लापरवाही की लपटें
दिल्ली के मुंडका में बहुमंजिली इमारत में लगी आग ने उपहार सिनेमा कांड की याद दिला दी। इतने वर्षों के बाद भी अगर दिल्ली सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा तो भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकना नामुमकिन होगा।
Written by जनसत्ता; दिल्ली के मुंडका में बहुमंजिली इमारत में लगी आग ने उपहार सिनेमा कांड की याद दिला दी। इतने वर्षों के बाद भी अगर दिल्ली सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा तो भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकना नामुमकिन होगा। केवल दिल्ली नहीं, हर महानगर में अग्निकांड की घटना सामान्य बात हो गई है। सवाल है कि आखिर आग की घटनाएं होती कैसे हैं और इनको रोका कैसे जाए। कहते हैं कि आग एक अच्छी दोस्त है, मगर बहुत बुरी मालिक। कितनी चिंता की बात है कि आगजनी की घटनाओं में भारत का एक तिहाई स्थान है।
अफसोस कि इन घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह है जिम्मेदार अधिकारियों का अपनी उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़ना। बहुमंजिली इमारतें बना दी जाती हैं, पर उनका सुरक्षा मानकों से कोई वास्ता नहीं होता है। कई इमारतें तो ऐसे हैं जो नगर निगम से बिना अनापत्ति प्रमाण पत्र लिए वर्षों से संचालित हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि अनापत्ति प्रमाण पत्र किसी और व्यवस्था के लिए लेते हैं और संचालन किसी और का करते हैं। ऐसे में जिम्मेदार अभिकरणों को यह भी चाहिए कि वह समय-समय पर उसका निरीक्षण करें। इमारतों में जनसंख्या के हिसाब से आपातकालीन द्वार होने चाहिए। वेंटीलेशन की पर्याप्त सुविधा होनी चाहिए। ओवरलोडिंग और शार्टशर्किट की घटनाएं कम से कम हों, यह सुनिश्चित करना चाहिए।
आज शहरी मकान कंक्रीट के जंगल बने हुए हैं, महानगरों में इमारतों की इतनी सघनता है कि आग लगने की हालत में बच के निकलना मुश्किल होता है। शहरी स्थानीय निकायों की भूमिका में वृद्धि करनी होगी, महानगर योजना समिति और जिला नियोजन समिति को नगर नियोजन के लिए वैश्विक मानक तय करना चाहिए। आग की घटनाओं को रोकने के लिए सबसे जरूरी है सजगता और सतर्कता। हमें आग लगने की पुरानी घटनाओं से सीखना होगा।
बिना मजबूत सेनापति के, कभी कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती। इसी तरह किसी भी राजनीतिक पार्टी का मजबूत नेतृत्व ही उस पार्टी की नैया चुनाव में पार लगा सकता है। उदयपुर चिंतन शिविर में जिन बातों पर अमल करने का संकल्प लिया गया, वह कांग्रेस का बेड़ा कहां तक पार लगा पाएगा, आने वाला समय ही बताएगा। देश में फिलहाल कांग्रेस ही सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी है, इसे कुछ ऐसा सोचना होगा कि वह कैसे अपने सिमटते दायरे को फिर से बढ़ा पाए। आखिर क्यों कांग्रेस अपना विस्तार नहीं कर पा रही है? क्या इसके नेतृत्व की कमी है, या फिर इसके पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसे प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाया जा सके, जिस पर देश भरोसा कर सके।
जो कांग्रेस को परिवारवाद के चश्मे से देखते हैं उनसे सवाल है कि जब डाक्टर के बच्चे डाक्टर, वकील के बच्चे वकील, बिजनेसमैन के बच्चे बिजनेस संभाल सकते हैं तो राजनीति में इस परंपरा पर सवाल क्यों? अगर कांग्रेस गांधी परिवार से मुक्त भी हो जाती है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि फिर कांग्रेस में ईमानदार लोग ही आएंगे? फिर भी कांग्रेस को विचार जरूर करना चाहिए की पार्टी कि गिरती साख के लिए कहीं इसका परिवारवाद का मोह तो जिम्मेदार नहीं है।