गुलशन का कारोबार चले
फूलों के रंग और उनकी महक मन को परम आनंद से भर देती है। फूल प्रकृति का संदेश हैं कि यह पूरी सृष्टि बहुत मनभावन है, इसे ऐसा ही रहने दो और सुनो, अपना मन भी फूलों-सा कोमल और सुंदर बना लो।
हरीशचंद्र पांडे: फूलों के रंग और उनकी महक मन को परम आनंद से भर देती है। फूल प्रकृति का संदेश हैं कि यह पूरी सृष्टि बहुत मनभावन है, इसे ऐसा ही रहने दो और सुनो, अपना मन भी फूलों-सा कोमल और सुंदर बना लो। कभी लगता है कि फूल एक कलाकृति है और खुशबू उसका अप्रतिम सौंदर्य। बगीचे में हौले-हौले पवन सरसराती है, तो कुछ फूल हिलडुल कर ऐसे हंसते हुए से लगते हैं कि उन फूलों की ललछौंह हंसी सारी उदासी निचोड़ कर कहीं विलीन कर देती है। फूलों को अपने प्रेम संदेश तक सीमित कर देने वाले लोग जरा नादान से लगते हैं। ऐसा लगता है कि वे इसके रसायन से बिलकुल अछूते हैं। एक जमाना था, जब फूलों से कितनी औषधियां बनती थीं, उनका उपयोग बहुत सारे लोगों को मालूम होता था।
हमारे गांव के आंगन में हरसिंगार के फूल आधी रात के बाद डाली से झरते जाते और रात को वहां बिछा कर रखी सूती धोती में जमा हो जाते। उन फूलों को सुखा कर बनाया चूर्ण ठाकुर जी को केसर तिलक लगाने के काम आता था। केसर भात बनाते समय दादी इसी पाउडर में से दो-तीन चुटकी अधपके भात में छिड़क देतीं। ऐसी खुशबू और ऐसा स्वाद आता कि केसर भात अमृत भात लगता। उसके बाद तो जब भी हम बालक उस हरसिंगार के पेड़ के आसपास होते, तो उस जादूगर हरसिंगार को बहुत मान-सम्मान से देखा करते थे।
इसके अलावा, गांव में किसी को भी घुटने में दर्द रहता, तो हरसिंगार के ग्यारह पत्ते एक गिलास पानी में बस एक बार उबाल-छान कर गुनगुना पी लिया जाता। दो-तीन बार यही करते और दर्द तो कम होता ही, पेट भी हल्का-सा हो जाता। खुल कर भूख लगती। गुड़हल के पेड़ पोखर के किनारे लगे रहते। चटख लाल, पीले, सफेद, गुलाबी गुड़हल तो खूब होते। उन दिनों बचपन में कभी शैंपू और कंडीशनर तो हम बालकों ने घर पर देखा तक नहीं। गुड़हल के फूल और पत्ते सिल पर पीस कर बालों में लेप की तरह लगाए जाते।
बाल ऐसे चमकदार हो जाते कि बार-बार कोमल केशराशि को छूने का मन करता और हाथ फिसल जाता था। इसी तरह सदाबहार के सफेद, गुलाबी, बैगनी पौधे लकदक रहते थे। इनके ताजे या सूखे फूल मधुमेह में काम आते। गुलाब के फूलों का तो कोई जवाब ही नहीं था। घर पर गुलकंद से लेकर शरबत और पुलाव से लेकर मीठी चटनी, सबमें गुलाब इस्तेमाल किए जाते। गुलाब की पंखुड़ियां पानी में डालकर नहाते, तो ताजगी का एक अलग ही आलम हुआ करता था। चंपा के खुशबूदार फूल खिड़की पर रख दिए जाते और हवा से ऐसी महक आती रहती थी कि घर में रूम फ्रेशनर की जरूरत ही नहीं।
रात को सोते समय किसी बालक के मुंह में पानी आता तो पता लग जाता कि पेट में कीड़े पड़ गए हैं। पलाश के पत्तों में कीड़े मारने का गुण पाया जाता है। इसके पत्तों का एक चम्मच रस पेट के कीड़ों को नष्ट कर देता। बाद में पता लगा कि आयुर्वेद में पलाश के सूखे फूलों का बहुत गुणगान है और यह पलाश यानी टेसू मधुमेह का शत्रु भी है। पलाश के फूलों का रंग तो हमेशा होली का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करता था, जो आजकल एक बार फिर शहरों की कालोनियों में दिखने लगा है।
रासायनिक रंगों से बचने के लिए आजकल लोगों ने गेंदे और पलाश के फूलों से रंग घर पर ही बनाने शुरू कर दिए हैं। पर, अधिकतर लोगों का जीवन ऐसा है कि वे जिस सीमेंट की नगरी में रहते हैं, वहां कैसे फूल और क्या उनकी उपयोगिता! तकनीकी जीवन और बेहिसाब भागमभाग ने जीवन का अर्थ ही बदल दिया है। मेडिकल स्टोर में तुरंत मिल जाने वाली गोली और कैप्सूल के गुलाम होकर हम इतने लुटते-पिटते जा रहे हैं कि सजावट में कुछ फूल दरवाजे या बालकनी पर सजा कर अपने को धन्य मान रहे हैं, पर अपने आलस्य के कारण फूलों के औषधीय गुणों का लाभ नहीं उठा पाते।
रासायनिक दवाओं के सामने हमेशा ही फूलों की औषधीय महत्ता हेय रही है। पर अगर जरा-सी जगह है, तो कुछ गमलों में इन फूलों को उगा कर जीवन का रस और दवा का दोहरा लाभ लिया जा सकता है। फिर एक सहज सुलभ वैद्य हमारे घर का आंगन भी हो ही जाएगा। इस महान परिवर्तन के लिए समाज को ही गमलों में पौधों की मुहर लगानी होगी। फरवरी से लेकर मई तक फूलों की बहार ही बहार है। तो, हमें करना क्या है, फूल की बस पंखुड़ियां उबालनी या सुखानी ही तो हैं, बन गई दवा। पर हम आलस्य और लापरवाही से इन छोटे, पर लाभदायक कार्यों में रुचि नहीं दिखाते। खाली जगह पर एक गमला लगा कर उस अवसर का इंतजार कीजिए, जब उसमें फूल खिलेंगे और अपनी योग्यता स्वयं सिद्ध कर दिखाएंगे।