सरकारें पहले की तरह बेफिक्र हैं और राजनीतिक पार्टियां मजे में, आम आदमी हमेशा की तरह
कुछ साल से चुनावों में एक नया फैशन चला है
नवनीत गुर्जर का कॉलम:
चुनाव आखिर क्या है? बात चयन, नियुक्ति या पसंदगी की नहीं, इलेक्शन की है। चुनाव में सब कुछ है। चालें हैं। गणित हैं। समीकरण हैं। बग़ावत और चापलूसी भी है। नहीं होते हैं तो सिर्फ मुद्दे। हमारी परेशानियां, दुश्वारियां, न कोई दूर करना चाहता, न कोई ऐसी कोशिश करता हुआ दिखाई देता। कुछ साल से चुनावों में एक नया फैशन चला है। विकास। दरअसल, विकास इतना वेग शब्द है कि आम आदमी को कुछ समझ में नहीं आता।
वैसे भी चार किलोमीटर चलने के बाद जब उखड़ी हुई सड़क आती है तो सारा विकास धूल के साथ उड़ता नजर आता है। सरकार चाहे किसी की हो। सरपंच चाहे जो हो, और प्रधान चाहे जो भी हो! कहते हैं मप्र सरकार ने पंचायत चुनाव टाल दिए। कुछ सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषकों ने लंबी तान दी। देखिए कोरोना के पैर पसारते ही सरकार ने चुनाव टाल दिए।
अब रात में कोरोना कर्फ्यू लगाकर दिन में लंबी-चौड़ी रैली करने वाली सरकारें और पार्टियां, ओमिक्रॉन की धमक मात्र से चुनाव स्थगित कर दें तो अचरज तो होगा ही। घोर अचरज! फिर मध्यप्रदेश के कदम का आगे विश्लेषण करते हुए कुछ विश्लेषक यहां तक पहुंच गए कि भारतीय जनता पार्टी अपने पिछले कदमों से आगे के संकेत देती है।
यानी मध्यप्रदेश में पंचायत चुनाव स्थगित होने का संकेत यह भी हो सकता है कि कोरोना के भय से उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव भी स्थगित होने वाले हैं। बेचारे विश्लेषक! जितने मुंह। उतनी बातें। वे हो सकता है भूल गए हों या भूलने पर मजबूर किए गए हों कि मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण का कोई पेंच फंसा हुआ था। कोर्ट के आदेश के कारण सरकार की किरकिरी हो रही थी। कोरोना तो बहाना है।
चुनाव स्थगित कर सरकार और सरकार वाली पार्टी ने नए सिरे से मैदान में आने का कुछ ठाना है। ख़ैर, कोरोना और ठंड दोनों एक साथ बढ़ रहे हैं। सरकारें पहले की तरह बेफिक्र हैं और राजनीतिक पार्टियां मजे में। आम आदमी हमेशा की तरह बिना मास्क, बिना दूरी बनाए, शादियों- समारोहों की तैयारी में जुटा हुआ है। अगले मार्च तक क्या होगा, कोई नहीं जानता। अपने तंत्र और उसके तमाम तांत्रिकों के कारण सरकारें अगर कुछ जानती भी हैं तो वे अनजान बनी हुई हैं।
आम आदमी, यानी जिसके वोट पर ये सरकारें वजूद में आती हैं, उसकी किसी को चिंता नहीं है। होनी भी क्यों चाहिए! क्योंकि ये आम आदमी खुद अपनी चिंता नहीं करता! अब जो खुद ही अपनी सुरक्षा की परवाह न करे, उसकी परवाह दूसरा कोई क्यों करें भला! कुल मिलाकर, पूरे कुएं में भांग घुली है। कोई किसी की सुनना नहीं चाहता। कोई किसी की सलाह नहीं मानना चाहता और कोई किसी की चिंता नहीं करता।
ऐसे में याद आते हैं दुष्यंत कुमार… और उनकी ये पंक्तियां…
आज ये दीवार परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर शहर, हर गांव में, हाथ लहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिए।।
कोरोना और ठंड दोनों एक साथ बढ़ रहे हैं। सरकारें पहले की तरह बेफिक्र हैं। आम आदमी हमेशा की तरह बिना मास्क, बिना दूरी बनाए, शादियों- समारोहों की तैयारी में जुटा हुआ है।