उन्हें मुसीबत में फिर जिन्ना याद आए

जून 1948 की एक तपती दोपहरी। पाकिस्तान के संस्थापक और बाबा-ए-कौम की हैसियत हासिल कर चुके मोहम्मद अली जिन्ना की आवाज एक ऊंची मेहराबदार इमारत के भव्य गलियारों से छन-छनकर बाहर निकल रही थी

Update: 2022-05-16 17:49 GMT

विभूति नारायण राय, 

जून 1948 की एक तपती दोपहरी। पाकिस्तान के संस्थापक और बाबा-ए-कौम की हैसियत हासिल कर चुके मोहम्मद अली जिन्ना की आवाज एक ऊंची मेहराबदार इमारत के भव्य गलियारों से छन-छनकर बाहर निकल रही थी और उसमें कुछ ऐसा था कि आज भी छोटे-मोटे अंतराल के बाद किसी खास मौके पर उसकी अनुगूंज सुनाई देती रहती है। यह इमारत थी क्वेटा का स्टाफ कॉलेज, जिसे अंग्रेज हाकिमों ने अविभाजित भारत की फौज के अफसरों के प्रशिक्षण के लिए भव्य गोथिक शैली में बनवाया था। जिस समूह के सामने जिन्ना बोल रहे थे, वह उन सैनिक अधिकारियों का था, जिनके कंधों पर नवजात राष्ट्र की हिफाजत का दायित्व तो था ही, वे यह भी मानते थे कि भविष्य में उसके बने रहने का औचित्य भी उन्हीं को सिद्ध करना है।
जिन्ना इसी दूसरी गलतफहमी को दूर करना चाहते थे। उन्होंने फौजी अफसरों को लगभग डांटने वाले अंदाज में बताया कि उनका काम जनता की चुनी हुई सरकार के हुक्म का पालन करना है, नीतियां बनाना नहीं। जिन्ना ने फौजी अफसरों को उनके द्वारा उठाई गई शपथ का स्मरण कराया, जिसके मुताबिक, किसी राजनीतिक गतिविधि में उनके भाग लेने की मुमानियत है। यह अलग बात है कि जिन्ना की मृत्यु के कुछ ही वर्षों के भीतर फौजी अफसरों ने अपनी शपथ भुला दी और कभी खुलेआम नागरिक सरकारों को बर्खास्त कर मार्शल लॉ लगा दिया, तो कभी ऐसी कमजोर सरकार को सहारा देकर चलाते रहे, जो उनके इशारों पर नाचती रही। इमरान खान की एक ऐसी ही हाइब्रिड सरकार थी, जिसके मंत्रियों को हर दूसरे दिन देश को आश्वस्त करना पड़ता था कि सरकार और फौज एक ही पेज पर हैं।
जिन्ना की क्वेटा में दी गई चेतावनीनुमा सलाह इसलिए उद्धृत की जा रही है कि देश की हर चुनी सरकार के नेता तख्ता-पलट के बाद फौज को इसकी याद दिलाते हैं। फर्क सिर्फ यह आया है कि पिछले दिनों सरकार के गिरने के बाद जब इमरान खान और उनके समर्थकों ने पाक सेना के ऊपर हल्ला बोला, तो सेना के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी, यानी डीजी आईएसपीआर ने ही बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिन्ना के उपरोक्त भाषण का उल्लेख करके कहा कि उनका संगठन तो एक पेशेवर संस्था है, जिसका काम चुनी हुई नागरिक सरकार के आदेशों का पालन करना मात्र है और इसलिए उन्हें किसी राजनीतिक विवाद में न घसीटा जाए। दिलचस्प यह है कि देश-दुनिया में किसी से छिपा नहीं था कि नवाज शरीफ की पिछली सरकार को सेना के मौजूदा नेतृत्व ने ही तत्कालीन चीफ जस्टिस की सक्रिय मदद से स्थापित न्यायिक प्रक्रियाओं की धज्जियां उड़ाते हुए बर्खास्त कराया था। इस तथ्य को न तो इमरान सरकार के बड़बोले मंत्रियों और न ही सेना ने कभी छिपाया। वह तो जब अनुभवहीन और चापलूस सलाहकारों से घिरे इमरान ने देश को आर्थिक बरबादी के कगार तक पहुंचा दिया और आलोचना की आग से सैन्य मुख्यालय के दरवाजे झुलसने लगे, तब जनरलों ने मुंह में ठुसे गरम आलू की तरह उन्हें उगल देने का फैसला किया। एक बार फिर जिन्ना याद आए और डीजी, आईएसआई ने ही पत्रकारों के सामने सेना को राजनीति में भाग न लेने वाली संस्था और देश में सत्ता के लिए चल रही उठापटक में पूरी तरह से तटस्थ घोषित कर दिया। अब बारी थी, इमरान के बौखलाने की। उन्होंने सार्वजनिक सभाओं में ही बयान देना शुरू कर दिया कि तटस्थ तो सिर्फ जानवर हो सकता है। बहरहाल, जिस दिन सेना ने तटस्थ होने की घोषणा की, उसी दिन इमरान सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गई और चंद महीनों में ही उसका पतन हो गया।
