मूर्तियों की राजनीति में फंसी सरकारों को फिर मिला झटका

मध्यप्रदेश हाईकोट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है

Update: 2022-03-08 14:35 GMT
मध्यप्रदेश हाईकोट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है. इसके मुताबिक सरकार को निर्देश दिया गया है कि प्रदेश में सडकों और चौराहों पर 2013 के बाद लगी ऐसी सारी प्रतिमाएं और अवैध ढांचे हटाए जाएं जो यातायात में बाधक बने हुए हैं. कोर्ट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का संदर्भ लिया है जिसमें सर्वोच्च अदालत ने 9 साल पहले सड़कों पर मूर्तियां लगाने और अवैध ढांचे स्‍थापित करने पर रोक लगा दी थी.
मध्‍यप्रदेश हाईकोर्ट का फैसला एक ऐसे घटनाक्रम से भी वास्‍ता रखता है जो मध्यप्रदेश की राजनीति से बहुत गहरे जुड़ा है. इस घटनाक्रम की जड़ में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के एक महत्वपूर्ण तिराहे पर करीब तीन साल पहले स्थापित की गई पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह की प्रतिमा है. अर्जुनसिंह मध्यप्रदेश के ही नहीं कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर के कद्दावर नेता थे. वे तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने और राजीव गांधी, पीवी नरसिंहराव व मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे. एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाता था.
भोपाल के व्यस्ततम इलाके न्यू मार्केट से सटे लिंक रोड नंबर एक के नानके तिराहे पर अर्जुनसिंह की प्रतिमा लगाई गई थी. लेकिन इस प्रतिमा को जिस जगह लगाया गया था, वहां 2016 तक शहीद चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा लगी थी और उसे वहां से इस आधार पर हटाकर किनारे कर दिया गया था कि इससे यातायात में बाधा पहुंचती है. करीब तीन साल तक वह जगह वैसे ही खाली पड़ी रही. 2019 में जब यहां भोपाल नगर निगम ने अर्जुनसिंह की प्रतिमा लगाई तो भारी बवाल हुआ और मामला कोर्ट तक पहुंच गया. इसका नतीजा यह हुआ कि उस तिराहे पर अर्जु‍नसिंह की प्रतिमा लग तो गई लेकिन उसका अनावरण नहीं हुआ और वह लंबे समय तक कपड़े से ढंकी रही.
उसके बाद राजनीतिक उठापटक और कोर्टबाजी के चलते इस प्रतिमा को किसी अन्य स्थान पर शिफ्ट करने की कवायद हुई और अंतत: नए भोपाल के ही एक अन्‍य इलाके में उसे स्थापित करने का फैसला हुआ. यह प्रतिमा अक्टूबर 2021 में अपने पूर्व स्थान से हटाकर उसी लिंक रोड नंबर एक के व्यापमं चौराहे पर खड़ी कर दी गई, लेकिन वहां भी विवादों के चलते लंबे समय से इसका अनावरण नहीं हो सका है और यह अब भी यहां कपड़े से ढंकी ही खड़ी है.
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के चलते यह मामला लंबे समय तक विवाद में रहा और जबलपुर निवासी ग्रीष्‍म जैन की चौराहों पर लगने वाली मूर्तियों के विरोध में दायर याचिका के चलते हाईकोर्ट तक पहुंच गया. हाल ही में जब अदालत का फैसला आया तो उसने वर्तमान शासन प्रशासन पर दोहरी मार की. एक तो हाईकोर्ट ने साफ कर दिया कि 2013 के बाद से प्रदेश में लगाई गई ऐसी सारी प्रतिमाएं हटाई जाएं जो यातायात में बाधक हों और दूसरे उसने कोर्ट को गलत जानकारी देने पर शासन/भोपाल नगर निगम पर 30 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया.
इस जुर्माने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्पत नहीं है. दरअसल नगर निगम प्रशासन भी प्रतिमा की स्थापना को लेकर राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार ही अपनी राय बदलता रहा. जब 2018 से पहले राज्य में भाजपा का शासन था तब उसकी राय कुछ और थी और 2018 में कमलनाथ के नेतृत्व में आई कांग्रेस सरकार के समय उसकी राय अलग हो गई. लेकिन कमलनाथ सरकार डेढ़ साल ही टिक सकी और फिर से भाजपा की सरकार आ गई तो प्रशासन की राय भी बदल गई. 2019 में भोपाल नगर निगम ने इस प्रतिमा को यातायात में बाधक नहीं बताया था लेकिन 2021 में उसने इसे बाधक बताया.
