हिजाब पर हाई कोर्ट का फैसला

कुछ दिन पहले स्कूल की वर्दी पहनने के स्थान पर हिजाब पहनने की जि़द पर कर्नाटक में कुछ लड़कियां उच्च न्यायालय पहुंच गई थीं। उनका कहना था कि हिजाब पहनना इस्लाम मज़हब का अनिवार्य हिस्सा है।

Update: 2022-03-19 04:49 GMT

कुलदीप चंद अग्निहोत्री: कुछ दिन पहले स्कूल की वर्दी पहनने के स्थान पर हिजाब पहनने की जि़द पर कर्नाटक में कुछ लड़कियां उच्च न्यायालय पहुंच गई थीं। उनका कहना था कि हिजाब पहनना इस्लाम मज़हब का अनिवार्य हिस्सा है। यानी मुसलमान लड़की यदि क्लासरूम में हिजाब पहन कर नहीं आती तो उसका इस्लाम मज़हब समाप्त हो जाएगा। स्कूल को इस गहरी बात का पता नहीं था। उसका कहना था कि स्कूल में स्कूल की वर्दी पहन कर ही आना चाहिए। ऐसा न करने से स्कूल का अनुशासन समाप्त हो जाएगा। विवाद बढ़ा तो लड़की या लड़कियां सीधे कर्नाटक के हाई कोर्ट जा पहुंची। अब हाई कोर्ट ने भी कह दिया है कि हिंदुस्तान में अनेकों मज़हब हैं। सभी के पूजा-पाठ के अपने-अपने तरीके हैं। लेकिन उन सभी को अपने घर तक ही सीमित रखना चाहिए। जब स्कूल में आओ तो स्कूल की वर्दी पहन कर आओ। न्यायालय ने इस्लाम मज़हब की मूल बातों को भी जांचा-परखा होगा। इसलिए उसने यह भी कहा कि हिजाब पहने बिना इस्लाम का उल्लंघन होता है, ऐसा कहीं नहीं लिखा। ख़ैर याचिकाकर्ता लड़की को न्यायालय का यह फैसला पसंद नहीं आया। इसलिए मामला उच्चतम न्यायालय में पहंुच गया है। मेरे एक मित्र कह रहे थे कि कल को तो दिगंबर मत को मानने वाला कोई छात्र अपने प्राकृतिक रूप में स्कूल जाने की जि़द करने लगेगा। वह कह सकता है कि उसके मज़हब या रिलीजन में कपड़ा पहनने की मनाही है। लेकिन न्यायालय ने एक दूसरी टिप्पणी की है जो हिजाब पहनने या न पहनने से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। न्यायालय का कहना है कि 'अचानक एक दिन कहीं से हिजाब का मामला निकल आता है। यह आश्चर्यजनक है। लगता है कुछ अदृश्य शक्तियां देश में अराजकता और अस्थिरता फैलाना चाहती हैं।' मेरी समझ में यह टिप्पणी गहरे अर्थ रखती है और सही समय पर चेतावनी भी देती है। भारत में इस्लाम को पहुंचे हुए लगभग एक हज़ार साल हो गए हैं। वैसे तो यह 712 में सिंध पर मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले के साथ ही प्रवेश कर गया था, लेकिन सन् एक हज़ार के आसपास मोहम्मद गजनवी के हमलों में भी यह सप्त सिंधु या पश्चिमोत्तर भारत तक ही सीमित रहा। सन् 1200 के आसपास दिल्ली में मध्य एशिया के तुर्कों का राज स्थापित हो जाने के बाद ही इस्लाम ने शेष हिंदुस्तान में फैलना शुरू किया। अर्थात् जहां-जहां हमलावर गए और जीतते गए, उनके पीछे-पीछे इस्लाम भी उन स्थानों पर फैलता गया।

बाद में दिल्ली पर अरब के सैयद वंश और उसके बाद मुग़ल-मंगोल वंशों का शासन रहा और इस्लाम भी स्थिर हो गया। अंग्रेज आए और उन्होंने अपने राज को पक्का करने के लिए कुछ सैयदों व हिंदुस्तान में रह रहे कुछ सैयद, तुर्क व मुग़ल मंगोल मूल के लोगों को पकड़ा और उन्हें समझाया कि हम तो देर-सवेर यहां से चले ही जाएंगे, लेकिन उसके बाद तुम्हारा क्या होगा? तुम लोग कभी मध्यकाल में हिंदुस्तान पर हमले करके उसको जीत गए थे और यहां के राजा बन गए थे। लेकिन अब जमाना बदल गया है और लोकतंत्र का जमाना आ गया है। हिंदुस्तान में तुम्हारा यानी अरब के सैयदों और मध्य एशिया से आए तुर्क व मुग़ल मंगोलों (एटीएम, ए यानी अरब सैयद, टी यानी तुर्क, एम यानी मुग़ल मंगोल) की जनसंख्या बड़ी मुश्किल से पांच प्रतिशत होगी। लोकतंत्र में तो राज वोट से चलता है। इसलिए 95 प्रतिशत हिंदुस्तानी जब वोट से सरकार चुनेंगे तो तुम्हारी स्थिति क्या होगी? एटीएम का मानना था कि हिंदुस्तान में अपने छह-सात सौ साल के राज में हमने यहां के बहुत से लोगों को भी पकड़-पकड़ कर या मार-मार कर मुसलमान बनाया है, वे भी हमारा साथ देंगे। अंग्रेज धूर्त थे। उन्होंने एटीएम को समझाया कि हिंदुस्तान के मुसलमान तुम्हारा साथ क्यों देंगे? वे अपने देशवासियों का साथ देंगे। तब एटीएम को चिंता हुई। अंग्रेज ने उसकी इसी चिंता को दूर किया। उसने सैयदों को सुझाव दिया, तुम अपने भविष्य की रक्षा के लिए, यह दुआ करो कि हिंदुस्तान से अंग्रेजों का राज कभी न जाए।

