विकास की बुनियाद

अर्थव्यवस्था की मजबूती और नागरिकों की खुशहाली का मानक सतत विकास को माना जाता है। यह पूरी दुनिया के सामने चुनौती है कि कैसे वे अपने यहां सतत विकास प्रक्रिया को गतिशील रख सकें।

Update: 2022-03-03 03:50 GMT

Written by जनसत्ता: अर्थव्यवस्था की मजबूती और नागरिकों की खुशहाली का मानक सतत विकास को माना जाता है। यह पूरी दुनिया के सामने चुनौती है कि कैसे वे अपने यहां सतत विकास प्रक्रिया को गतिशील रख सकें। इस मामले में भारत की स्थिति यह है कि भले वह दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में खुद को शुमार करता हो, पांच खरब डालर वाली अर्थव्यवस्था बनने का दम भरता हो, पर हकीकत यह है कि सतत विकास के पैमाने पर वह निरंतर पिछड़ रहा है। एक सौ बानबे देशों के मूल्यांकन वर्ग में पिछले साल यह एक सौ सत्रहवें स्थान पर था।

अब वहां से तीन पायदान नीचे उतर कर एक सौ बीसवें स्थान पर पहुंच गया है। यह आंकड़ा खुद सरकार के पर्यावरण मंत्री ने जारी किया है। सरकार ने माना है कि मुख्य रूप से ग्यारह सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त न कर पाने की वजह से भारत तीन पायदान नीचे गिर गया है। अर्थव्यवस्था के मामले में बहुत पीछे माने जाने वाले भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान और नेपाल भी इस पैमाने पर उससे बहुत आगे हैं। राज्यों के स्तर पर देखें तो दक्षिण के राज्यों और गोवा को छोड़ कर भारत के कई राज्य फिसड््डी साबित हुए हैं।

सतत विकास लक्ष्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य, शहरी विकास, भूख, लैंगिक समानता और खुशहाली जैसे बिंदुओं पर देशों की तरक्की नापी जाती है। इन बिंदुओं पर भारत की स्थिति बहुत खराब है। छिपी बात नहीं है कि शिक्षा के मामले में सार्वजनिक व्यय लगातार घटता गया है। इसके चलते निजी शिक्षण संस्थानों का जाल सघन हुआ है, जहां शिक्षा काफी महंगी है और उस तक सबकी पहुंच संभव नहीं है।

इसके चलते शिक्षा का अधिकार कानून होने के बावजूद बहुत सारे बच्चे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करना तो दूर, एक प्रकार से निरक्षर ही रह जाते हैं। बहुत सारे बच्चे दसवीं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाते। यही हाल स्वास्थ्य का है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर उचित ध्यान न दिए जा सकने की वजह से गरीब तबके के लाखों लोग हर साल समय पर इलाज न मिल पाने के चलते काल के गाल में समा जाते हैं। इन दोनों क्षेत्रों में सुधार की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है, मगर सरकारें बड़े-बड़े वादे तो करती हैं, पर वास्तव में इसके लिए जरूरी धन का आबंटन नहीं कर पातीं।

शहरी विकास को लेकर पिछले कुछ सालों में खूब दावे किए गए, सौ स्मार्ट शहर बनाने की महत्त्वाकांक्षी योजना भी प्रस्तावित की गई, मगर भारतीय शहरों की हकीकत तब सामने आ जाती है, जब सामान्य से कुछ अधिक बारिश हो जाती या मौसम की मार पड़ती है। महानगरों की सार्वजनिक परिवहन सेवाएं आबादी का बोझ उठा पाने में विफल साबित होती हैं।

शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल, आवागमन की सुविधाएं आदि नागरिकों की बुनियादी जरूरत हैं। जब सरकारें इनसे संबंधित लक्ष्यों तक पहुंचने में विफल साबित हो रही हैं तो नागरिकों की खुशहाली को लेकर कोई दावा भला कैसे किया जा सकता है। भूख और बेरोजगारी का आलम यह है कि केंद्र सरकार खुद दावा करती है कि वह अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांट रही है। जिस देश की इतनी बड़ी आबादी मुफ्त राशन पर निर्भर हो, उसकी खुशहाली दिवास्वप्न जैसी ही लगती है। ये स्थितियां केवल कोरोना काल की देन नहीं हैं। योजनाओं को लेकर अदूरदर्शिता और उनके क्रियान्वयन में प्रबंधन की नाकामी का नतीजा हैं।


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