जब मामला कोर्ट में चल रहा था तब कमलनाथ सरकार के समय ही एक हलफनामा दाखिल कर प्रतिमा को नानके तिराहे से हटाकर अन्यत्र स्थापित करने की बात कह दी गई थी. और उसके चलते ही बाद में इस प्रतिमा को न्यू मार्केट इलाके से हटाकर व्यापमं चौराहे पर लाया गया था. मामले पर फैसला सुनाते समय हाईकोर्ट के जस्टिस शील नागू और जस्टिस पुरुषेंद्र कौरव की पीठ ने भोपाल नगर निगम के दोनों बयानों को संज्ञान में लेते हुए उन्हें विरोधाभासी पाया और इस पर खासी नाराजी जताते हुए 30 हजार रुपये का जुर्माना भी ठोक दिया. इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि सरकारी अधिकारियों को कानून का पालन करना चाहिए जो नहीं किया गया, बल्कि कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश की गई.
वैसे देखा जाए तो मूर्तियां खड़ी करने का यह सारा मामला राजनीतिक समीकरणों से जुड़ा है. देश का कोई भी शहर इस बीमारी से अछूता नहीं है. सड़कों या चौराहों पर देश के महापुरुषों से लेकर वोटों का गणित साधने वाले व्यक्तियों की प्रतिमाएं स्थापित करना या अन्‍यथा कारणों से धार्मिक ढांचे खड़े करना राजनीति का प्रिय शगल बन गया है. इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था जिसमें उसने केरल के एक प्रकरण के सिलसिले में कहा था कि यातायात में बाधक बनने वाली कोई भी प्रतिमा या कोई भी ढांचा सड़कों व चौराहों पर स्थापित न किया जाए.
सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस आरएम लोढा और जस्टिस एस.जे. मुखोपाध्याय ने जनवरी 2013 के अपने आदेश में कहा था कि अब समय आ गया है कि ऐसे सभी मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों के निर्माण और मूर्तियां स्थापित करने पर प्रतिबंध लगाया जाए, जो सड़कों से सटे सार्वजनिक स्थानों पर होते हैं, और जिनसे वाहनों की आवाजाही काफी हद तक प्रभावित होती है. हालांकि अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि उसका यह आदेश स्ट्रीट लाइट, मास्क लाइट या अन्य जनोपयोगी सेवाओं की स्थापना पर लागू नहीं होगा.
सड़कों पर बन गए ऐसे अनधिकृत धार्मिक ढांचों और मूर्तियों आदि के बारे में पीठ ने कहा था कि ऐसे निर्माण को एकदम से हटाना नगरीय निकायों के अधिकारियों या पुलिस के लिए आसान काम नहीं है. इसे देखते हुए ऐसे प्रयास इस तरह किए जाएं जिससे कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा न हो.
सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि "सार्वजनिक सड़क किसी की संपत्ति नहीं है. प्रत्येक नागरिक को सड़क का उपयोग करने का अधिकार है और मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे का निर्माण करके या किसी व्यक्ति की मूर्ति स्थापित करके उस अधिकार को बाधित या संकुचित नहीं किया जा सकता.''
केरल में तिरुवनंतपुरम से कन्याकुमारी हाईवे के एक व्यस्ततम चौराहे पर एक मूर्ति लगाने के फैसले को चुनौती देने वाली इस याचिका में याचिकाकर्ता ने कहा था कि विभिन्न शहरों, कस्बों में इसी तरह सड़कों पर अतिक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं. राज्य सरकार सड़कों पर अवैध अतिक्रमण को हटाने और महत्वपूर्ण मुख्य सड़कों के बीच या किनारे बने नए ढांचे को बनने से रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही है.
दरअसल देश का कोई भी शहर ऐसे अनधिकृत ढांचों के निर्माण और उनके जरिये होने वाले अवैध अतिक्रमण या उनके कारण होने वाली असुविधाओं से बच नहीं पाया है. हमारी सड़कें लगातार मनमाने अतिक्रमण का शिकार हो रही हैं. जो सड़कें यातायात और परिवहन के लिए हैं, उन पर कब्जा करके व्यापारिक या वाणिज्यिक गतिविधियां चलाई जा रही हैं. शहरों के भीतर अवैध गुमटियों, ठेलों और रेहडि़यों आदि के कारण सड़कें लगातार सिकुड़ती जा रही हैं और इससे आए दिन न सिर्फ ट्रैफिक जाम होता है बल्कि इस तरह किया जाने वाला अतिक्रमण दुर्घटनाओं और कानून व्यवस्था की समस्या का कारण भी बन रहा है.
देखना होगा कि नौ साल पहले सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए आदेश को एक बार फिर ताजा करने वाला मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का यह आदेश किस हद तक लागू हो पाता है. अदालतें तो अपना काम कर चुकी हैं लेकिन अब बाकी काम राजनीतिक इच्छाशक्ति और सरकारों को करना है. पर वे ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएंगी या नहीं, कहना मुश्किल है.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
गिरीश उपाध्याय पत्रकार, लेखक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. नई दुनिया के संपादक रह चुके हैं.
Tags:    

Similar News

-->