राजनीतिक शुचिता के लिए

देश भर के विधायी सदनों में बैठे कुछ माननीयों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला नैसर्गिक न्याय के अनुरूप तो है ही, उम्मीद है,

Update: 2021-08-11 03:36 GMT

देश भर के विधायी सदनों में बैठे कुछ माननीयों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला नैसर्गिक न्याय के अनुरूप तो है ही, उम्मीद है, राजनीति और अपराध के गठजोड़ की चूलें भी इससे हिलेंगी। आला अदालत ने साफ कर दिया है कि हाईकोर्ट की इजाजत के बिना राज्य सरकारें सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमे वापस नहीं ले सकतीं। प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने न्याय-मित्र विजय हंसारिया की रिपोर्ट के आलोक में यह फैसला सुनाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ राज्यों की सरकारें अपने दल के सांसदों-विधायकों के खिलाफ कायम ऐसे मामले वापस लेने की कोशिश में जुटी हैं। इस मामले में शीर्ष अदालत की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल से कहा है कि वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के ऐसे तमाम मामले फौरन संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाएं।

यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि देश में दशकों से राजनीति को अपराध मुक्त बनाने को लेकर विमर्श जारी है। बढ़ते जन-दबावों और न्यायिक सख्ती को देखते हुए कुछ कानून भी बने। सजायाफ्ता लोगों को चुनावी राजनीति से तय अवधि के लिए बाहर करने के विधान ने कुछ सांसदों-विधायकों पर सत्ता-सदनों के पट बंद भी किए। लेकिन राजनीतिक दलों के चरित्र में इससे कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया। उल्टे कुरसी से वंचित हुए चंद जन-प्रतिनिधियों के मुकाबले संसद और विधानसभाओं में दागी लोगों की आमद पहले से बढ़ गई। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में ही 43 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह कोई सुखद तस्वीर नहीं है और इसके लिए किसी एक पार्टी या नेता को दोषी ठहराया नहीं जा सकता। तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी कथनी और करनी के फर्क से इस समस्या को गंभीर बनाया है। निस्संदेह, इनमें से कई मामले विद्वेष प्रेरित या राजनीतिक रंजिश की उपज होंगे, लेकिन यह भी तय करने का अख्तियार अदालतों के पास है। नैसर्गिक न्याय के लिहाज से उनके पास ही होना चाहिए। कोई राज्य सरकार ऐसे मामलों में न्यायिक भूमिका कैसे अपना सकती है, जिनके कानून-व्यवस्था के लिहाज से गहरे निहितार्थ हों? इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की यह पहल भी स्वागत योग्य है कि ऐसे मामलों के त्वरित निपटारे की निगरानी के लिए वह एक विशेष पीठ गठित करेगा। सरकारों की राजनीतिक पक्षधरता ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि कई सारे लोग असामाजिक कृत्य को ही राजनीतिक सफलता की सीढ़ी मानने लगे हैं। उद्दंड, अराजक लोगों को पुरस्कृत करने की राजनीति लोकतंत्र के लिए ही नहीं, समूचे सामाजिक ताने-बाने के लिए चुनौती बन चली है। ऐसे में, विधायी सदनों के सदस्यों के खिलाफ चल रहे मामलों का जितनी तेजी से निपटारा होगा, राजनीतिक पार्टियों पर सही उम्मीदवारों के चयन का उतना ही दबाव बढे़गा। उनसे अपने तईं ऐसी पहल की उम्मीद बेमानी है, क्योंकि उनके लिए सिर्फ जीत महत्वपूर्ण है। आशा है, सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आजादी की हीरक जयंती मनाने जा रहे देश के लिए एक अहम मोड़ साबित होगा।


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