देश में पहली बार भीख के कटोरे, दान और भीक्षा पात्र अचानक स्ट्राइक पर चले गए। उनकी मांग थी कि जब देश के अमीर से अमीर लोग बैंक उधारी खाकर दीवालिया घोषित होना चाहते हैं, तो उन्हें भी यह हक हासिल होना चाहिए। इन सभी के पास ताकत दिखाने का मौका इसलिए भी था क्योंकि पूरा देश जब रेवडिय़ां खा रहा है या सरकारों के वादे मुफ्तखोरों के लिए वरदान साबित हैं, तो भीख के कटोरे को यह विशेषाधिकार मिले कि जब चाहे और जहां चाहे, पसर जाए। इसका सवाल था कि हर राजनीतिक पार्टी बताए कि वह सत्ता के लिए कितने लोगों को भिखारी बना सकती है। पहली बार भीक्षा पात्र अपने लिए भिखारी वर्ग की उन्नति देख रहा था। उसे पता चल चुका था कि देश की प्रतिष्ठा के लिए भीख का आदान-प्रदान फायदेमंद है, इसलिए इसकी आचार संहिता जरूरी है। यह तय हो कि किस-किस क्षेत्र में भीख की संभावना अधिक है, ताकि इसका व्यावसायीकरण किया जा सके। इससे बहुत सारे राजनीतिक नेताओं का भी फायदा होगा। दलबदल की भीख का सूचकांक यह साबित कर चुका है कि सबसे बड़ा भीख का कटोरा सियासी है। भीख का कटोरा अब एक आदत है और कमोबेश हर नागरिक कहीं न कहीं इसे उठाने के काबिल हो रहा है। देश का परिदृश्य जिस तेजी से बदल रहा है, उससे भीख का कटोरा भी रंग बदल-बदलकर सामने आ रहा है। कटोरा शाम को अपना और देश का पैमाना तय करता है।
इसलिए एक भिखारी को यह भ्रम हो गया कि उसका मुकाबला सीधे-सीधे अडानी से है। उसे समझाया गया कि अडानी तो विश्व के दूसरे सबसे अमीर हैं, तो तू क्यों ऐंठ रहा है। भिखारी ने एक बड़ा सा कटोरा सामने रखते हुए कहा कि जिस दिन बैंकों से इस कटोरे में उधार ले पाया, यह भी अमीरी का सोना बन जाएगा। पहली बार भीख और भिखारी का आत्मविश्वास अडानी-अंबानी से कम नहीं था। खैर कटोरे की प्रतिष्ठा देखते हुए देश में भिखारी होना अब एक प्रोफेशन बन चुका है। कटोरों की हड़ताल ने भिखारियों को इतना सम्मान दिया कि एक साथ तीन भिखारी संसद मार्ग पर बैठ गए। पहला ईमानदारी से दान मांग रहा था, दूसरे ने बाकायदा लिख रखा था कि हर तरह के भ्रष्टाचार का पैसा कबूल है, जबकि तीसरा परिवार की रक्षा के लिए पूरी औलाद के साथ बैठा था। आश्चर्य यह था कि देखते ही देखते भ्रष्टाचार का धन कबूल कर रहा कटोरा पूरी तरह भर गया।
ईमानदार कटोरा पिट गया। उसे केवल आश्वासन मिले, जबकि तीसरा कटोरा थामे पूरा कुनबा परिवारवाद का शिकार हो गया। परिवारवादी कटोरे को नान परफार्मिंग मानकर कई लोग आगे निकल गए, जबकि आदर्शवादियों ने ईमानदार भिखारी के इर्द-गिर्द इतना जमावड़ा खड़ा कर दिया कि कोई यह देख ही नहीं पाया कि उसके पास आया सबसे बड़ा कटोरा खाली रह गया है। देश की वित्तीय व्यवस्था के लिए अब एक अंतिम उपाय यही बचा था कि भीख पर जीएसटी लगा दिया जाए और यह ऐलान देखते-देखते हो भी गया। अब सरकार खुद ही भीख देकर जीएसटी बढ़ा रही थी, लेकिन भिखारी यह चाहते थे कि उनके ऊपर यह लांछन अब न लगे कि वे कोई कर अदा नहीं करते हैं। भिखारियों के पक्ष में देश के कई व्यापारी भी आ गए, इसलिए अब जीएसटी के कारण देश की सरकार यह फैसला नहीं कर पा रही कि किसे वास्तव में भिखारी मान कर छूट दी जाए। व्यापारी खुश हैं कि जीएसटी ने उन्हें भी कटोरे की हड़ताल के लिए सक्षम बना दिया है।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal