धर्म, रिलीजन, पंथ और मजहब एक नहीं। पंथ, मजहब और रिलीजन विश्वास हैं। सबके एक-एक देवदूत हैं और सबके एक-एक पवित्र ग्रंथ हैं। उनके कथन मानना अनिवार्य है। न मानने पर दंड की व्यवस्था है। उनकी मान्यताओं पर तर्क नहीं होते। धर्म भारतीय जीवनशैली की आचार संहिता है। यह किसी देवदूत की उद्घोषणा नहीं है। धर्म का न एक आस्था ग्रंथ है और न एक देवदूत। इसका सतत विकास हुआ है। वैदिक काल में पूर्वजों ने प्रकृति की शक्तियों में नियमबद्धता देखी थी। जल प्रवाह ऊपर से नीचे प्रवाहमान है और अग्नि नीचे से ऊपर। वसंत, हेमंत, शिशिर और मेघ नियमबद्ध हैं। पूर्वजों ने प्रकृति के इस संविधान को 'ऋत' कहा। ऋग्वेद के वरुण, धर्म-अनुशासन के देवता हैं। धरती आकाश इन्हीं के नियमों से धारण किए गए हैं-वरुणस्य धर्मणा। प्राकृतिक नियम धारण करना धर्म है। वैदिक साहित्य में ऋत और धर्म पर्यायवाची हैं। ऋत कर्म बनता है, तब धर्म बनता है। प्रकृति की सभी शक्तियां ऋत का पालन करती हैं। मनुष्य का आचरण भी नियमबद्ध होना चाहिए। ऋत सत्य है। सत्य का अनुसरण धर्म है। कालक्रम में धर्म में बहुत कुछ जुड़ता रहा। धर्म जड़ नहीं। गतिशील आचार संहिता है।
धर्म में आस्था और विश्वास से भी संवाद की परंपरा है। परंपरा वैदिक ऋषियों ने दी। उत्तर वैदिक काल में नई परंपराएं जुड़ीं। आस्था और धर्म से संवाद जारी रहा। गीता आस्था और विश्वास से संवाद का ग्रंथ है। गीता के चौथे अध्याय में प्राचीन ज्ञान परंपरा का उल्लेख है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि 'प्राचीन काल में मैंने यह ज्ञान सूर्य को दिया था, लेकिन कालक्रम में यह ज्ञान नष्ट हो गया।' वह कहते हैं कि जब धर्म का पराभव होता है, तब अव्यवस्था आती है और धर्म की स्थापना के लिए ही मैं बार-बार प्रकट होता हूं। गीता में ज्ञान योग है, कर्म योग है। संसार को सुंदर बनाने की अभिलाषा है। महाभारत युद्ध में परिजनों को युद्ध तत्पर देखकर अर्जुन को विषाद हुआ। वह पलायन को कर्तव्य समझ रहा था। कर्म विमुख हो रहा था। सो गीता में अर्जुन के प्रश्न हैं। जीवन की समस्याओं के समाधान हैं। माक्र्सवादी डीडी कोसांबी ने लिखा, 'क्या कोई संस्कृत कृति नहीं थी, जिसने भारतीय चरित्र को उसी प्रकार आकारित किया, जिस प्रकार सर्वतीज डान क्विजोत ने स्पेनी विद्वानों को प्रभावित किया है। एक पुस्तक काफी हद तक इसी कोटि की है। वह गीता है।' बंगाल में चाल्र्स विल्किंस ने गीता का अनुवाद किया। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने प्रशंसा की। जर्मन भाष्यकार जेडब्ल्यू होवर ने लिखा, 'यह सब कालों में सब प्रकार के सार्वजनिक जीवन के लिए प्रामाणिक है।'
हिंदुओं का कुरान और बाइबल जैसा कोई एक आस्था ग्रंथ नहीं है। डा. आंबेडकर ने इस पहलू पर चिंता व्यक्त की थी। गीता में प्रश्न-प्रतिप्रश्न हैं। तर्क और प्रतितर्क हैं। गीता का तत्व ज्ञान कर्तव्य पालन के लिए है। उपनिषद गीता से बहुत प्राचीन है। उनमें भी तत्वदर्शन है। कठोपनिषद के यम, नचिकेता से कहते हैं-उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। उठो, जागो, वरिष्ठों से बोध पाओ। गीता में कृष्ण भी अर्जुन को कठोपनिषद वाली भाषा में उत्तिष्ठ अर्थात उठो कहते हैं, पर दोनों उत्तिष्ठ अलग हैं। श्रीकृष्ण तत्व ज्ञान देने के बाद कहते हैं, 'उत्तिष्ठ, यशो लभस्व अर्थात उठो, यश प्राप्त करो और राज्य भोगो।' गीता के तत्व ज्ञान का उपयोग लोक मंगलकारी है।
असल में सारी कठिनाइयां एक से अनेक धर्म मानने की हैं। लोग हिंदू, इस्लाम और ईसाइयत को धर्म कहते हैं। ईसाई और इस्लाम धर्म नहीं हैं। धर्म एक है। स्वयंपूर्ण है। प्राकृतिक है। सतत विकासशील है। अंधविश्वास से मुक्त है। गांधी जी परिपूर्ण धार्मिक थे। उन्होंने धार्मिक आदर्शों के अनुरूप 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' कहा था, लेकिन इस्लाम अल्लाह के अलावा किसी को ईश्वर नहीं मानता। गांधी जी की बात इस्लाम अनुयायी नहीं मान पाए। भारतीय राजनीति में भी सभी धर्म समान कहे जाते हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं है। धर्म एक है और वह अन्य पंथों से तुलनीय नहीं है। गीता निष्काम कर्म योग का ग्रंथ है। गीता में ऋग्वेद के विराट पुरुष का विश्वरूप है। उसमें सबके लिए उपयोगी विषयों का भी विवेचन है। ज्ञान और बुद्धि की प्रतिष्ठा है। आहार के गुणधर्म की अर्थपूर्ण चर्चा है।
गीता के अनुसार सभी कर्म यज्ञ हैं। जीवन में श्रद्धा की महत्ता है। इससे अवसाद नहीं होता। गीता में स्वाध्याय महान तप है। कर्तव्य भावना से युक्त प्रतिफल न पाने की आशा में सुप्राप्य को दिया गया सहयोग सात्विक है। गीता में वैज्ञानिक विवेक है। सार-असार और संसार को समझने वाली बुद्धि है। वेदांत और व्यवस्थित योग दर्शन है। प्रेम परिपूर्ण भक्ति है। भरा-पूरा भौतिकवाद है। कर्म सिद्धि के सूत्र हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि सांख्य के अनुसार कर्म की सिद्धि के पांच कारण अधिष्ठान, कर्ता, साधन, प्रयास और दैव हैं। पांचवां कारण दैव है। यह ईश्वर या विधाता नहीं है। समस्त ब्रह्मांडीय शक्तियों की अनुकूलता या प्रतिकूलता दैव है। गीता में उसकी मान्यताओं के मानने पर जबरदस्ती नहीं। सारा जोर जानने पर है। रिलीजन, मजहब का जोर विश्वासी होने पर है। अविश्वासी दंडनीय है। ऐसे में गीता की तुलना रिलीजन या मजहब से नहीं हो सकती।