किसान भी लचीला रुख अपनायें
नये कृषि कानूनों को सिरे से वापस लेने की मांग पर आंदोलनकारी किसान अड़े हुए हैं जबकि
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। किसान आंदोलनकृषि कानूनकिसानों और सरकार के बीच 11वें दौर की वार्ता भी बिना परिणाम के समाप्त हो जाने पर यह शंका उठना स्वाभाविक है कि स्थिति अब गतिरोध से ऊपर चली गई है। नये कृषि कानूनों को सिरे से वापस लेने की मांग पर आंदोलनकारी किसान अड़े हुए हैं जबकि सरकार ने लचीला रुख दिखाते हुए इन कानूनों को दो साल तक ठंडे बस्ते में डाल कर एक संयुक्त समिति बनाने का सुझाव दिया। सरकार के इस प्रस्ताव को भी किसानों ने सिरे से खारिज करते हुए साफ कर दिया कि वे कानूनों को जड़ से निरस्त करने पर ही आंदोलन को समाप्त करने के बारे में सोच सकते हैं। एक मूल सवाल यह है कि ये कानून देश की संसद द्वारा बनाये गये हैं और इन्हें निरस्त करने से लेकर संशोधन के लिए सरकार को संसद के पास ही जाना पड़ेगा। अतः आगामी 29 जनवरी से शुरू हो रहे संसद के सत्र में इन कानूनों के भविष्य के बारे में जो भी विचार आयेगा वह संसदीय परंपराओं का सम्मान करते हुए आयेगा और स्थायी होगा। फिर भी सरकार यदि किसानों को यह आश्वासन दे रही है कि डेढ़ साल तक इन कानूनों पर अमल रोक दिया जायेगा और इस बीच बनी संयुक्त समिति किसी सर्वमान्य हल पर पहुंचने की कोशिश करेगी तो लोकतन्त्र की उदार परंपराओं को देखते हुए इसमें भी कोई नुकसान नहीं है। इससे यह तो साबित होता ही है कि किसानों की मांगों को देखते हुए सरकार ने अपना रुख ढीला किया है और वह वार्ता के माध्यम से किसानों की समस्याओं का हल करना चाहती है। आंदोलनकारी किसानों को अब यह सोचना चाहिए कि कानूनों के बेअमल रहने दौर में वे किस प्रकार सरकार को और अधिक लचीला रुख अपनाने के लिए मजबूर कर सकते हैं जिससे उनकी उपज का मूल्य अाधिकाधिक संवैधानिक व सरकारी संरक्षण प्राप्त कर सके। एक तथ्य शीशे की तरह सभी के सामने साफ होना चाहिए कि 'बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था' के दौर में कृषि क्षेत्र में भी संशोधनों की आवश्यकता है। मगर ये संशोधन इस प्रकार होने चाहिएं जिससे किसान की धरती पूरी तरह महफूज रहे और उसकी उपज का मूल्य बड़े-बड़े व्यापारियों और पूंजीपतियों के बीच 'फुटबाल' न बने। इसी हकीकत की रोशनी में सरकार और किसानों के बीच जो 11 दौरों की वार्ता चली उसमें कोई हल नहीं निकल पाया और कानूनों को रद्द करने की मांग अपनी जगह बदस्तूर रही।