लेकिन केवल दुआ करने से कुछ नहीं होगा। तुम हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी समझाओ कि अंग्रेजों का राज बना रहे। लेकिन असली प्रश्न तो फिर भी बना रहा कि एटीएम आखिर हिंदुस्तानी मुसलमान को कैसे समझाए कि तुम हिंदुस्तान के खिलाफ खड़े हो जाओ। सबसे बड़ी बात कि हिंदुस्तान का मुसलमान बाहर से आए एटीएम की यह देश विरोधी बात क्यों सुनेगा? अंग्रेज के पास इसका इलाज था। उसने सर सैयद अहमद को पकड़ा। उसे मुसलमानों के लिए एक अलग विश्वविद्यालय ही खोल कर दे दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय। यह एटीएम का विश्वविद्यालय था। सैयद अहमद को कहा गया, इसमें तुम हिंदुस्तानी मुसलमानों को सारी बात समझाओ कि तुम्हारा और हमारा मज़हब एक है, इसलिए हमारा साथ दो। कहा जाता है कि सर सैयद अहमद अंग्रेज सरकार के इस अभियान में दिल-दिमाग़ से जुट गए और अलीगढ़ विश्वविद्यालय हिंदुस्तान को मज़हब के आधार पर तोड़ने वाला केंद्र बन गया। सर सैयद अहमद और बाद में उनके अनुयायी आज तक इतने दशकों से भारतीय मुसलमानों को यही समझा रहे हैं कि तुम चाहे भारतीय हो, लेकिन तुम्हारा और हमारा मज़हब तो एक ही है। इसलिए हमारा साथ दो। इसी समझाने के कारण 1947 में पाकिस्तान बन गया। तब यह समझा गया था कि अब एटीएम पाकिस्तान चला जाएगा और इस देश को महमूद गजनवी और बाबर के वंशजों से मुक्ति मिल जाएगी।

लेकिन एटीएम को तो पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदुस्तान के मुसलमानों को निरंतर समझाते रहना था। इसलिए उसका एक हिस्सा पाकिस्तान नहीं गया और यहीं डटा रहा। उनके छप्पर को फाड़ कर अल्लाह ने एक और तोहफा दे दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक सैयद, अबुल कलाम आजाद को ही भारत का प्रथम शिक्षा मंत्री बना दिया। अंधा क्या मांगे दो आंखें। अब एक सैयद ने शिक्षा मंत्रालय के माध्यम से हिंदुस्तान के मुसलमानों को समझाना शुरू कर दिया और दूसरे सैयद का विश्वविद्यालय तो अपने काम में लगा हुआ ही था। उस समय यदि पंडित जवाहर लाल नेहरू सैयद अबुल कलाम आज़ाद की बातें न मान कर बाबा साहिब अंबेडकर की बात मान लेते तो वे समस्याएं पैदा न होतीं जिनका सामना आज देश को करना पड़ रहा है। अंबेडकर को यदि नेहरू इतना ही बुरा मानते थे तो कम से कम उनकी किताब 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' ही पढ़ लेते। लेकिन देश के दुर्भाग्य से नेहरू को लार्ड माऊंटबेटन तो अपने लगने लगे थे और सरदार पटेल पराए लगने लगे थे। सैयद अबुल कलाम आज़ाद तो अपने लगते थे और बाबा साहिब अंबेडकर पराए लगते थे। यही कारण था कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी भारतीय मुसलमानों को लेकर सरकार उसी एजेंडे पर काम करती रही, जिसकी इबारत अंग्रेज अपने हित के लिए लिख गए थे।

जरूरत तो इस बात की थी कि भारतीय मुसलमानों को एटीएम के उस शिकंजे से मुक्त करवाया जाता, जिस शिकंजे को अंग्रेजों ने तैयार किया था। लेकिन सरकार एटीएम के साथ ही मिल गई और एटीएम इस्लाम के नाम पर भारतीय मुसलमानों को वही इस्लाम समझाता रहा जिसके बारे में अब न्यायालय ने कहा है कि हिजाब का इस्लाम से क्या लेना-देना है? लेकिन इस्लाम को कुछ लेना-देना हो या न हो, एटीएम को तो इसी हिजाब से सब कुछ लेना-देना है। ऐसा नहीं कि भारतीय मुसलमान ने एटीएम के शिकंजे से छूटने के लिए संघर्ष नहीं किया। बेचारी शाहबानो कितना लड़ती रही। अकेली जान सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी। लेकिन एटीएम के नक़ली इस्लाम को पछाड़ कर जीत गई तो भारत सरकार उसको धोखा देकर एटीएम के साथ खड़ी हो गई। जिस शाहबानो को एटीएम नहीं मार सका, उसको भारत की उस समय की कांग्रेस सरकार ने मार दिया। लेकिन 2014 में लोगों ने सरकार ही बदल दी। इस सरकार ने अंग्रेज और एटीएम द्वारा मिल कर लिखी गई इबारत को हटा कर नई भारतीय इबारत लिखनी शुरू कर दी। ऐसी इबारत जिसमें कोई शाहबानो जीत कर भी हार न जाए। अब कर्नाटक उच्च न्यायालय का कहना है कि कुछ अदृश्य शक्तियां देश में अस्थिरता पैदा करना चाहती हैं। सवाल है कि उनका मालिक कौन है?



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