दुनिया कभी भी समानांतर नहीं चल सकती, इसलिए सदियों ने भी खुद के भीतर ऊंच-नीच के मानदंड गुजार दिए और जो आज भी जारी हैं। अपनी-अपनी औकात और हिसाब से लोग खुद को छोटा या बड़ा मान लेते हैं। खोदे गए सारे पहाड़ आज भी उस चूहिया को नहीं पकड़ पाए और न ही समाज उसे खोज पाया जिसने पहाड़ से लेकर इनसान तक का जीना हराम किया हुआ है। हराम के चक्करों में लोग देवता बन गए। कइयों ने तो भ्रष्टाचार की जीती हुई बाजी लौटा दी ताकि कोई उन्हें हराम से न जोड़ दे। हमें चूहिया का आर्ट इसलिए पसंद है क्योंकि वह अपने वजूद को साबित करती हुई किसी भी पहाड़ की खुदाई करवा सकती है। कई दफ्तरों के गोलमाल साबित होने से पहले चूहिया ही तो काम आती है। इसलिए अब खोदा पहाड़ नहीं, ‘खोजा दफ्तर, तो निकली चूहिया’ का अर्थ जनता जानती है। अब चूहिया बदल गई है, लेकिन लोग बाग खुदाई कर रहे हैं ताकि कहीं तो कुछ मिले। हर दफ्तर, हर संस्थान और हर सरकार में कहीं तो कोई चूहा या चूहिया बैठे हैं।
जो खुदाई कर पाते हैं, वही तो मेहनती हैं। हैरानी तो यह कि जो खुदाई कर रहे हैं, उन्हें मेहनती नहीं माना जा रहा, बल्कि मेहनती वे हैं जिनकी मेहनत दिखाई नहीं, उगाही देती है। वैसे दिखाई तो भ्रष्टाचार भी नहीं देता, लेकिन इसके पीछे कहां कहां श्रम होता है, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। सदियों से मेहनत की भाषा ढूंढी जा रही है, लेकिन मेहनत वहां बोलती है जहां बिना पसीना बहाए कोई देश के श्रेय की खुदाई कर रहा है। बिना किसी पसीने के जो मंत्री बन जाए, असली मेहनत वहां है। मेहनत वहां है जहां कोई अपनी शर्म से भी श्रेय हासिल कर ले, यही आपदा में अवसर ढूंढने की मेहनत है। जो व्यक्ति आपदा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद, गिरोहवाद, जातिवाद और धर्म के विकार से न डरे, वह अवश्य ही मेहनती है। पुण्य कमाने की नालायकी को मेहनत मानें या गौर करें कि जो अदृश्य मेहनत से कमा लेने की करामात कर सकता है, उस बिचौलिए को अवतार मानें। बिचौलिया इस दुनिया का सबसे गोपनीय यथार्थ है। अपने रोजगार को गोपनीय बनाए रखना और गोपनीयता के साथ कमा लेना ही आज के युग की मेहनत है।
सोचिए अगर बिचौलिया न होता तो नासिक का प्याज कोई इतने सस्ते में खा पाता। यह बिचौलिया ही है जो देशी आलू को पोटेटो चिप्स में इंपोर्टिड और आयातित लहसुन को देशी बना सकता है। आज की शिक्षा स्कूल से गायब होकर अकादमी की ट्यूशन को चमका रही है, तो यह बिचौलिया अच्छा है। बिचौलिया दारू बेच रहा हो या हीरा, देश के माल में स्वदेशीकरण की हवा मिला रहा है। बिचौलिया होना टॉप क्लास हुनर है, इसलिए इस प्रोफेशन की सेक्रेसी कभी पश्चाताप नहीं करती, वरना दूसरे व्यवसाय में डूबे लोग खुद को कोसते मिल जाएंगे। मेहनत का बिचौलिया कितना सरल व सहज है, इसे कभी सेहत के विज्ञापन की इज्जत पर देखिए। हमें चमड़ी गोरी करनी है या अपने नजदीक सफेदपोश नेता को बुलाना है तो बिचौलिए की भूमिका को स्वीकार करना ही होगा। हमारे अपने घरों में रिश्ते-नातों और यहां तक कि बच्चों की शादी तक के लिए एक अदद बिचौलिया चाहिए। बिचौलिए हर युग में रहे हैं, लेकिन वर्तमान में बिचौलियों के कई स्तंभ हैं- पहला, दूजा, तीजा और अब तो चौथा स्तंभ भी इस रेस में शामिल हो गया है।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal