लोग कह रहे हैं शिमला (हिमाचल) में ऐसी बारिश और तबाही नहीं देखी। स्मरण कीजिए जो लोग साठ पार हैं उन्हें कई कई दिनों तक की बरसातें याद होंगी। मुझे स्मरण है कई बार सावन दस दस दिनों तक आंगन से नहीं जाता था। पहाड़ी नदियां, नाले उफान पर होते थे। इसके बावजूद इतनी भयंकर तबाही की खबरें नहीं आती थीं। कारण आप जानते हैं। न इतना अंध विकास पृथ्वी की छाती पर बैठ कर हुआ था, न इतना मीडिया ही था। विकास बहुत जरूरी है लेकिन पहाड़ों में विकास के शायद हमने कोई मापदंड तय नहीं किए। हम नदियों को अपने स्वार्थ के लिए बांधते रहे। धरती को तिल तिल कुतरते रहे…। नदियों के पाट खत्म कर वहां कहीं सरकारी भवन, कहीं बस अड्डे, कहीं दुकानें तो कहीं होटल-बंगलों बनाते रहे। सडक़ों के नाम पर, बिजली के लिए पहाड़ों को जिस तरह हमने छननी किया, उसका शायद दूसरा कोई उदाहरण मिलता हो। आप शिमला, मनाली, कुल्लू, धर्मशाला, चंबा, किन्नौर कहीं भी देख लो अब घाटियों पर चीड़-देवदार नहीं कंक्रीट के जंगल नजर आते हैं। हर आदमी गांव से भाग कर शहरी होना चाहता है।
जैसे कैसे छोटा या बड़ा कंक्रीट का मकान बनाना चाहता है…किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, वैध अथवा अवैध रूप से…और उस मकान के आंगन तक सडक़। आपको इससे फर्क नहीं पड़ता जमीन कितनी खोखली हुई, पहाड़ कितने कटे, पेड़ों की कितनी हत्याएं हुईं…हिमाचल का चप्पा चप्पा आज जख्मी है। भीतर से खोखला है…याद कीजिए मेरे उपन्यास हिडिंब को जो 2004 में आया था…याद कीजिए यात्रा पुस्तक को जिनमें ये तबाहियां बरसों पहले दर्ज कर ली गई थीं…आपने भी बहुत कुछ लिखा होगा। नदियों को हमने कभी प्यार नहीं किया। उन्हें मार दिया। उनके बहाव रोक दिए। सोचा नहीं वह कभी अपनी जमीन वापस ले लेगी, पानी अपना रास्ता ढूंढ लेगा…आज हिमाचल की इस तबाही में अंधाधुंध बन रहे फोरलेन शामिल हो गए हैं, सुरंगें शामिल हो गई हैं…हम समय से जल्दी जहां तहां पहुंचने की होड़ में हैं…हमें बहुत जल्दी है…हम बहुत जल्दी में हैं। हमें अपने स्वार्थ याद हैं… जल जंगल जमीन को भूल गए हैं…हमारे साथ तमाम सरकारें, व्यवस्थाएं पहाड़ों, नदियों और देवदारुओं की हत्याओं में शामिल हैं…जिसकी सुनवाई कहीं नहीं है, गुनाह कोई तय नहीं है…बस खोखली चिंताएं हैं कि पर्यावरण को हमने प्रदूषित-बर्बाद कर लिया है…नहीं सोचा कभी कि एक न्यायाधीश कहीं क्षितिज के उस पार, बादलों के ऊपर आसमान में भी अपना न्यायालय स्थापित किए सब देख रहा है जहां कोई संविधान नहीं है, वकील नहीं है, सिफारिशें या सरकारों के तथाकथित दबाव नहीं हैं…आपने जो पहाड़ काटे, नदियां गायब कीं, पेड़ों की हत्याएं की, उसके पास उनकी अश्रुभरी, अथाह पीड़ाओं से सनी अर्जियां दर्ज हैं….और जब उसका फैसला आता है तो हमारे आपके सरकारों के तमाम हथियार और कानून धरे के धरे रह जाते हैं। मत कोसिए मौसम को, नदियों को, पहाड़ों को, सावन भादो को…अपने भीतर झांकिए, पश्चाताप कीजिए, सोचिए हम अपने बच्चों को क्या और कौन से संस्कार दे रहे हैं, आप इजाद कर लीजिए पहाड़ों और नदियों को गायब करने की अत्याधुनिक मशीनें, तरकीबें, खूब धन कमा लीजिए, परंतु उस प्रकृति के आगे, उसकी क्रूरता के समक्ष वे सभी शून्य हैं…। थोड़ा समय है, संभल लें अब भी। प्रकृति से प्यार कीजिए। जल, जंगल और जमीन को खत्म करके हम विकास नहीं कर रहे, एक भयंकर विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। इस भारी तबाही में जिन अपनों की जानें गईं, जिनके घर ढह गए, उनके दुख और संकट में हम सभी साथ हैं। हमेशा रहेंगे। इस आलेख को भारी मन और अश्रुभरी आंखों से लिख रहा हूं…कई कई दर्द अब इन में हैं….पहाड़ों की टूटन, घरों का ढह जाना, मलबे में दबे लोगों की कराहें, किसी नदी का चुपचाप बहते हुए बहुत करीब से निकल जाना…बहुत दिनों तक ये भी सावन भादो होती रहेंगी…. बरसती रहेंगी…आंखों में सावन होना भीतर अथाह बिछोह और अकेलेपन का लेखा जोखा भी है…किसी अपने का बहुत दूर चले जाना भी…हम जीवन में कई बार बहुत इंतजार के बाद जिसे पाते हैं, उसे उतने ही जल्दी खो भी देते हैं…पर यह खोना, खोना नहीं होता, किसी नदी के फिर पहाड़ों की तरफ लौट आने का इंतजार होता है। इंतजार…अनवरत… प्रकृति!
हमारे गुनाहों को माफ करना। शायद यही घोर कलियुग है कि हम इनसानों का जाने अनजाने युद्ध आप से ही हो रहा है…जिसका अंत स्वाभाविक आपके ही हाथों हैं…तुम स्नेह की देवी हो…। इस स्नेह को बस बांटते रहना। अंत में कैफी आ•ामी की ये गजल : ‘शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा/कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा/पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था /जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा/बानी-ए-जश्न-ए-बहारां ने ये सोचा भी नहीं/किस ने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा/बिजली के तार पे बैठा हुआ हंसता पंछी/सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा/अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे/हर सराब उनको समुंदर नज़र आया होगा।’
एसआर हरनोट
साहित्यकार
By: divyahimachal