प्रामाणिक इतिहास लेखन से छंटेगा कोहरा, संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बताए सूत्र
प्रामाणिक इतिहास लेखन से छंटेगा कोहरा
नई दिल्ली [अनंत विजय]। सरस्वती नदी को केंद्र में रखकर संपादित पुस्तक 'द्विरूपा सरस्वती' के लोकार्पण समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में भारतीय इतिहास और उसकी सत्यता पर पूर्व में उठाए गए सवालों पर कटाक्ष किया। उन्होंने अंग्रेजों की मंशा को रेखांकित करते हुए बताया 'अंग्रेजों ने बताया कि भारत का न तो कोई रणगौरव है और न ही धनगौरव। वेद पुराण सब भांग के नशे में गाए गए गीत हैं।
भारतीय इतिहास कपोल कल्पित है।' ये बताते हुए मोहन भागवत ने इस बात पर बल दिया कि भारतवर्ष की प्राचीनता और सनातनता के सातत्य को स्थापित करना होगा। इसके लिए विद्वानों और नई पीढ़ी को प्रमाण देना होगा क्योंकि इतिहास के प्रमाण बदल दिए गए, भाषा बदल दी गई और गुलामी के कालखंड में बदले हुए प्रमाण और भाषा को ही प्राथमिकता दी गई। सरसंघचालक ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कई सूत्र दिए। नई पीढ़ी को प्रमाण देने की बात बेहद अहम है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा की हमारी वर्तमान प्रणाली में प्राथमिक स्तर से सुधार हो।
प्राचीनता और सनातनता के सातत्य को स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसी पुस्तकें तैयार की जाएं जो प्रमाणिक तरीके से विदेशी इतिहासकारों के मतों का निषेध करे और भारतीय मत और सिद्धांत को स्थापित करे। यह रास्ता बहुत कठिन है लेकिन भारत और भारतीयता से प्रेम करने वाले और उसके गौरव को स्थापित करने के उद्देश्य से लेखन करने वालों को इस कठिन राह पर आगे बढ़ना ही होगा।
इतिहास लेखन बेहद श्रमसाध्य कार्य है। इसमें तथ्यों की प्रधानता होनी चाहिए। उसके बाद व्याख्या को महत्व देना चाहिए। तथ्यों की अनदेखी करने से इतिहास का स्वरूप बदलता है। व्याख्या में भाषा का स्थान बेहद महत्वपूर्ण होता है। इतिहासकार जब शब्दों का चयन करता है तो उसकी मंशा स्पष्ट हो जाती है। अगर हम प्राचीन भारतीय इतिहास को लिख रहे होते हैं और वर्ण के स्थान पर अगर जाति का प्रयोग कर देते हैं तो अर्थ ही बदल जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन में जब सबाल्टर्न को केंद्र में रखकर लेखन किया गया तो इस तरह के शब्दों के प्रयोग ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। यही गलती सामंती व्यवस्था को व्याख्यायित करते समय भी हुई।
विदेशी इतिहासकार ने यूरोपीय सिद्धांतों के आधार पर भारत के समाज को समझने की कोशिश की। डेमोक्रेसी या लोकतंत्र को विदेशी अवधारणा मानने और प्रचारित करने के चक्कर में इतिहासकारों ने भारत की जनपद व्यवस्था या वैशाली में प्रचलित गणतंत्रीय व्यवस्था को जानबूझकर ओझल कर दिया। मध्यकाल में जब धर्म की व्याख्या की गई तो वहां भी इतिहासकारों ने यूरोपीय अर्थ के आधार पर इस शब्द की व्याख्या की और अर्थ का अनर्थ कर दिया। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। आधुनिक भारत का इतिहास लिखने के क्रम में भी तथ्यों को ओझल कर दिया गया। छवि निर्माण के लिए गलत व्याख्या की गई। स्वाधीनता आंदोलन और उसके बाद के भारत के इतिहास में भी इस तरह की कई गड़बड़ियां दिखाई देती हैं। ऊपरी तौर पर इस कालखंड का विवेचन वैज्ञानिक तरीके किया प्रतीत होता है लेकिन अगर हम उसकी तह में जाते हैं और घटनाओं और व्यक्तियों का सूक्ष्मता से आकलन करते हैं तो समग्र तस्वीर नहीं दिखती।
अगर स्वाधीनता के ठीक पहले और उसके बाद की घटनाओं पर नजर डालें तो इतिहास लेखकों ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रसंग में बहुधा उन तथ्यों की अनदेखी कि जिससे नेहरू की प्रचलित छवि खंडित होती है। इसको कई उदाहरणों से समझा जा सकता है। 3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना में भारत विभाजन को सैद्धांतिक स्वीकृति दी गई थी। भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे और सीमा निर्धारण के लिए सर सिरिल रेडक्लिफ को चुना गया था। वो कभी भारत नहीं आए थे और इसको ही आधार बनाकर उनकी निष्पक्षता को प्रचारित किया गया। रेडक्लिफ को अंतराष्ट्रीय सीमा निर्धारण का कोई अनुभव नहीं था। वो कानूनी विशेषज्ञ थे।
