हर चुनाव की महत्ता को भली-भांति समझते हैं।संपादकीय :बाइडेन की ताकत को ग्रहणरुपये में विश्व व्यापार!दुर्लभ मूर्तियों की चोरी!भारत की ताकत का एहसासजयशंकर की रूस यात्राजय शंकर की रूस यात्राहम प्रायः यह देखते हैं कि किसी विशिष्ट राज्य के विधानसभा और लोकसभा चुनावों के परिणामों में अन्तर इस प्रकार आता है कि राष्ट्रीय चुनावों में एक पार्टी जीतती है, तो राज्य के चुनावों में दूसरी पार्टी जीत जाती है। इससे मतदाताओं की परिपक्वता का ही पता चलता है। यही लोकतन्त्र की खूबी भी होती है कि यह अपने सेवादारों को दी गई भूमिकाओं का जायजा लेता रहता है। हिमाचल में सीधी टक्कर सत्तारूढ़ भाजपा व कांग्रेस पार्टी में हो रही है। राज्य विधानसभा में कुल 68 सीटें हैं। अतः सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को 35 सीटों की जरूरत पड़ेगी। भारत की चुनावी व्यवस्था में बहुसंख्या में खड़े प्रत्याशियों में से जो प्रत्याशी सर्वाधिक वोट ले जायेगा, वही विजयी होगा। इस प्रणाली के अपने नफे-नुकसान हैं मगर भारत जैसे विविधता से भरे देश में यही प्रणाली सर्वाधिक कारगर समझी गई। लेकिन इस प्रणाली में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी मतदाता पर ही आती है और उसे हिसाब लगाना पड़ता है कि कौन सा प्रत्याशी 'वोट काटू' है और कौन सा गंभीर प्रतिद्वन्द्वी है। हिमाचल इस मामले में भाग्यशाली है कि यहां यदि पूर्व में कोई क्षेत्रीय दल (जैसे स्व. पं. सुखराम की क्षेत्रीय कांग्रेस पार्टी) बना तो वह भी गंभीर राजनैतिक खिलाड़ी समझा गया। वोट काटू की भूमिका उसने कभी नहीं निभाई। अतः राज्य की द्विदलीय राजनैतिक चुनाव प्रणाली में ऊंट इस बार किस करवट बैठ कर भाजपा या कांग्रेस में से किसकी गोदी में सिर रखता है, यह देखना बहुत दिलचस्प होगा। 

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