यूरोपीय देशों में 25 वर्षों में पहली बार ऐसी महंगाई है, अमेरिका में यह पीक पर
यूरोपीय देशों में 25 वर्षों में पहली बार ऐसी महंगाई
हरिवंश का कॉलम:
कोरोना -ओमिक्रॉन के गर्भ से निकली महंगाई दुनिया के विकसित देशों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने अपनी एक रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि 1982 के बाद महंगाई का बड़ा असर अमेरिका में हुआ है। वे यह भी उल्लेख करते हैं कि कुछ लोग जो बाजार समझने में दक्ष हैं या जिन्होंने वर्षों से अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया है, आज नहीं जानते कि मुद्रास्फीति तय कैसे होती है?
फिर उन्होंने सहज और सरल भाषा में पाठकों को महंगाई की बुनियादी जानकारी दी है। सामान्य अर्थ में बताया है कि आपका डॉलर जितना आज खरीद सकता है, उतना कल नहीं। यह अंतर महंगाई को स्पष्ट करता है। 'ब्लूमबर्ग' बताता है कि चार दशकों (39 वर्ष) में अमेरिका में महंगाई सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच चुकी है। 'फोर्ब्स' का भी यह आकलन है। 1992 के बाद से ही जर्मनी ने ऐसी महंगाई नहीं देखी है। यूरो क्षेत्र के देश 25 वर्षों में पहली बार ऐसी महंगाई भुगत रहे हैं। ब्रिटेन ने 30 वर्षों में ऐसी महंगाई नहीं देखी।
हालांकि तथ्य यह भी है कि इनमें से कई विकसित मुल्कों ने अपने देश में बड़े-बड़े राहत पैकेज भी दिए हैं। फिर भी वे महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख सके हैं। पश्चिम के देशों की आबादी कम है। दशकों से वे विकसित मुल्क हैं। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। फिर भी कोरोना और ओमिक्रॉन के घातक प्रभाव से उनके यहां भी असाधारण परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि इन देशों में दुनिया के बड़े अर्थशास्त्री, नीति बनाने वाले और प्रबंधन के श्रेष्ठ जानकार रहते हैं। ये विकसित मुल्क ही प्रतिभा, विज़न और श्रेष्ठ कार्यक्षमता के प्रतीक माने जाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इन्हीं मुल्कों ने दुनिया को रास्ता दिखाने-बताने और ज्ञान देने का काम भी किया है। पीटर ड्रकर जैसे प्रबंधन विशेषज्ञ के बाद, पश्चिम ने ही श्रेष्ठ प्रबंधन कौशल से अर्थ, उद्योग, रक्षा, मैन्युफैक्चरिंग यानी जीवन के हर क्षेत्र को श्रेष्ठ बनाने की रणनीति दी है। हालांकि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद प्रबंधन कौशल और संकल्प से जापान ने आर्थिक विकास की जो इबारत लिखी, वह भी प्रेरक है।
पर अब तक की दुनिया की सबसे बड़ी महामारी कोरोना-ओमिक्रॉन के मुकाबले के लिए उनकी विशेषज्ञता, ज्ञान-संसार और सामर्थ्य भी कमजोर साबित हुए हैं। इन विकसित और सामर्थ्यवान मुल्कों की तुलना में भारत ने इस महाविपदा का सामना कैसे किया? इस महामारी के कारण जीडीपी में भारत का नुकसान 9.57 लाख करोड़ रहा है। इसके पहले वैश्विक स्तर के जो अन्य संकट भारत में आए, उनका क्या असर रहा?
हालांकि पहले के ये संकट इस कोरोना-ओमिक्राॅन महाविपदा की तुलना में बहुत मामूली थे। 2008-09 में वैश्विक वित्तीय संकट से भारत के जीडीपी को 2.12 लाख करोड़ का नुकसान हुआ था। तब भारत में महंगाई 9.1 फीसदी पहुंच गई थी। इस बार का अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट संसार के लिए बहुत बड़ा है, फिर भी भारत ने अपनी महंगाई 6.2 फीसदी पर रोक रखी है। यह अर्थ-प्रबंधन का उल्लेखनीय पहलू है।
1979-80 में इराक युद्ध के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का संकुचन 5.2 फीसदी था। 1972-73 में वैश्विक तेल संकट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का संकुचन 0.6 फीसदी हुआ। इस बार के महासंकट में भारतीय अर्थव्यवस्था का संकुचन -6.6 था। इसके बावजूद दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले भारत ने अपना अर्थ प्रबंधन श्रेष्ठ रूप से किया है। हालांकि खाद्य तेल और दालों की कमी समेत कई चीजों की जरूरत आज भी देश में चुनौती है।
हालांकि यह दौर ग्लोबल दुनिया का है। दुनिया आर्थिक कामकाज, व्यापार, लेन-देन में एक सूत्र में बंध चुकी है। इसलिए एक का असर दूसरे पर अपरिहार्य है। ज्ञात इतिहास की इस सबसे बड़ी मानव विपत्ति ने लोगों को घरों में स्वतः कैद कर दिया। घर में भी स्वजन एक-दूसरे से न मिल सके, प्रकृति की ताकत ने वे दिन भी दिखाए। सप्लाई चेन अचानक ठप पड़ गई। उत्पादन से लेकर हर कामकाज बंद हो गया। तब के महासंकट के दौरान भारतीय अर्थ-प्रबंधन का यह उल्लेखनीय पक्ष देश को जानना चाहिए।
वो और हम
कई विकसित मुल्कों ने बड़े राहत पैकेज दिए, फिर भी वे महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख सके हैं। पश्चिम के देशों की आबादी कम है। दशकों से वे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। फिर भी कोरोना से उनके यहां भी असाधारण परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हैं। जबकि भारत का अर्थ-प्रबंधन उनकी तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध हुआ है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)