झिलमिलाती कड़ियां
हमारा संपूर्ण जीवन बहुत-सी कड़ियों में गुंथा होता है। जिस प्रकार कोई टीवी कार्यक्रम की कहानी हर कड़ी में आगे बढ़ती रहती है, जीवन की कहानी भी कुछ ऐसे ही जुड़ते हुए आगे बढ़ती जाती है।
एकता कानूनगो बक्षी: हमारा संपूर्ण जीवन बहुत-सी कड़ियों में गुंथा होता है। जिस प्रकार कोई टीवी कार्यक्रम की कहानी हर कड़ी में आगे बढ़ती रहती है, जीवन की कहानी भी कुछ ऐसे ही जुड़ते हुए आगे बढ़ती जाती है। हमारे मस्तिष्क को बचपन से ही कुछ इस तरह से ढाला गया है कि हमें हमेशा पता होता है कि हमारे जीवन की मौजूदा कड़ी कौन-सी है, हमारा व्यवहार इस कड़ी में कैसा होना चाहिए। इस पड़ाव तक हमारी उपलब्धियां अब तक क्या हो चुकी होनी चाहिए! आगे की कड़ियों का थोड़ा बहुत अनुमान हमें रहता ही है।
शुरुआती विद्यार्थी जीवन में स्कूलों और घर में अपने बड़ों और शिक्षकों द्वारा हमें बहुत-सी बातें समझाई जाती हैं। उनकी व्याख्याएं हमारे भीतर उपस्थित मन और शरीर की सारी जरूरतों पर प्रकाश डालती हैं, हमें अवगत कराती हैं कि सफल जीवन के लिए हमें किन-किन चीजों की आवश्यकता होगी। इस तरह के प्रारंभिक सूत्र आगे चल कर दिशाहीन न होने और खुद को बेहतर समझने के लिए बेहद कारगर साबित भी होते हैं।
कुछ धारणाएं सामाजिक व्यवस्था और लोक परंपराओं के कारण भी उपलब्ध होने लगती हैं। उम्र की अगली कड़ियों में नियमों और लोगों से जुड़े हर आचरण और व्यवहार की एक लंबी सूची थमा दी जाती है। जीवन के हर चरण में व्यक्ति को तभी सफल माना जाने लगता है, जब तक कि वह सुनिश्चित उपलब्धि हासिल न कर ले या फिर वह उस उम्र, लिंग के अनुकूल निर्धारित व्यवहार न कर रहा हो।
यह भी सोचने वाली बात है कि इस तरह के हर नियम, मापदंड, लक्ष्य, इंसान के मस्तिष्क से ही उपजे होते हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारे मस्तिष्क की सोचने-समझने की एक निश्चित सीमा है जो पूरी तरह निर्भर करती है उस समय की हमारी मन:स्थिति, बाहरी वातावरण और हमारे बौद्धिक स्तर पर। हमारा मस्तिष्क हर नए अनुभव से कुछ नया सीखता है और जरूरत के मुताबिक नवीन हो जाने की क्षमता रखता है। आज हम अधिक परिपक्व हैं, संतुलित हैं। आगे हम और अधिक कुशल बनेंगे। ऐसे में लंबे समय से चले आ रहे नियम, धारणाएं यकीनन हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं, पर परिस्थितियों के मद्देनजर उन सिद्धांतों को आदर्श मानने से पहले उनका पुनरावलोकन करने पर विचार करना जरूरी होगा।
जीवन भले ही कड़ियों में गुंथा हुआ नजर आए, पर जीवन उससे बाहर भी है। कड़ियां हमें दिशा जरूर देती हैं, पर अक्सर उनसे उपजी उम्मीदें हमें हताश कर देती है। एक पड़ाव पर अगर हम अपनी और समाज की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके तो कभी-कभी अगले पड़ाव पर जाना मुश्किल-सा प्रतीत होने लगता है। हम अपने जीवन को एक ही कड़ी पर अटका देते हैं। हम भूल जाते है कि यह इतने बड़े जीवन का एक पड़ाव मात्र है। हम अगले पड़ाव पर बेहतरीन कर सकते हैं। जीवन अगर है तो अनगिनत संभावनाएं भी हैं, बस खुद के लिए नया आविष्कार करने की जरूरत होती है जो भविष्य में अनगिनत लोगों के लिए भी संभावनाओं के दरवाजे खोलने में सक्षम बन जाता है। इसी तरह जरूरतों को देखते हुए अतीत में भी शायद सिद्धांतों की रचना की गई होगी।
जब हम जीवन को सिलसिलेवार देखते हैं, तब कहीं न कहीं भेड़चाल का हिस्सा भी बनने लगते हैं। अगर कहीं हम किसी पड़ाव पर दूसरे की तरह ही प्रतिबिंब नहीं बना पा रहे होते हैं तो निराश हो जाते हैं। हम हारा हुआ महसूस करने लगते हैं और खुद को जीवन के अगले पड़ाव पर पहुंचने की हिम्मत और ऊर्जा ही नहीं दे पाते।
त्योहारों पर जगमगाती रंग-बिरंगी छोटी बत्तियों के झालर कितने खूबसूरत लगते हैं। इन झालरों या सीरीज बल्ब में एक होती है 'सर्किट कनेक्शन सिरीज', जिसमें एक बल्ब खराब होते ही बाकी सारे बल्ब बंद हो जाते हैं और अंधेरा छा जाता है। दूसरी होती है 'पैरेलेल कनेक्शन सीरीज', जिसमें एक बल्ब खराब भी हो जाए, तो बाकी बल्ब जगमगाते रहते हैं। इसी तरह से जीवन की कड़ियों में भी हमें 'पैरलल कनेक्शन' यानी समांतर जुड़ाव वाला सिद्धांत अपनाना चाहिए। जीवन की कोई कड़ी अगर असफल या निराश कर देती है, तब भी अन्य कड़ियों की तेजस्विता कम नहीं पड़नी चाहिए।
हार नहीं मानना चाहिए। समाज के मापदंडो से खुद को आंकने की कोशिश कर खुद को कभी हताश नहीं कर देना चाहिए। हम सब अपने आप में सबसे अलग, नए और अद्भुत होते हैं। हम सब में कुछ नया रचने की अनगिनत संभावना होती है। किसी एक काम में हम खुद को असफल महसूस कर सकते हैं, पर यह निश्चित है कि हमारे व्यक्तित्व का कोई न कोई दूसरा पहलू किसी और चीज में पूरे जोश के साथ जगमगाएगा।
कहने का आशय यह है कि जीवन की कड़ियों में भले से कुछ पल थोड़े बोझिल हों, कुछ की जगमगाहट शुरू ही देर से हुई हो पर जो कुछ भी हमारे पास है, हमारे मौजूदा हालात में पूरे उत्साह के साथ हम उन्हीं से जीवन को जगमग करने की कोशिश करें। कम या ज्यादा- जितना भी हो सके, खुद में और समाज में कोशिश उजाला भरने की ही होनी चाहिए।