सरकारें तय करें कि पीड़ित को जल्द से जल्द न्याय मिले, गलत परंपरा लोकतंत्र के लिए घातक हो सकती है

शायद सबको स्मरण होगा कि जब दुर्दांत गैंगस्टर विकास दुबे पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था

Update: 2020-10-19 02:00 GMT
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। शायद सबको स्मरण होगा कि जब दुर्दांत गैंगस्टर विकास दुबे पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था तो किस तरह कुछ लोग और खासकर नेता यह कहने में जुट गए थे कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें चुन-चुनकर मारा जा रहा है। कई दलों के प्रवक्ता इस बारे में बढ़-चढ़कर बयान देने लगे। सोशल मीडिया पर भी ऐसी बातें पहले से ही हो रही थीं, बल्कि और बढ़ा-चढ़ाकर की जा रही थीं। कुल मिलाकर अपराध को भी जातिगत चश्मे से देखने में कोई कोताही नहीं की गई। जैसे ही हाथरस कांड हुआ, ऐसे ही लोग दलित हितैषी बनकर कोहराम मचाने लगे। उनकी ओर से यहां तक कहा गया कि दलित स्त्री से दुष्कर्म और किसी अन्य जाति की स्त्री के प्रति ऐसा अपराध अलग-अलग बातें हैं।

जाति के समीकरणों को चुनाव जीतने का अभूतपूर्व फॉर्मूला मान लिया गया

यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि दुष्कर्म, लूटपाट, हत्या, तस्करी, ड्रग्स आदि के अपराधियों और पीड़ितों की जाति तलाश कर उसमें भी अपने-अपने हितों का हिसाब लगाया जाए और इस क्रम में अपनी जाति के किसी अपराधी को अपराधी न बताकर दूसरों की तरफ अंगुलियां उठाई जाएं। जो लोग अक्सर इस देश में फैले जातिवाद को देखकर आंसू बहाते रहते हैं, वे इन दिनों कभी भी जातिवाद खत्म करने की बातें करते नहीं देखे जा रहे हैं, बल्कि हुआ तो यह है कि जाति के समीकरणों को चुनाव जीतने का अभूतपूर्व फॉर्मूला मान लिया गया है। कोई भी दल इससे मुक्त नहीं है और न ही मीडिया का बड़ा वर्ग, जो चुनावों तथा उसके बाद भी ऐसी ही बहसें चलाता है कि किस चुनाव क्षेत्र में कितने ब्राह्मण, कितने ओबीसी, कितने दलित, कितने अल्पसंख्यक हैं। चुनाव विशेषज्ञ भी इसी बात पर अपने फैसले सुनाते हैं। अगर ऐसे लोगों से कभी सवाल करो तो वे कहते हैं कि जाति देश की सच्चाई है। इससे आंखें नहीं फेरी जा सकतीं। सही बात है, तो फिर इस बात पर भाषण देते हुए आंसू बहाने की भी क्या जरूरत है?

अपराध बढ़ने पर चिंता की जाती है, लेकिन जैसे ही अपराधी दल में आता है, तो होता है स्वागत

जब जाति का झुनझुना बजाने से ही सारी सफलता मिलती है, तो इसके होने से इतना दुख मनाना कोरा नाटक ही है। अक्सर अपराध बढ़ने पर तो चिंता व्यक्त की जाती है, लेकिन जैसे ही कोई अपराधी अपने दल में आता है, उसका स्वागत फूल-माला पहनाकर किया जाता है। यही कारण है कि अपराधी बड़े-बड़े अपराध करके आतंक फैलाते हैं, दहशत का पर्याय बनते हैं और एक दिन उसी संसद में जा बैठते हैं, जो अपराधों के खिलाफ कानून बनाती है। क्या इसी तरह से अपराध को खत्म किया जा सकता है?