रेडक्लिफ 8 जुलाई 1947 को भारत पहुंचे तब उनको पता चला कि उनको पांच सप्ताह में सीमा निर्धारण का काम पूरा करना है। यहां तक तो ठीक था। लेकिन उसके बाद इस बात की चर्चा कम ही मिलती है कि नेहरू बंटवारे को लेकर जल्दबाजी में थे। वो चाहते थे कि बंटवारे और सीमा निर्धारण का काम जल्द से जल्द हो जाए। वो तो इसके लिए भी तैयार थे कि अस्थायी सीमा निर्धारण करके बंटवारे के काम को अंजाम दे दिया जाए।
नेहरू का मत था कि नये देश बाद में आपसी सहमति के आधार पर सीमाओं को ठीक कर लेंगे। इन तथ्यों का उल्लेख पत्रकार और इतिहासकार लेनार्ड मोस्ले की 1961 में प्रकाशित पुस्तक द लास्ट डेज आफ ब्रिटिश राज में मिलता है। ये पुस्तक जवाहरलाल नेहरू के जीवन काल में ही प्रकाशित हो गई थी। इसमें उल्लिखित तथ्यों का कोई खंडन हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। नेहरू की इस जल्दबाजी को इतिहासकारों ने ओझल कर दिया और उनकी एक दूसरी तरह की छवि निर्मित की गई।
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के समय नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच मतभेद हुआ। नेहरू के बारे में इस तरह की बातें लिखी गईं कि वो धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे आदि आदि। उनके पत्रों को इसका आधार बनाया गया लेकिन नेहरू की मानसिकता को समझने के लिए इतिहासकारों ने पर्याप्त शोध नहीं किया। जो पत्र सामने आए उसके आधार पर नेहरू की छवि बना दी गई। नेहरू का सोमनाथ मंदिर को लेकर जो स्टैंड था उसके पीछे मंशा कुछ और थी। इसको समझने के लिए 14 अगस्त 1947 की एक घटना का विवरण देखना होगा।
शाम को संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद के घर एक समारोह का आयोजन किया गया था। तंजावुर के हिंदू पुरोहितों ने पूजा पाठ और हवन का जिम्मा संभाला था। वो पवित्र जल लेकर भी आए थे। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे और महिलाओं ने उनके माथे पर तिलक लगाया। नेहरू ने भी तिलक लगाया और हवन भी किया क्योंकि उनके मित्रों ने उनको समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। इसका उल्लेख 'आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया' नाम की पुस्तक में मिलता है।
ऐसी ही एक घटना 1952 के लोकसभा चुनाव के समय की है। फूलपुर में नेहरू की सभा थी। सभास्थल के रास्ते एक स्थानीय राजा अपने हाथी से निकलना चाहता था। अफसर उनको निकलने नहीं दे रहे थे। हो हल्ला होने लगा। नेहरू को जब पता चला तो वो राजा के पास पहुंचे और 'महाराज की जय हो' के नारे लगाए। राजा खुश हो गए और जनता से नेहरू को वोट देने की अपील कर डाली। बाद में नेहरू ने युवा अफसर को समझाया कि 'राजा को जय-जयकार की जरूरत थी और मुझे वोट की। मैंने राजा को उनका चाहा दिया और उन्होंने मुझे।' ऐसी कई अन्य घटनाएँ हैं जिससे नेहरू की छवि सत्ता के लिए हड़बड़ी में रहे एक नेता की बनती है। लेकिन आधुनिक भारत के इतिहास की पुस्तकों में ये छवि नदारद है।
उदाहरण के लिए नेहरू से जुड़े प्रसंगों को गिनाया लेकिन अगर इसी तरह से वामपंथियों की स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका पर समग्रता में विचार हो तो प्रचलित मान्यताओं से अलग ही तस्वीर निकलकर आएगी। मोहन भागवत जब प्रमाण के साथ इतिहास लेखन की बात करते हैं तो वो तथ्यों के साथ समग्रता की अपेक्षा करते हैं। इस कार्य में देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों को नेतृत्व करना होगा। देश में 50 से अधिक केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। सालभर में एक विश्वविद्यालय से एक भी प्रमाणिक पुस्तक का प्रकाशन इतिहास लेखन की कमियों को दूर कर सकता है।