हैपी मेन्स डे: मर्द वो है जो गलत के खिलाफ खड़ा होता है
फिल्मों से लेकर समाज में हमारे आसपास ये कहते हुए लोगों को सुना जाता है कि मर्द को कभी दर्द नहीं होता है
फिल्मों से लेकर समाज में हमारे आसपास ये कहते हुए लोगों को सुना जाता है कि मर्द को कभी दर्द नहीं होता है. लेकिन, ऐसा करके हम मर्द को कुंठा का शिकार बना देते हैं, वो अंदर ही अंदर टूटते रहते हैं, कुंठित होते रहते हैं. ज़ब्त किए जाने वाले आंसू सैलाब बन जाते हैं इसलिए आंसुओं का बह जाना ज़रूरी होता है, फिर वो मर्द के हों या औरत के.
मर्द को दर्द भी होना चाहिए, मर्द कभी-कभी रोते हुए भी अच्छे लगते हैं. दिल के बोझ को बहा देना सुकूं देता है. ज़रूरी नहीं हर दफ़ा चट्टान बनके रहा जाए, कभी कभी मोम भी बना जाता है. मर्दानगी की निशानी चौड़ी छाती, डोले, रौबदार होना नहीं. मर्द वो जो जज़्बाती भी हो, जिसमें संवेदनाएं हों.
मर्द वो होता है जो औरतों की इज़्ज़त करता है, मर्द वो होता है जो गलत के खिलाफ़ खड़ा होता है, जो ज़ुल्म पर चुप नहीं रहता. अफसोस ये है कि हमारा समाज जिस्मानी तौर पर मर्द बनना और बनाना जानता है लेकिन जज़्बाती तौर पर मर्दानगी क्या है ये नही सिखाता है. मर्द की सारी मर्दानगी एक ही जगह होती है.
अगर वो कमज़ोर तो नामर्द, जो गाली है और फिर वो खुद को मर्द साबित करने के लिए कुछ भी कर सकता है किसी भी हद तक जा सकता है.
समय आ गया है कि अब मर्द होने के पैमाने बदल दिए जाएं. अच्छा मर्द वो जो संवेदनाओं से भरा हो, जिसमें जज़्बात हों, जो औरतो की इज़्ज़त करता हो, जो उन पर हाथ ना हो उठाता हो. लड़कियों से ज़्यादा ज़रूरत हमें लड़कों के संस्कार देने की हो गई है. लड़के मर्द बनकर जीते हैं, उनमें अहंकार भर जाता है मर्दानगी का.
लेकिन वो भूल जाते हैं तो कि असल मर्दानगी बच्चे पैदा करना नहीं, औरत को कुचल देना नहीं है, बल्कि औरत की इज़्ज़त करना है. हमें संस्कार देना चाहिए अपने बेटों की वो लड़कियों की इज्ज़त करें उनका सम्मान करें.
असल मर्द जज़्बाती होता है, वो रो भी लेता है, अपनी कमज़ोरी स्वीकार भी लेता है, वो अहंकार में नहीं जीता है. असल मर्दानदी जिस्म की ताकत नहीं बल्कि रूह की, मन की ताकत है. मर्द वो जिसको दूसरो का दर्द भी मेहसूस ना हो, पत्थर दिल होना, सख़्त जाना होना आपको मज़बूत नहीं करता है बल्कि दूसरों के ग़म और परेशानी मेहसूस करना भी मज़बूती है.
अंतर्राष्ट्रीय मेन्स डे की बधाई देते हुए मैं दुनिया के तमाम मर्दों से कहती हूं कि संवेदनशील बनिए, संवेदनाएं इंसान का ज़िंदा रखती हैं. अपने ग़म को उदासी को बह जाने दीजिए. समाज के बनाए मर्दानगी के पैमाने को ठोकर मार दीजिए. दर्द तकलीफ़ में उफ्फ़ भी करिए आह भी भरिए, अज़ीयत में जीना ज़िंदगी नहीं है, ग़म को आसुओं में बह जाने देना ज़रूरी है.
आप परिवार की छत हो सकते हैं, आप चट्टान हो सकते हैं लेकिन कभी कभी चट्टान से भी झरना बह जाना चाहिए, खारापन आंखों से निकल जाए तो अच्छा होता है. मर्द के दंभ में जीना अच्छा नहीं है, मर्द और औरत दोनों बराबर हैं, हां कहा जाए तो औरतों में ज़ज़्बात ज़्यादा होते हैं, लेकिन आप में ज़ज़्बात होंगे तो ये दुनिया और खूबसूरत हो जाएगी.
कोशिश करिए एक संवेदनशील आदमी बनने की, जो हंसता है, रोता है, समझता है, जिसे तकलीफ भी होती है तो किसी का कंधा तलाश लेता है. कोशिश करिए अपने अंदर की सख़्ती को निकाल देने की. और समझना हमें भी होगा कि हम मर्द को पत्थर ना माने. आंसू बहाते हुए मर्द को कमज़ोर ना कहें, बल्कि ये माने की वो तकलीफ़ में होगा.
हमें एक बेहतरीन दुनिया बनानी है तो मर्द और औरत दोनों को संवेदनशील होना होगा. मर्दों को सख्तजान ना बनाए. उन्हें भी इंसान समझे और मानें. दुनिया के तमाम बेहतरीन आदमियों को जिनकी वजह से उम्मीद बाकी है कि दुनिया खराब नहीं है उनको men's डे की शुभकामनाएं.
और, उनके लिए दुआ जो कुंठित हैं, कमज़ोर हैं, जिन्हें पता ही नहीं जज़्बात क्या होते हैं, इमोशन्स क्या होते असल मर्दानगी क्या होती है. HAPPY MEN'S डे
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
निदा रहमान, पत्रकार, लेखक
एक दशक तक राष्ट्रीय टीवी चैनल में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी. सामाजिक ,राजनीतिक विषयों पर निरंतर संवाद. स्तंभकार और स्वतंत्र लेखक.