आश्वासनों की हरियाली
गर्मी का मौसम आता है तो पानी और वृक्षों का जिक्र होने लगता है। प्रशासन हरकत में आ जाता है। कुर्सियों पर बैठे-बैठे बड़े नेता लाखों वृक्ष लगाने की घोषणा करते हैं
प्रभात कुमार; गर्मी का मौसम आता है तो पानी और वृक्षों का जिक्र होने लगता है। प्रशासन हरकत में आ जाता है। कुर्सियों पर बैठे-बैठे बड़े नेता लाखों वृक्ष लगाने की घोषणा करते हैं। जिन नेताओं को ज्यादा पौधारोपण कर अपने वोट फिर उगाने हैं, वे योजना बना कर पौधे लगाने का उत्सव निपटाते हैं। सर्दी में सोई हुई पर्यावरण प्रेमी संस्थाएं, स्कूल या अन्य जगहों पर पानी की कमी और उसके सदुपयोग जैसे विषयों पर गोष्ठियां करवाने लगती हैं।
बच्चों के अभिभावक दो साल बाद स्कूल जा रहे अपने बच्चों को प्रतियोगिताओं के लिए तैयारी करवाना शुरू कर चुके हैं। बहुत कुछ हरा-हरा हर बरस होता है, लेकिन वैश्विक ताप के बढ़ते सूचकांक को तो छोड़िए, अपने शहर या क्षेत्र के मौसम में कोई फर्क नहीं पड़ता। जितना जल हम धरती की कोख से निकाल चुके हैं, उसे वापस करने के उपाय हम सभी को पता हैं, लेकिन ईमानदारी से करते नहीं।
किसी कार्यक्रमों में जब किसी राजनेता को बुलाया जाता है, तो वह कुछ इस तरह की बातें करता है, 'आज हमें फिर से अपने शहर की चिंता आन पड़ी है। आप तो जानते हैं, पानी के लिए बर्फ का गिरना न गिरना ऊपर वाले की इच्छा पर निर्भर है। वैसे यह जो गर्मी पहाड़ों पर भी पड़ रही है, दुनिया भर में फैल रहे वैश्विक ताप की वजह से है।
इसके बारे में हम पहले भी आश्वासन दे चुके हैं कि अगली बार सरकार बनने के बाद कुछ न कुछ ठोस करेंगे। संकट का मुकाबला आपके साथ मिल कर जी-जान से करेंगे। हमने कुछ साल पहले चीन यात्रा कर प्रेरणा ग्रहण कर ली थी। जैसे उन्होंने नकली बारिश करवाई और सूखे से लड़ने के लिए नकली बर्फ का उत्पादन किया, चिंता न करें हम भी बारिश करवाने और बर्फ गिराने का इंतजाम उनसे ज्यादा अच्छा करेंगे। पहले पानी और बर्फ बनाने की मशीनें मंगा लेंगे, बाद में अपनी बना भी लेंगे।'
स्कूल में पढ़ते थे तो दादी निरंतर होती बारिश को झड़ी लगना कहती थी। कहती थी, शनिवार को शुरू हुई बारिश अगले शनिवार को ही बंद होगी। वाकई, बहुत बारिश होती थी, क्योंकि वास्तव में वृक्ष बहुत थे। यह बारिश ही मनुष्य और जीव-जंतुओं को जीवित रखती आई है। शायद सब जानते होंगे, वृक्षों की जड़ों से लेकर पत्तियों तक में पानी होता है। प्रकाश संश्लेषण की वानस्पतिक क्रिया चलती रहती है। वृक्ष और अन्य जल स्रोतों से पानी वाष्प बन कर उड़ता है और बादल बनते हैं। जहां ज्यादा पेड़ होते हैं, वहां खूब बारिश होती है। यह अनुभव मैंने प्रत्यक्ष रूप से अपने शिमला प्रवास में किया है। वहां जिस क्षेत्र में रहता था, वहां पड़ोस में देवदार का छोटा, मगर घना जंगल था। कई बार ऐसा होता था कि वहां बारिश हो जाती थी, लेकिन थोड़ी दूरी पर नहीं होती थी।
वैसे तो सुविधाभोगी इंसान का हाल अब यह है कि उसे न ज्यादा ठंड चाहिए, न ज्यादा गर्मी और न बहुत बरसात। यह सब उसे पसंद नहीं है। वृक्ष लगाने का समय नहीं है। मकान के आसपास जमीन नहीं है। वृक्षारोपण के नाम पर मकानों की छतों पर गमलों में सब्जी उगा रहे हैं या दिखावटी पौधे, जो पानी सोखने वाले वृक्षों जैसी प्रवृत्ति के नहीं होते। रबड़ और प्लास्टिक के फूल सालों चलते हैं। बारिश का पानी बचाने के लिए वांछित उपाय करने की प्राथमिकता नहीं है। मौजूद वृक्षों को काटना, दबाना आसान है।
सड़कें चौड़ी करने के नाम पर लाखों पेड़ फना किए जाते हैं और योजनानुसार आश्वासन दिए जाते हैं कि जितने वृक्ष काटे जाएंगे, उतने ही दूसरी जगह लगाए जाएंगे, लेकिन फिर अधिकारी कह देते हैं कि उपयुक्त जगह नहीं मिल पाई, जहां वृक्ष रोपे जा सकते। नई इमारतें बनाते हुए कितने ही वृक्ष काट दिए जाते हैं। ये इमारतें ऐसी जगह क्यों नहीं बनाई जा सकतीं, जहां खाली जमीन है। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण के मलबे में कई प्राकृतिक जल स्रोत दबा दिए जाते हैं। वृक्ष दीवारों में चिन दिए जाते हैं। कोई आवाज निकालता भी है, तो अनसुनी कर दी जाती है।
हरियाली बचाने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकण कई मामलों में हस्तक्षेप करता है। विकास कार्य रुकवाए जाते हैं। राजनीतिक विकास का काम लटक जाता है, लेकिन सरकारें कोई न कोई कानूनी दांव-पेंच लड़ा कर विकास परियोजनाओं को पूरा करने में लगी रहती हैं। अंत में जीत लोकतांत्रिक व्यवस्था की होती है और वृक्षों के कटने पर लगी रोक हट जाती है। राजनीति जीत का उत्सव मनाती है। यह कुव्यवस्था में फंसी जख्मी विडंबना है कि र्इंट, सीमेंट, लोहे और सीमेंट से होता विकास प्रशंसित हो रहा है, लेकिन पानी और वृक्षों का सरेआम हो रहा विनाश नहीं दिखता। बेबसी का आलम है।