दादी-नानी का सूना आंगन
कुछ दिनों पहले मेरी गली के एक बुजुर्ग दंपति बहुत उदास दिखे। पता चला कि उनके बेटे-बहू और ग्यारह साल का पोता गर्मी की छुट्टियों में घर आने वाले थे। मगर पोते के स्कूल वालों ने गर्मी की छुट्टी में ही पूरे डेढ़ महीने के लिए समर कैम्प लगा दिया।
सतीश खनगवाल: कुछ दिनों पहले मेरी गली के एक बुजुर्ग दंपति बहुत उदास दिखे। पता चला कि उनके बेटे-बहू और ग्यारह साल का पोता गर्मी की छुट्टियों में घर आने वाले थे। मगर पोते के स्कूल वालों ने गर्मी की छुट्टी में ही पूरे डेढ़ महीने के लिए समर कैम्प लगा दिया। दंपति की निराशा इसलिए भी अधिक थी कि पिछले दो साल से महामारी के कारण वे अपने पोते से नहीं मिल पाए थे। इस बार मिलने की आस थी, बहुत खुश थे, पर अवकाश में स्कूल खुल जाने से उनको यह खुशी नसीब नहीं हुई।
उनकी बात सुनकर मैं अपने बचपन में लौट गया जब दशहरे-दिवाली का अवकाश पूरे बीस दिनों का होता था। सर्दी के मौसम में क्रिसमस से सात दिन का अवकाश मिलता था। फिर भी हम बच्चों को सबसे अधिक इंतजार होता था गर्मी की छुट्टियों का, जो डेढ़ या दो महीने पड़ती थी। उन दिनों पढ़ाई-लिखाई का भी कोई विशेष तनाव और दबाव नहीं होता था, मगर पढ़ाई की गुणवत्ता आज से बेहतर थी। पूरा अवकाश खेल-कूद और मजे में बीत जाता था। सबसे अच्छा लगता था गर्मी की छुट्टी में नानी के घर जाना। साल भर में एक बार मिलने वाले नाना-नानी, मामा-मामी के संग-साथ और लाड़-दुलार की बात ही कुछ और होती थी।
लेकिन आज रोजगार की तलाश में लोग एक-स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बस गए और भौतिक सुख-सुविधाओं की आंधी में संयुक्त परिवार का ह्रास हो गया है। नाना-नानी का लाड़-दुलार तो दूर, बच्चे दादा-दादी के स्नेह को भी तरस गए। ऐसे में गर्मी की छुट्टियों की सबको प्रतीक्षा रहती है। बच्चे इनमें अपने बुजुर्गों के साथ-साथ अन्य स्वजनों से मिल पाते हैं। कुछ दिनों के लिए सही, दादी-नानी का आंगन बच्चों की शरारतों से गुलजार हो जाता है। पर पिछले कुछ सालों से इसमें भारी बदलाव देखने को मिला है।
दरअसल, यह प्रतियोगिता का युग है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसका बच्चा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दूसरे बच्चों से आगे रहे। माता-पिता की इसी मानसिकता का फायदा उठाया कुकुरमुत्तों की तरह उग आए निजी विद्यालयों, कोंचिग संस्थाओं और ट्यूशन केंद्रों ने। आजकल समर कैम्प, विंटर कैम्प, निदानात्मक और विशेष कक्षाओं के नाम पर बच्चों की छुट्टियां बस नाममात्र की रह गई हैं। बच्चों पर शिक्षा का अतिरिक्त बोझ लाद दिया गया। प्रतियोगिता की इस अंधी होड़ में अपना वजूद बचाने के लिए सरकारी विद्यालयों को भी इसमें कूदना पड़ा है।
मेरा मानना है कि दस-पंद्रह दिनों के लिए तो यह ठीक हो सकता है, पर पूरे अवकाश को ही इसमें खपा देना किसी भी दृष्टि से बच्चों और समाज के हित में नहीं। पहले ही आजकल बच्चे अपने बुजुर्गों से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में जो समय वे अपने बुजुर्गों के साथ बिता सकते हैं, वह भी उनसे छीन लेना उचित नहीं। बच्चों को प्रतियोगिताओं और जीवन के समर के लिए तो तैयार और उन्हें भली प्रकार शिक्षित किया जा सकता है, पर यह देखने में आता है कि एक शिक्षित व्यक्ति में भी उन जीवन मूल्यों और संस्कारों का अभाव होता है जो उसे देश और समाज का एक अच्छा नागरिक बनाते है।
आजकल कई बार पति-पत्नी दोनों ही नौकरीपेशा होते हैं। ऐसे में कभी पति को तो कभी पत्नी को अपने काम से फुरसत नहीं मिल पाती। अगर कभी दोनों अवकाश पा भी जाते हैं तो बच्चों की कक्षाओं से तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में गर्मी के अवकाश को लेकर सभी निश्चिंत होते हैं और अपनी योजनाएं बनाते हैं। बुजुर्गों को इस बात की आशा होती है कि गर्मी की छुट्टियां ही उनके सूने आंगन में बहार लेकर आएंगी।
जब उनके बच्चे उनकी आंखों के सामने होते हैं तो उनकी आंखें जीवन से भर उठती हैं। उनके झुर्रीदार चेहरों पर चमक देखते ही बनती है। अपने नाती-पोतों के साथ उनका अपना बचपन लौट आता है। पर जब विद्यालय छुट्टियों में भी खोल दिए जाते हैं तो सभी प्रकार की पारिवारिक और सामाजिक योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं और बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता और बुजुर्गों के चेहरों पर भी निराशा छा जाती है।
पिछले कुछ सालों में बच्चे एकाकीपन से भी ग्रसित हुए है और उन पर पढ़ाई का भी भयावह दबाव बना है। महामारी के दौर में बच्चे मोबाइल से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। ऐसे में अगर कुछ समय बच्चों को अपने बुजुर्गों और अन्य परिजनों के साथ रहने का अवसर मिलता है तो न केवल उनका एकाकीपन दूर होगा और वे पढ़ाई के भयावह दबाव से भी कुछ समय के लिए मुक्त होंगे।
देश में अलग-अलग शिक्षा विभागों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे अपना बचपन भी जी सकें। समर कैम्प या विशेष कक्षाओं के आयोजन का समय निश्चित हो, न कि अवकाश का पूरा समय ही इनमें लगा दिया जाए। माता-पिता से भी निवेदन है कि बच्चों को प्रतियोगिताओं में दौड़ने वाली कारें नहीं बनाएं। बच्चों को इतना समय दें कि वे अपने दादा-दादी, नाना-नानी का सूना आंगन कुछ समय के लिए महका सकें और उनके चेहरों पर मुस्कान ला सकें।