मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत से क्या यूपी में कांग्रेस को ऑक्सीजन मिली है?
मुज़फ़्फ़र नगर में 5 सितंबर को हुई किसान महापंचायत ने बीजेपी को सांसत में डाल दिया है
मुज़फ़्फ़र नगर में 5 सितंबर को हुई किसान महापंचायत ने बीजेपी को सांसत में डाल दिया है. वहां के जीआईसी मैदान में किसानों (Farmers) की जैसी भीड़ जुटी वह अभूतपूर्व थी तथा निकट भविष्य में होने वाले प्रदेश विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखेगा भी. इस महापंचायत को स्वतः-स्फूर्त तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सत्तारूढ़ बीजेपी (BJP) को उसी की भाषा में जवाब तो दिया गया है.
जिस तरह बीजेपी अपनी जीत के लिए हर तरह के उपाय अपनाती है, उसको बड़ी चतुराई से आइना दिखा दिया गया है. यह वही मुज़फ़्फ़रनगर है, जहां के कवाल गांव में आज से आठ साल पहले इन्हीं दिनों हिंदू व मुस्लिम जाटों (Jats) के बीच दरार पड़ गई थी, आज वह दरार भरती हुई प्रतीत हो रही है.
चौबीस की तैयारी के संकेत
हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि इस महापंचायत से बीजेपी साफ़ हो जाएगी लेकिन इससे उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी दलों को मज़बूती ज़रूर मिली है. इसका लाभ रालोद और सपा का गठजोड़ 2022 के विधान सभा चुनाव में अपने तईं उठाने की कोशिश करेगा तो इसके ज़रिए लोकसभा में कांग्रेस अपना भविष्य देख रही है. हालांकि सूत्रों की मानें तो इस महा पंचायत को सफल बनवाने के लिए कांग्रेस के सभी फ़्रंटल ऑर्गेनाइज़ेशन लगे थे.
लेकिन युद्ध में सब कुछ वैध समझा जाता है. जिसका जहां दांव लगा, उसने चला. पिछले नौ महीने से किसान धरने पर थे, सवाल यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी ने इतने दिनों में क्या किया! यही कारण है कि कांग्रेस इस पूरे आंदोलन में किसानों के साथ है. और बहुत वर्षों बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पोस्टर, बैनर दिखाई पड़ रहे हैं. किंतु अभी भी उसका कोई आधार नहीं दिख रहा. कुछ पुराने नेता गांधी टोपी लगा कर टिकटार्थी ज़रूर बने हैं. उन्हें लगता है कि कांग्रेस की तरफ़ से यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ज़रूर कोई न कोई चमत्कार करेंगी.
लेकिन वे भूल जाते हैं कि यह पिछली सदी का सातवां दशक नहीं बल्कि 21 वीं सदी का तीसरा दशक है. और 30 साल पहले खुद कांग्रेस पार्टी ने जो परिवर्तन की बयार चलाई थी, उसमें काफ़ी कुछ बह गया है. यही कारण है कि 1989 के बाद जो भी विधान सभा चुनाव हुए उनमें कांग्रेस लगातार पीछे होती गई.
लोकसभा में कांग्रेस का देश-व्यापी बेस
इसके पीछे और भी अनेक कारण हैं. एक तो कांग्रेस का मंडल या कमंडल बेस न होना और दूसरा उत्तराखंड का उत्तर प्रदेश से अलग हो जाना. इसके अलावा कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक का बिखर जाना तथा तीव्र इच्छाशक्ति वाले नेतृत्व का घोर अभाव. इन सबने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से लगातार साफ़ किया है. दो और ग़लतियां कांग्रेस ने कीं और वह हैं 1996 तथा 2017 में बीएसपी और सपा से समझौता कर. इस वजह से कांग्रेस लगातार पिछड़ती रही है, लेकिन उसे उत्तर प्रदेश से अधिक चिंता लोकसभा चुनाव की है क्योंकि राज्यों में भले कोई बाजी मार ले केंद्र में अभी भी कांग्रेस की संभावना क्षीण नहीं हुई है.
आज भी पूरे देश में हर लोक सभा सीट पर कांग्रेस का अपना एक वोट बैंक है और उसे लगता है कि उसे सत्ता में आने के लिए बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति से इतर स्टैंड लेना पड़ेगा. इसीलिए वह बीजेपी से असंतुष्ट संगठनों को एक मंच पर लाने का प्रयास करने में जुट गई है.
