गुजराती में हाई कोर्ट के कामकाज के विरोध की मुख्य वजह यह है कि अधिकांश वकीलों ने अंगेजी में पढ़ाई लिखाई की है और उन्हें डर है कि अगर पांड्या के प्रस्ताव को मान लिया जाएगा, तो उन्हें गुजराती में काम करना पड़ेगा। संविधान के अनुच्छेद 348-ख के मुताबिक हाई कोर्ट ही नहीं, उच्चतम न्यायालय की भी भाषा अंग्रेजी ही है। मगर अंग्रेजी में कामकाज होने की वजह से नब्बे फीसदी से ज्यादा फरियादी और उनके विरोधी जान ही नहीं पाते कि उनके या विरोधी वकील ने क्या तर्क दिया। चूंकि फैसला भी अंग्रेजी में ही होता है, इसलिए ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि फैसला क्या हुआ है। इसी वजह से उच्च न्यायपालिका में स्थानीय भाषाओं में कामकाज किए जाने की मांग उठने लगी है।
अभी 18 सितंबर को ही जब मद्रास हाई कोर्ट के नए प्रशासनिक भवन का उद्घाटन हुआ, तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने वहां तमिल में कामकाज किए जाने की मांग रखी थी। इस मौके पर देश के प्रधान न्यायाधीश भी मौजूद थे। हिंदीभाषी होने के बावजूद हरियाणा और दिल्ली के जिला न्यायालयों तक में हिंदी के बजाय अंग्रेजी में कामकाज हो रहा है। यह बात और है कि भारतीय भाषा अभियान और दूसरी संस्थाओं की कोशिशों की बदौलत कई राज्यों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज किए जाने के पक्ष में माहौल बनने लगा है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और पूर्व उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने भी कई मौकों पर उच्च न्यायपालिका में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में कामकाज किए जाने की वकालत की है। समाज के तमाम वर्गों से ऐसी मांग उठती रही है।
उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं में कामकाज की मांग के समर्थन में अब न्यायपालिका भी आने लगी है। 27 दिसंबर, 2021 को हैदराबाद के एक कार्यक्रम में न्यायमूर्ति नजीर ने न्यायिक प्रक्रिया के भारतीयकरण की वकालत की थी। यह सच है कि कानून की पढ़ाई अब भी अंग्रेजी माध्यम से ही होती है, इसलिए आज के उच्च शिक्षित वकील अंग्रेजी में ही खुद को सहज तरीके से अभिव्यक्त कर पाते हैं। हालांकि उच्च न्यायपालिका अब जनदबाव को महसूस करने लगी है। यही वजह है कि अब सैद्धांतिक रूप से न्यायपालिका भारतीय भाषाओं में कामकाज करने और सुनवाई करने के लिए तैयार होने लगी है। 30 अप्रैल, 2022 को एक कार्यक्रम के बाद तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने भी उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं में कामकाज किए जाने को लेकर सहमति जताई थी। हालांकि उन्होंने कुछ व्यवहारिक दिक्कतों का हवाला जरूर दिया था, जिसे दूर करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं।
दिलचस्प है कि अबूधाबी जैसे गैर हिंदीभाषी देश ने भी अपनी न्यायपालिका में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में मान्यता दे दी है। लेकिन अपने ही देश में भारतीय भाषाएं न्यायापालिका की परिधि से दूर हैं। इसके लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है।