खाना डिलीवर करने वाली कंपनी ज़ोमैटो (Zomato) ने ऐलान किया है
खाना डिलीवर करने वाली कंपनी ज़ोमैटो (Zomato) ने ऐलान किया है कि वो ऑर्डर करने के 10 मिनट में आपके पास खाना डिलीवर (10 Minute Delivery) कर देंगे
अनिमेष मुखर्जी
खाना डिलीवर करने वाली कंपनी ज़ोमैटो (Zomato) ने ऐलान किया है कि वो ऑर्डर करने के 10 मिनट में आपके पास खाना डिलीवर (10 Minute Delivery) कर देंगे. इसके बाद सोशल मीडिया (Social Media) पर हर तरीके से प्रतिक्रिया देखी गई. लोगों ने मीम बनाए. डिलीवर करने वालों की ज़िंदगी खतरे में डालने की बातें कहीं गई. तमाम राज्यों की पुलिस ने भी कहा कि अगर ट्रैफ़िक के नियम तोड़े गए, तो कार्रवाई होगी. तकनीकी तौर पर उत्साही लोगों ने डेटा गोल्ड माइन और डार्क हाउस जैसे शब्दों के साथ बाकी जनता का मज़ाक भी उड़ाया. इन सबके बीच में ज़ोमैटो अपनी स्थिति पर कायम है.
उसका कहना है कि किसी डिलीवरी वाले को नुकसान नहीं पहुंचेगा, सारा काम डेटा और एफिशिएंसी के आधार पर होगा. वैसे, ज़ोमैटो के लिए यह फैसला तुरुप का इक्का चलने जैसा है. फूड डिलीवरी के खेल में भारत में ज़ोमैटो और स्विगी दो ही कंपनियां हैं. अगर ज़ोमैटो का यह दांव चल गया, तो उसके लिए मार्केट में सीधी बढ़त वाला हिसाब होगा. अगर फ़ेल हुआ, तो साख मिट्टी में मिलेगी. साथ ही, पहले से नीचे चल रहे ज़ोमैटो के शेयर पर भी इसका असर पड़ेगा. इन सबके बीच जानते हैं कि किस तरह से ज़ोमैटो 10 मिनट में खाना डिलीवर कर सकता है और कैसें 20 मिनट में पकने वाला पिज़्ज़ा कुल 30 मिनट में आपके घर पर आ जाता है. वो साल 1970 था
आधा घंटा नहीं तो फ्री
भारत में कंप्यूटर और सूचना प्रॉद्योगिकी की क्रांति के बारे में चाहे जितनी भी बात हो, चंपकलाल चौकसी का नाम कभी नहीं लिया जाता. चंपकलाल जैसे ओल्ड फैशन नाम वाले एक व्यापारी ने कॉर्पोरेट इतिहास में वो काम किया है जिसे एमेज़ॉन और ज़ोमैटो दशकों बाद कर रहे हैं. चौकसी ने एक कंपनी की स्थापना की जिसे 'एशियन पेंट्स' कहते हैं. चंपकलाल जी ने 1970 में 8 करोड़ रुपए चुकाकर भारत का पहला सुपर कंप्यूटर खरीदा. ये इसरो और आईआईटी में सुपर कंप्यूटर आने से 10 साल पहले की घटना थी. तब से लेकर अब तक एशियन पेंट्स, कहां कितना पेंट खरीदा गया, किस इलाके में कौन सा रंग बिकता है, किस मात्रा में बिकता है जैसा डेटा जमा कर रही है.
आज की तारीख में एशियन पेंट्स डीलर से ऑर्डर नहीं लेती कि इस रंग की डिमांड आएगी. वे अपने डेटा के आधार पर रंग भेजते हैं कि फलां मात्रा में फलां पेंट मांगा जाएगा. दिन में तीन बार डिलीवरी होती है और कच्चा माल आने से लेकर पेंट बिककर पेमेंट आने में कुल 8 दिन लगते हैं. जितना माल बिकता है, उतना ज़्यादा डेटा आता है. उस डेटा से और माल बिकता है और मुनाफा बढ़ता जाता है. कहने का मतलब यह है कि सुपर कंप्यूटर और दशकों के डेटा से कंपनी बता सकती है कि आपके मोहल्ले में इस दिवाली नारंगी पेंट होगा या हरा. कंपनियों को इसका कितना फ़ायदा मिला, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए जान लें कि एशियन पेंट्स शेयर मार्केट में 1982 से अब तक 1800 गुना रिटर्न दे चुकी है. सन 2000 में अगर आपने इस कंपनी में 10,000 लगाए थे, तो अब तक रकम 20 लाख के पार निकल चुकी होगी.