अधिकांश दल अपराधियों के सहारे ही चुनाव जीतते हैं

सच तो यह है कि अधिकांश दल अपराधियों के सहारे ही चुनाव जीतते हैं। वरना ऐसा क्यों है कि अपराध कम करने की जितनी बातें की जाती हैं, अपराध उतने ही बढ़ते जा रहे हैं। जाति तोड़ने और उसे मिटाने के लिए जितने विचार व्यक्त किए जाते हैं, जाति की समस्या उतनी ही बढ़ती जा रही है।

सरनेम से किसी समुदाय का विरोधी साबित कर देना, आखिर न्याय की यह कैसी परिभाषा

अपराधियों को जाति के आधार पर निरपराध सिद्ध करना और किसी के सरनेम मात्र को देखकर ही उसे किसी समुदाय का विरोधी साबित कर देना, आखिर न्याय की यह कैसी परिभाषा इन दिनों बन चली है। इन दिनों ये बातें तक की जाती हैं कि जब तक अपनी जाति का थानेदार न हो, वह अपराध को दर्ज नहीं करता। जब तक अपनी जाति का जज न हो, वह सही न्याय नहीं दे सकता। अब बस यही बात सुननी और शेष रह गई है कि अपनी ही जाति, धर्म का डॉक्टर ही उस जाति, धर्म के मरीजों का सही इलाज कर सकता है, वरना तो वह जाति की दुश्मनी निकालकर किसी मरीज को जान से मार देगा।

सरकारें भी उन्हीं मामलों का संज्ञान लेती जिनका शोर मीडिया में मचता है

मीडिया ट्रायल के इस दौर में यह भी हो गया है कि किसी भी जांच-परख से पहले एंकर इतना हल्ला मचाते हैं कि तमाम जांच एजेंसियां, न्यायालय और यहां तक कि महिला आयोग भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। महिला आयोग, सरकारें भी उन्हीं मामलों का संज्ञान लेती देखी जाती हैं, जिनका शोर मीडिया में मचता है, वरना तो किसी भी अपराध को रोज की आम बात मानकर भुला दिया जाता है। यह एक नया नॉर्मल बन चला है कि जिसकी जितनी तेज आवाज हो, धरना, प्रदर्शन तथा आग लगाने की ताकत हो, बस उसी मामले पर ध्यान दिया जाए, बाकि सबको भुला दिया जाए। तमाम तरह के विमर्शों ने इसे और बढ़ाया है।

क्या वाकई यही लोकतंत्र है, जहां जांच से पहले ही न्याय कर दिया जाए

जब न्याय मिले तो चुप्पी साध ली जाए और यदि फैसला मनमाफिक न हो, तो यह कहा जाए कि इसलिए न्याय नहीं मिला कि अदालतों में जाति, धर्म देखकर न्याय दिया जाता है। क्या वाकई यही लोकतंत्र है, जहां जांच से पहले ही न्याय कर दिया जाए, जो आरोपित है, उसे अपराधी बताकर सरेआम फांसी देने की मांग की जाए। सोशल मीडिया ने इस तरह की प्रवृत्ति को और बढ़ाया है, क्योंकि उसे करना तो कुछ है नहीं, सिर्फ अपनी राय देनी है और उस राय को सौ फीसद सही बताना है। किसी असहमति की कोई गुंजाइश नहीं। इस तरह से न्याय होने लगे, तो शायद कोई नहीं बचेगा। कोई भी किसी का नाम लगा देगा और उसे अपराधी मान लिया जाएगा और बिना किसी पुलिस, जांच और अदालत के लोग ही उसका फैसला करने लगेंगे। एक तरह से मॉब लिंचिंग सरीखी मांग जब बुद्धिजीवी भी करने लगें तो आश्चर्य होता है। सोचें कि आज भी कितनी महिलाओं को डायन, चुड़ैल कहने भर से मौत के घाट उतार दिया जाता है। किसी के चरित्र पर अंगुली उठाकर, अपनी पसंद से शादी या प्रेम करने पर मौत मिलती है।

सरकारें इस बात को तय करें कि पीड़ित को जल्द से जल्द न्याय मिले

आखिर लोगों में इतना धैर्य क्यों नहीं कि किसी को अपराधी बताने से पहले पूरी जांच-परख कर ली जाए? कोई कह सकता है कि कानून तो न्याय देता नहीं, देता भी है तो देर से। तब उसका क्या लाभ? फिर उस न्याय पर और प्रश्न खड़े किए जाते हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम ही नहीं, सरकारें इस बात को तय करें कि पीड़ित को जल्द से जल्द न्याय मिले। न कि लोग एंकरों की बात सुनकर, सड़क पर उतरकर न्याय करने लगें। इससे एक गलत परंपरा शुरू होगी, जो देश, समाज और लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगी।

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