रूस-यूक्रेन तनाव के बीच शीत युद्ध के राजनीतिक दलदल में फंसी ग्लोबल पॉलिटिक्स
रूस-यूक्रेन तनाव के बीच शीत युद्ध
ज्योतिर्मय रॉय.
शीत युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के अंत में शुरू हुआ था और और 90 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ (Soviet Union) के पतन के साथ शीत युद्ध का अंत माना जाता है. लेकिन वर्तमान में वैश्वीकरण के कारण भू-राजनीति (Geopolitics) में आए परिवर्तनों ने फिर से विश्व को नए शीत युद्ध का एहसास करा दिया है. कई अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषक वर्तमान संदर्भ को द्वितीय शीत युद्ध की शुरुआत के रूप में संदर्भित करते हैं. शीत युद्ध के कारण बीसवीं शताब्दी में विश्व राजनीति में दो बड़े वैचारिक परिवर्तन हुए.
विश्व लोकतंत्र और समाजवाद दो गुटों में बंट गया. आधुनिक हथियारों और परमाणु हथियारों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा के साए में नाटो और वॉरसॉ जैसे नए सैन्य गठबंधन बनाए गए. समय के साथ, नाटो शक्ति की जवाबी संतुलन के रूप में मई 1955 में बनाई गई वॉरसॉ संधि को 1 जुलाई 1991 को समाप्त कर दिया गया, लेकिन आश्चर्यरूप से 1949 में स्थापित नाटो गठबंधन अभी भी जीवित है, और वर्तमान में, यही नाटो गठबंधन रूस-यूक्रेन संकट में सक्रिय रूप से भाग ले रहा है.
कोरियाई युद्ध ने दो विश्व शक्तियों को आमने-सामने ला दिया था
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, 1950 में कोरियाई युद्ध ने दो विश्व शक्तियों को आमने-सामने ला दिया था. मॉस्को ने उत्तर कोरिया का समर्थन करने और एक नए समाजवादी राज्य की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई है. दूसरी ओर, वाशिंगटन ने दक्षिण कोरिया में लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. साथ ही, दोनों देशों ने रक्षा समझौतों के माध्यम से आंतरिक और बाहरी सुरक्षा सुनिश्चित करना जारी रखा. संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में 26 जुलाई 1953 को युद्धविराम की घोषणा की गई थी. लेकिन सच यह है कि 70 साल के लंबे समय के बाद भी कोरियाई धरती पर स्थायी शांति स्थापित नहीं हो पाई है.
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि, कोरियाई धरती पर स्थायी शांति स्थापित करने में मुख्य बाधाओं में से संयुक्त राज्य अमेरिका एक है. दरअसल, दक्षिण कोरिया में अमेरिका का सैन्य अड्डा है. वहीं, किम जोंग उन प्रशासन कोरियाई सीमा पर वाशिंगटन की उपस्थिति और अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य अभ्यास को उत्तर कोरिया के खिलाफ युद्ध के प्रस्तुति के रूप में देखता है. हकीकत तो यह है की, उत्तर कोरिया सियोल से कई गुना अधिक वाशिंगटन को अपना शत्रु मानता है. परमाणु मुद्दे को लेकर वाशिंगटन ने उत्तर कोरिया पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं. कहा जाता है कि अमेरिका उत्तर कोरिया में शासन बदलना चाहता है. वास्तव में, जब तक दक्षिण कोरियाई सीमा पर अमेरिकी सैन्य उपस्थिति या सैन्य अभ्यास जारी रहेगा, कोरियाई प्रायद्वीप में स्थायी शांति की संभावनाएं कम हैं. सच तो यह है की, कोरियाई प्रायद्वीप में शांति लाने के लिए वाशिंगटन के दृष्टिकोण को बदलना महत्वपूर्ण है.
शीत युद्ध के दौरान, क्यूबा संकट एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने दुनिया की दो महाशक्तियों, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका को परमाणु युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया था. फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जुलाई 1953 में शुरू हुआ समाजवादी क्रांति, 1 जनवरी 1959 को समाप्त हुआ और क्यूबा में क्रान्तिकारी समाजवादी राष्ट्र की स्थापना हुई. लेकिन इसके साथ ही क्यूबा में संकट शुरू हुआ. संयुक्त राज्य अमेरिका के बहुत करीब, क्यूबा में समाजवाद के उदय को वाशिंगटन ने आसानी से स्वीकार नहीं किया, और संयुक्त राज्य अमेरिका ने नव स्थापित कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोहियों को प्रशिक्षण देना शुरू किया.
चीन आज अमेरिका का मुख्य प्रतिस्पर्धी बन गया है
लेकिन अमेरिका के योजना को विफल कर दिया गया था. अमेरिका को रोकने के लिए कास्त्रो प्रशासन ने तत्कालीन सोवियत संघ से संपर्क किया. समझौते के अनुसार, मास्को ने 1982 में हवाना में मिसाइलों को तैनात किया, जो अमेरिकी सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा था. इसके परिणाम स्वरूप, अमेरिका ने क्यूबा में हस्तक्षेप न करने का वादा किया और मास्को ने अपनी मिसाइलें वापस ले लीं. समय के साथ समाजवाद का प्रतीक सोवियत संघ बिखर गया लेकिन आज भी क्यूबा में समाजवाद जीवित है. हालांकि वाशिंगटन-हवाना संबंध आज भी सामान्य नहीं हो पाया है.