हमारी बातचीत का मुद्दा रंग नहीं स्वाद है, तो वापस खाने की डिलीवरी पर आते हैं और घर तक खाना पहुचाने में एक ही नाम दुनिया भर में सबकी ज़बान पर आता है, वो है डॉमिनोज़. भारत में एक साल में 1.5 अरब डॉलर का पिज़्ज़ा खरीदा और खाया जाता है. इसमें से 50 प्रतिशत से ज़्यादा ऑनलाइन ऑर्डर होता है और भारत के कुल व्यवस्थित पिज़्ज़ा बाज़ार का 50 प्रतिशत शेयर डॉमिनोज़ के पास है. ऑनलाइन डिलीवरी में, तो यह मार्केट शेयर 70 प्रतिशत है. 1980 के दशक से डॉमिनोज़ जल्दी पिज़्ज़ा डिलीवरी का वादा कर रहा है. इसके लिए उन्होंने कई बदलाव किए हैं. जैसे उनके वेयर हाउस में मशीनों से आटा गूंथा जाता है और उसकी बॉल बनाकर ट्रे में स्टोर पर जाती है. आपके ऑर्डर करने के बाद पहले से तैयार सामग्री मिलाकर ओवन में डाला जाता है और डोमिनोज़ के डिलीवरी बॉय को जीपीएस से सबसे छोटा रास्ता पता चलता रहता है. डॉमिनोज़ ने अपने ओवन भी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से लैस बनाने शुरू किए हैं, ताकि सात मिनट में पकने का समय घटाकर 4 मिनट तक किया जा सके और 30 मिनट की जगह 20 मिनट में ही डिलीवरी मिल जाए.
सिर्फ़ 10 मिनट में कहानी खत्म नहीं होती
पकाने के अलावा डॉमिनोज़ ने डिलीवरी पर भी बहुत काम किया है. डॉमिनोज़ हमेशा से ऐसी जगहों पर स्टोर खोलता है, जहां छात्र, नौजवान कर्मचारी, शिफ़्ट में काम करने वाले कई सारे लोग हों. छोटे मगर ढेर सारे आउटलेट खोले, ताकि जल्दी डिलीवर हो. यहां तक कि डॉमिनोज़ ने ऑर्डर करने की टेकनॉलजी पर इतना काम किया है कि आप बोलकर, इमोजी भेजकर भी ऑर्डर कर सकते हैं. इसके अलावा डॉमिनोज़ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में ड्रोन और सेल्फ़ ड्राइविंग कार से भी डिलीवरी पर काम कर रहा है. कुल मिलाकर, खाना पकाने और डिलीवर करने के समय से लेकर आपके ऑर्डर करने के आलस और मजबूरी तक को दुनिया की सबसे बड़ी पिज़्ज़ा कंपनी ध्यान में रखती है. इसी का नतीजा है आज की तारीख में कोई दूसरी कंपनी डॉमिनोज़ के मुकाबले में उतरने की सोच भी नहीं सकती और इस साम्राज्य की नींव मुख्य रूप से तेज़ डिलीवरी पर टिकी है. इसलिए, जब आईपीओ से मिले पैसों से दिपेंदर गोयल 10 मिनट में डिलीवरी का दांव खेलना चाहते हैं, तो आश्चर्य करने की कोई मुकम्मल वजह नहीं मिलती है.
महाभारत सीरियल में राही मासूम रज़ा ने भीष्म पितामह से एक डायलॉग बुलवाया था, 'ये किंतु और परंतु ही तो हस्तिनापुर के दुर्भाग्य का कारण हैं वत्स'. डिलीवरी और डेटा के दम पर जंग जीतने की डॉमिनोज़ की कहानी में भी किंतु और परंतु मौजूद हैं. इस किंतु और परंतु को फिल्म 'बैंड बाजा बारात' के डायलॉग से एक लाइन में समझ लेते हैं कि शादी-ब्याह दावतों में लाइटिंग-शाइटिंग, डीजे-वीजे सब भूल जाना है, याद तो यही रहता है कि खाना कैसा था. अमेरिका का पिज़्जा मार्केट भारत से 30 गुना बड़ा है और एक समय पर डॉमिनोज़ उसमें पिछड़ता चला जा रहा था. लंबे समय तक कंपनी नंबर दो पर रही और 2008-09 की मंदी में एक बारगी इसके डूब सकने के कयास भी लग गए थे. इस पतन का कारण था स्वाद. डॉमिनोज़ ने बचत करने और जल्दी करने के नाम पर फ़्रोज़न यानी जमी हुई सामग्री को इस्तेमाल करना शुरू किया.