नाराज़ लोग जुटने लगे
जब कोई राजनीतिक दल लीड लेने की कोशिश करता है तो देश के सारे असंतुष्ट वर्ग उससे जुड़ने का प्रयास करते हैं. फिर वे भले उद्योगपति हों, व्यापारी हों या मिडिल क्लास अथवा कामगार वर्ग के लोग हों. ये सब उस दल से जुड़ने का प्रयास करते हैं जिसकी देश-व्यापी पहचान हो. अब कांग्रेस फ़्रंट फुट पर आ गई है तो लोगों ने हर तरह से उसे मदद करने का निश्चय किया है. लेकिन इसमें दिक़्क़त यह है कि कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व पर उन्हें भरोसा नहीं है. इसकी वजह है कि एक तो कांग्रेस का सर्वोच्च नेता कौन है, यह अभी तय नहीं हुआ है.
दूसरा जिन राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के पद हेतु प्रोजेक्ट किया जाता है उनकी गंभीरता को लेकर सशोपंज की स्थिति है. मगर लोकतंत्र का तक़ाज़ा यह है कि देश में सदैव एक ताकतवर विपक्ष होना चाहिए और यही सोच लोगों को कांग्रेस के पीछे आने को प्रेरित करती है.
लोकतंत्र में सत्ता पक्ष की नीतियों और योजनाओं पर बहस नहीं होगी अथवा उससे सवाल नहीं होंगे तो धीरे-धीरे सत्ता पक्ष बेलगाम होता जाएगा. वर्ष 2014 और 2019 में बीजेपी को जिस तरह से बहुमत मिला, उससे कांग्रेस और वामपंथी दल साफ़ हो गए, जो छिटपुट दल जीत कर आए भी उनके क्षेत्रीय स्वार्थ होते हैं और क्षेत्रीय सोच भी इसलिए वे किसी योजना अथवा दूरगामी नीति पर न बहस कर पाते हैं और न केंद्र से भिड़ने की उनकी मंशा होती है.
इस वजह से रूलिंग पार्टी और ताक़तवर होती जाती है. इसीलिए असंतुष्ट लोगों ने बीजेपी की नीतियों के विरुद्ध खुल कर बोलना शुरू कर दिया है. उनको बीजेपी का हिंदुत्व प्रेम पाखंड लगता है. महंगाई और बेरोजगारी से हर व्यक्ति परेशान है. शिक्षा महंगी होती जा रही है और शिक्षा पूरी करने के बाद नौकरी मिलती नहीं. इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हाल यह है कि बच्चा दस-दस लाख रुपए की फ़ीस दे कर बी. टेक करता है और उसे जॉब मिलती है जोमैटो या अमेजन में डिलीवरी बॉय की. ऐसी स्थिति में वह कब तक बीजेपी के हिंदुत्व का झुनझुना बजाता रहेगा?
डिफ़ेंसिव होती बीजेपी
सच बात तो यह है, कि स्वयं मुस्लिम यह महसूस करते है कि बीजेपी के हिंदुत्व की आड़ में वे मज़े में है. एक ज़ावेद अख़्तर के बयान ने ज़ावेद की टीआरपी बढ़ा दी और बीजेपी को डिफ़ेंसिव कर दिया. मालूम हो कि फ़िल्म गीतकार ज़ावेद ने एक टीवी चैनल पर कह दिया कि आरएसएस एक तरह से तालिबान ही है. अब ज़ावेद तो यह कह कर लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए लेकिन बीजेपी न उनका कड़ा विरोध कर पा रही है न उस पर चुप बैठ पा रही. एक वकील ने मुंबई में ज़रूर ज़ावेद के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कराई है.
लेकिन कोई कार्रवाई होगी, इस पर शक है. पब्लिक को परस्पर सांप्रदायिक आधार पर बांट कर किसी हिंदू का क्या हित हुआ? सच यह है कि हिंदू किसानों के खेत गो-वंश नष्ट कर देता है और वह कोई विरोध नहीं कर पाता, उधर मुस्लिम कसाई हिंदू अधिकारी और पुलिस को रिश्वत देकर गो-कशी कर लेते हैं. ग़ाज़ीपुर के एक नामी यादव चिकित्सक का कहना है, कि पिछले दिनों शहर में सबसे अधिक मकानों की रजिस्ट्री मुसलमानों की इस कसाई बिरादरी ने कराई हैं. उन्हें संदेह है कि वे लोग चोरी-छुपे गो-कशी कर रहे हैं. अन्यथा बकरे या भैंसे काटने से इतना अकूत धन आने से रहा.
ऐसी हालत में जनता भी अब इस हिंदू-मुस्लिम खेल से ऊब चुकी है. वह अब इस माहौल को बदलना चाहती है. 5 सितम्बर को किसान महापंचायत में अल्लाह हू अकबर और हर-हर महादेव के जो सम्मिलित नारे लगे, वे इस दूरी को समाप्त करने की तरफ़ इशारा कर रहे थे. बीजेपी के कर्णधारों को बदलते हुए इस परिदृश्य को समझना चाहिए.