वाशिंगटन ने साठ और सत्तर के दशक में लंबे समय तक वियतनाम में सैन्य कार्रवाई की, लेकिन अमेरिका को इस युद्ध में अपेक्षित सफलता नहीं मिली. अंततः 1973 में, वाशिंगटन को युद्ध को समाप्त करने के लिए एक शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. परिणामस्वरूप, 1968 में वियतनाम में समाजवादी शासन की स्थापना हुई. संयुक्त राज्य अमेरिका का तथाकथित लोकतांत्रिक नारा वियतनाम में अप्रभावी रहा है. दूसरी ओर, शीत युद्ध के अंतिम दशक में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में सोवियत समर्थक बारबाक कार्मेल सरकार को सत्ता में बनाए रखने के लिए अफगानिस्तान पर सैन्य कार्रवाई की गई.
लेकिन मास्को भी इसमें सफल नहीं हो सका. अफगानिस्तान में युद्ध में एक असफलता के बाद 1988 में गोर्बाचेव सरकार को अपने सैनिकों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. केवल तीन साल बाद, दिसंबर 1991 में, सोवियत संघ ताश के पत्तों की तरह ढह गया. अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि सोवियत संघ के पतन के लिए अफगान युद्ध की विफलता काफी हद तक जिम्मेदार है. हैरानी की बात है कि शीत युद्ध के दौरान चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच लंबे समय तक सौहार्दपूर्ण संबंध रहे. लेकिन समय के साथ चीन आज अमेरिका का मुख्य प्रतिस्पर्धी बन गया है.
अमेरिका ने लोकतंत्र और मानवाधिकारों को विश्व राजनीति का मुख्य हथियार बनाया
नब्बे के दशक की शुरुआत में शीत युद्ध समाप्त हुआ. लेकिन वर्तमान इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में शीत युद्ध एक नए रूप में लौट आया है. वर्तमान संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए मुख्य चुनौती रूस की सैन्य शक्ति को बाधित करने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से चीन की अदम्य अर्थव्यवस्था की प्रगति को रोकना है. इक्कीसवीं सदी की विश्व राजनीति काफी हद तक द्वि-ध्रुवीकृत है. करीब से देखने पर पता चलता है कि सोवियत संघ के पतन और 2015 में 'अरब स्प्रिंग' के बाद से मास्को सीरियाई सरकार के साथ सहयोग कर रहा है. रूस के सहयोग से युद्धग्रस्त सीरिया में बशर अल-असद चौथी बार राष्ट्रपति चुने गए, जिसे मास्को के लिए एक बड़ी सैन्य उपलब्धि माना जाता है. हालांकि देश अभी भी गृहयुद्ध की चपेट में है, लेकिन सरकार के गिरने की कोई संभावना नहीं है. इससे पहले, 2014 में, रूसी सेना ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था.
वर्तमान में दुनिया की महाशक्तियों के एक दूसरे के खिलाफ सीधे युद्ध में शामिल होने की संभावना कम है. बीसवीं या इक्कीसवीं सदी में प्रत्यक्ष युद्धों में शामिल महाशक्तियों को अंततः पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. अमेरिका के नेतृत्व वाले त्रिपक्षीय अकास समझौते, या जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच रक्षा समझौते का उद्देश्य एशिया में चीन के प्रभुत्व को रोकना है. दूसरी ओर, यूरोप में रूस की सैन्य आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका नाटो का उपयोग करेगा. वर्तमान में यूक्रेन और रूस की सीमाओं पर तनाव बढ़ गया है. मास्को पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि रूस यूक्रेन की सीमा पर नाटो की उपस्थिति को स्वीकार नहीं करेगा. हालांकि तनाव को कम करने के लिए राजनयिक प्रयास जारी हैं, लेकिन अभी तक कोई भी पक्ष आम सहमति तक नहीं पहुंच पाया है.
बीजिंग और मास्को के बीच मौजूदा संबंध पहले से कहीं ज्यादा बेहतर हैं
निस्संदेह, बीजिंग और मास्को के बीच मौजूदा संबंध पहले से कहीं ज्यादा बेहतर हैं. चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. बीजिंग की अर्थव्यवस्था 16 ट्रिलियन से अधिक मूल्य की है. दूसरी ओर, मास्को सैन्य रूप से बेजोड़ है. विश्लेषकों का कहना है कि चीन के उदय को रोकने के लिए पश्चिमी राष्ट्र दो रणनीतियां अपना रहे हैं. पहला उइगर मुसलमानों पर मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगाते हुए चीन पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना है. दूसरा, ताइवान के साथ दोस्ती बनाना. साथ ही परोक्ष रूप से चीन के खिलाफ सैन्य और आर्थिक गठजोड़ बनाना. पश्चिमी दुनिया पहले ही उस रणनीति को काफी हद तक लागू कर चुकी है. संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम सहित कई देशों ने मानवाधिकारों के हनन पर प्रतिबंधों को लेकर इस साल बीजिंग ओलंपिक में राजनयिकों को नहीं भेजने का फैसला किया था. हालांकि, सवाल यह है कि इस कदम से बीजिंग को कितना नुकसान हुआ है!
दूसरी ओर, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पश्चिमी दुनिया रूस के लोकतांत्रिक और सैन्य आक्रमण के खिलाफ कार्रवाई करना जारी रखेगी. संयुक्त राज्य अमेरिका 21वीं सदी की विश्व राजनीति में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के मुद्दे को तुरुप के इक्के के रूप में इस्तेमाल करेगा. अमेरिका के लिए मुख्य चुनौती परोक्ष रूप से बीजिंग और मॉस्को का दमन करना है. 2024 तक विश्व के अधिकतर लोकतंत्र राष्ट्रों में चुनाव होना है. इस दौरान विश्व में राजनीतिक तनाव और तकरार बढ़ेगा. अब यह देखना बाकी है कि शीत युद्ध की राजनीति चीन, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ-साथ पश्चिमी दुनिया के बीच कितनी दूर तक फैल सकती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)