धुंध भरा इंतजार

देश में गंगा उल्टी होकर बहती है तो ऐसी धुंध पैदा हो जाती है कि खत्म ही नहीं होती। इस धुंध के आगे-आगे चलते हैं ऊंचे स्वर के कर्कश मसीहा, जो कल आपकी जिंदगी को दूभर कर रहे थे, आज उसे स्वर्ग बना देने की कसमें खाते हैं।

Update: 2022-09-07 05:33 GMT

सुरेश सेठ: देश में गंगा उल्टी होकर बहती है तो ऐसी धुंध पैदा हो जाती है कि खत्म ही नहीं होती। इस धुंध के आगे-आगे चलते हैं ऊंचे स्वर के कर्कश मसीहा, जो कल आपकी जिंदगी को दूभर कर रहे थे, आज उसे स्वर्ग बना देने की कसमें खाते हैं। या यों कह लें कि कल तक जो आपके घर में दूध में पानी मिला कर बेचते थे, उन्हें अगर आज मिलावट के विरुद्ध और कुपोषण के खिलाफ जंग छेड़ते देखते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपके इलाके में जल संकट गहरा हो गया है।

दूध को गाढ़ा करने वाले पाउडर के दाम बढ़ गए हैं, इसलिए उनके मन में बिना मिलावट दूध बेचने का पुण्य कमाने का जज्बा पैदा हो गया है। आज शायद हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आए का नया चलन पैदा हो गया है। अब दूध में पानी मिलाने का झंझट काहे पालना, जब इसके विरुद्ध विशुद्ध संस्कृति का नारा लगाने से ही आपकी पालकी को किराए के कहार उठा लेते हैं।

दाम चुकाओ तो आज क्या नहीं मिल जाता। पहले किराए पर रैलियां सजती थीं, भीड़ जुटती थी, मंच सजते थे, मतदान केंद्रों के बाहर जाति और धर्म के नाम पर बिके वोटरों की कतारें सजती थीं, अब तो बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में सेंध लग जाती है। आपका वाट्सऐप बिकने लगा। मोहल्ले में वोट मांगते नेता अब आपकी चिरौरी करते नजर क्यों आएं? वाट्सऐप से आपके मन और रुझान की खाना तलाशी करते हुए मनभावन घोषणाओं से अपने वोटरों का मन जीत लें, और राजनीति में वंशवादी परंपराओं को स्थापित कर लें। परंपरा को जीना और उसकी गरिमा ग्रहण करना जैसे एक व्यावसायिक फार्मूला बन गया और इसके साथ ही उभर आई देश की मिट्टी को माथे पर लगाने की पुकार, चाहे यह मिट्टी लगी उस माथे पर हो जो पहले ही धूल धूसरित थे।

इसीलिए समझाया जाता है कि बंधु, जमाना बदल गया है। नेकनीयती के सपने न देखो। नई सदी ने नई समझ दे दी है। अब सदियों से पिछड़े हुए इस देश की गुरुतर आबादी को हर समस्या का हल वृहत परिप्रेक्ष्य में करना सीखना होगा। अब समझ की व्याकरण ही न बदलो, अपने नए शब्दकोशों में शब्दों के अर्थ भी बदल डालो। वर्तमान से असंतुष्ट लोगों को अतीत की गरिमा से सराबोर कर दो। आंकड़े बताते हैं कि मिलावटी दूध के कुपथ्य ने पांच साल की उम्र के आधे से अधिक और बारह साल की उम्र तक आधे से कम बच्चे मौत के हवाले कर दिए, तो लोगों को वर्तमान के प्रति असंतोष की ज्वाला में दहकने न दो, बल्कि उन्हें बताओ कि हमारे यहां तो शुद्ध पवित्र वातावरण में कामधेनु गायों के मिल जाने की परंपरा है। तब आम के आम और गुठलियों के दाम मिलेंगे।

मगर बंधुवर, हथेलियों पर सरसों तो नहीं जमाई जा सकती। इस देश में कामधेनु और कल्पवृक्ष का युग भी लौट कर आएगा। तब यह जीवन, समाज और गलत भौतिकवादी मूल्यों का गंदलापन छंट जाएगा। उन दिनों का इंतजार करो। देश में सतयुग की वापसी चाहते हो, तो आज के इस कलयुग को सहन करो। बड़े बूढ़ों ने भी कहा है कि सहज पके सो मीठा होय। हमें इन परिभाषाओं को बदलना नहीं है, इनमें संयम, धीरज और अनुशासन के नए अर्थों को स्थापित करना है।

समझने की कोशिश कीजिए कि आयातित मूल्यों ने हमारी संस्कृति को इतना गंदला कर दिया है कि अब उसकी विरूपता पहचानी भी नहीं जाती। भला हमारे इतिहास में कभी सुना था कि भीड़तंत्र ने दिशाहीन होकर, मासूम लोगों को घेर, उनकी हत्या कर दी? हमने अपने सांस्कृतिक इतिहास के सब पन्ने खंगाल लिए, यह 'लिंचिंग' शब्द तो हमें कहीं दिखा नहीं। इसीलिए कहते हैं कि इस पीड़ा और पतन के विरुद्ध चिट्ठियां लिखने के बजाय इसे अपने सामाजिक जीवन से बहिष्कृत कर दो।

महान साधु पुरुष हमेशा सही फरमाते हैं। ठीक रास्ते पर लालटेन जलाते हैं। यह लालटेन हमें बताती है कि सही मूल्यों की तलाश अपने भविष्य के संघर्ष में नहीं, अतीत की गरिमा में करनी होगी। बूढ़े वट वृक्ष हो गए। हम सिर खुजाते हुए इस संदेश को अंगीकार करते हुए उस कूड़े के ढेर पर बैठ गए, जिससे आज हमारे शहर का हर महत्त्वपूर्ण कोना आभूषित हो गया है। भीड़ तंत्र में मानव दलन विदेशी आयतित भावना है, इसे नकारो, गहरी धुंध से उभरता हुआ उनका संदेश कहता है। इस धुंध के हटने का इंतजार तो करना ही होगा।

इसके धुंध में छिपे माफिया तंत्र को बेनकाब कौन करेगा? काले धन के भामाशाह सूत्रधार बन कर कठपुतलियों का खेल खेलते हैं। इसे ही अपना जीवन मान इसे क्षणभंगुर क्यों मान लें। जैसे हर रात के बाद सुबह होती है, इसी प्रकार इस कलियुग के बाद सतयुग अवश्य आएगा। प्रवचन करने वाले हमें बताते रहते हैं, लेकिन यह इंतजार कब तक, इसका जवाब कोई नहीं देता, अन्याय का यह सर्वव्यापी एहसास भी नहीं।


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