उसके आटे और सॉस में भी ताज़गी कम हुई. इसके चलते लोगों ने ऑर्डर करना कम कर दिया. दूसरी तरफ़ 'पिज़्ज़ा हट' जैसे प्रतिस्पर्धी कहते थे कि हम ताज़ा बनाकर देते हैं, तो हमारा स्वाद बेहतर होता है. इसके चलते डॉमिनोज़ की हालत बद से बदतर हुई, क्योंकि खाना 10 मिनट में मिले या 1 घंटे में अगर स्वाद अच्छा नहीं है तो किस काम का. एक समय के बाद डॉमिनोज़ ने एक पूरा कैंपेन चलाया कि उनका स्वाद अब बेहतर होगा, ताज़गी भरा होगा और तब भी 30 मिनट में मिल जाएगा. यानि, वही ताज़गी वही स्वाद कम समय में मिले, तो भला कोई डॉमिनोज़ क्यों न ले, तो जोमैटो 10 मिनट में खाना डिलीवर करे या 30 मिनट में आखिरी परीक्षा स्वाद पर ही होगी, क्योंकि अगली बार लोग 10 मिनट में डिलीवर हुई इंस्टेंट गर्मी वाली बेस्वाद फ़्रोज़न दम बिरयानी, बटर चिकन या छोले भटूरों की जगह थोड़ा सब्र कर लेंगे या 2 मिनट वाले नूडल खा लेंगे.
नुकसान आपका और मुनाफ़ा कंपनी का
अब देखिए, बात शुरू हुई थी खाने पर, लेकिन चर्चा कंपनियों उनकी टेक्नॉलजी और मुनाफ़े पर होती रही. दरअसल, पिछले तीन-चार दशकों में अमेरिकन कंपनियां डेटा और टेक्नॉलजी के ज़रिए दुनिया भर में लोगों के दिमाग में घुस गईं और चर्बी की शक्ल में जमकर बैठ गईं. पहले बाहर का खाना बाहर जाकर खाना पड़ता था. इसके बाद वो ऐप से घर आने लगा. अब यह 10 मिनट में होगा. मतलब आप सोकर उठे और जब तक चाय बने नाश्ता आ जाए. इसके कुल जमा तीन नुकसान आप और हम झेलने वाले हैं. पहली चीज़ है सेहत. जंक फ़ूड की लत और उसके चलते होने वाली बीमारियां सबको पता है. दुनिया भर में बढ़ते हार्टअटैक, कैंसर और दूसरी लाइफ़स्टाईल बीमारियों के मामले देखिए.
इसके बाद, आप और हम बाहर खाने पर जितना खर्च करते हैं, वो सीधे हमारी भविष्य की बचत में से कम होता है. मिलेनियल पीढ़ी का बाहर खाने का खर्च, पिछली पीढ़ी की तुलना मे औसतन 2-3 गुना ज़्यादा है. इसका मतलब हुआ कि आप और हम जो पैसा अपनी बेहतरी के लिए बचा सकते थे. उसमें सीधी क़टौती हो रही है और एक बड़ी आबादी रिटायरमेंट की उम्र में भी काम करती रहेगी. तीसरा नुकसान हमसे ज़्यादा आने वाली पीढ़ियों को होगा. खाना सिर्फ़ ईंधन नहीं है. ये मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने की नींव है और जब दुनिया की पूरी पूंजीवादी व्यवस्था आपको बताए कि घर पर चिल करते हुए ऑर्डर करना बेहतर है, तो किसी की मम्मी के चाय पर बुलाने, एक कप कॉफ़ी के रिश्ते बनाने और साथ बैठकर रोटियां तोड़ने जैसे मौके कम होते जाएंगे.
आज के बच्चे पहले ही कोविड के चलते अपने बचपन का बड़ा हिस्सा स्क्रीन, कॉल और सोशल डिस्टेंसिंग में खपा चुके हैं, आने वाले समय में यह और बढ़ेगा और अलग-अलग लहज़ों में हम एक दूसरे को बशीर बद्र का शेर समझाते रहेंगे, 'अजनबी पेडों के साये में मुहब्बत है बहुत, घर से निकले तो ये दुनिया खूबसूरत है बहुत.' वैसे फ़ास्ट फूड की इस फास्ट डिलीवरी का पर्यावरण पर भी बड़ा बुरा असर है, उसपर फिर किसी दिन बात करेंगे.