आज इमरान सड़क पर हैं। उनके खिलाफ विरोधी दलों ने इकट्ठे होकर साझा सरकार बना ली है और गलियों-चौराहों पर शक्ति प्रदर्शन हो रहा है। मजेदार बात है कि सभी को क्वेटा के जिन्ना याद आ रहे हैं। सैन्य मुख्यालय में सबसे ताकतवर नीति-निर्धारक संस्था कोर कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में फौज की राजनीति में भूमिका पर गरमा-गरम बहस हुई और एक आम सहमति बनी कि उसे खुद को इससे दूर ही रखना चाहिए। जनता की याददाश्त कमजोर जरूर होती है, पर इतनी भी नहीं कि यह तथ्य भूल जाए कि हर बार राजनीति में गंद फैलाने के बाद तौबा करने वाली फौज के इस फैसले पर आंख मूंदकर यकीन करने में जोखिम है। राजनीतिज्ञों ने भी अपने-अपने स्वार्थ के अनुरूप इसका भाष्य किया है। इमरान खान के लिए तटस्थता का अर्थ विरोधियों का समर्थन है, तो नवाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी पुराने अनुभवों को लेकर सशंकित हैं।
इसे एक बड़े दुर्भाग्य के रूप में लिया जाना चाहिए कि क्वेटा में जिन्ना के भाषण को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, खुद जिन्ना ने भी नहीं। इस तथ्य से तो सभी वाकिफ हैं कि फौजी नेतृत्व वाली खुफिया एजेंसी आईएसआई की स्थापना जिन्ना ने ही की थी। उसके पहले जासूसी की जिम्मेदारी इंटेलिजेंस ब्यूरो या आईबी पर थी, जो एक नागरिक संगठन था। जिन्ना ने एक फौजी गुप्तचर संस्था बनाकर राजनीतिज्ञों के पीछे उन्हें लगाया। धीरे-धीरे उनके मुंह में खून लगता गया और नतीजा हमारे सामने है।
पाकिस्तानी समाज में एक उक्ति कुछ राजनेताओं के लिए बार-बार दोहराई जाती है कि वे गेट नंबर चार की उपज हैं। इमरान सरकार के गृह मंत्री शेख रशीद तो खुद के लिए ही गर्व से कहते थे कि उनकी उम्र इस गेट से गुजरते बीती है। गेट नंबर चार रावलपिंडी में सेना मुख्यालय का वह प्रवेश द्वार है, जिससे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी या उनके मेहमान आते-जाते हैं। पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या के बाद ज्यादातर बडे़ नेता सेना की निर्मिति हैं। इनमें से जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और इमरान खान तो प्रधानमंत्री भी रह चुके हैं। यह और बात है कि कुछ दिनों तक कठपुतली रहने के बाद जैसे ही किसी प्रधानमंत्री की स्वतंत्र फैसला लेने की महत्वाकांक्षा अंगड़ाई लेती है, सेना किसी-न-किसी तिकड़म से उसका तख्तापलट देती है। इमरान खान पहले प्रधानमंत्री हैं, जो सांविधानिक तरीके से सत्ता से हटाए गए हैं, भले ही सेना की 'तटस्थता' से यह संभव हुआ है। अब वह सड़कों पर बिफरे घूम रहे हैं और फिलहाल जनता का समर्थन उन्हें मिलता दिख रहा है। अगले साल आम चुनाव होने हैं। देखना है कि इस समर्थन को वह तब तक कितना बचा पाएंगे?


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