किसानों की मांगें जारी

आंदोलित किसान भारत सरकार का हाथ थामने के बाद बाजू भी जकड़ लेना चाहते हैं

Update: 2021-11-22 18:49 GMT

आंदोलित किसान भारत सरकार का हाथ थामने के बाद बाजू भी जकड़ लेना चाहते हैं, ताकि उसे धक्का दिया जा सके। किसानों की बुनियादी मांग थी कि विवादास्पद कृषि कानून वापस लिए जाएं। प्रधानमंत्री उसकी घोषणा कर चुके हैं। उसे सरकार की कमजोरी न समझा जाए और न ही ब्लैकमेल करने की कोशिश की जाए। संभावना हैै कि बुधवार की कैबिनेट बैठक के दौरान कानूनों को रद्द करने पर फैसला भी ले लिया जाए! उसके बाद की औपचारिक प्रक्रिया संसद में ही पूरी होगी, जो बहुत दूर नहीं है, लेकिन रविवार को संयुक्त किसान मोर्चा ने तय किया है कि जब तक अन्य मांगें भी नहीं मान ली जातीं, तब तक आंदोलन जारी रहेगा। किसान राजधानी दिल्ली के बाहर बॉर्डर पर डटे रहेंगे। सोमवार को लखनऊ में किसान महापंचायत का आयोजन किया गया। आंदोलन की सालगिरह, 26 नवंबर, को देश भर में प्रदर्शनों के कार्यक्रम तय किए गए हैं। संसद के शीतकालीन सत्र के आगाज़ से ही हर रोज़ 500 आंदोलनकारी संसद तक टै्रक्टर मार्च निकालेंगे। हालांकि पुलिस ने अभी अनुमति नहीं दी है, लेकिन अराजकता पैदा करने के मंसूबे स्पष्ट हैं। अब किसानों की प्राथमिक मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का गारंटी कानून बनाने के इर्द-गिर्द है। किसानों के कुछ अन्य धड़े किसान आयोग के गठन की मांग कर रहे हैं। यह आयोग ही फसलों के लाभकारी दाम और दूसरे मुद्दे तय करे। एमएसपी का मुद्दा करीब 50 साल पुराना है। बुनियादी रूप से गेहूं और धान की फसलें ही एमएसपी पर सरकार खरीदती है। कुल 19 फसलें एमएसपी पर मात्र 5 फीसदी किसानों से ही खरीदी जा रही हैं। शेष 95 फीसदी किसान खाली हाथ हैं या बाज़ार के भरोसे हैं। अब प्रधानमंत्री की घोषणा और कानून खारिज होने के बाद ऐसे किसानों को एक बार फिर मंडियों और बिचौलियों की शरण में जाना पड़ेगा। ये दोनों ही किसान को निचोड़ते रहे हैं और किसान का शोषण करते रहे हैं। विशेषज्ञ मान रहे हैं कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि बाज़ार एक निश्चित दाम पर ही कारोबार नहीं करता।

कीमतों में लचीलापन होना बेहद जरूरी है। दूसरा प्रयास यह है कि भारत में कृषि के राष्ट्रीयकरण के हालात बनाए जा रहे हैं, जो आपदा और संकट का नुस्खा और उपाय है। बेशक गेहूं और धान की सरकारी खरीद भारत की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के लिए अनिवार्य है, लेकिन उसमें भी कई विसंगतियां सामने आ रही हैं। इस व्यवस्था ने कृषि की अर्थव्यवस्था में भी कई विकृतियां पैदा की हैं। अब इन तमाम पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए। एमएसपी में सुधार करने की भीषण जरूरत है। भारतीय कृषि की अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी व्यवस्था जरूरी है, जिसमें किसान अपनी फसल के दामों के आधार पर तय कर सके कि किसे फसल बेचनी है। अभी तो मंडियां ही किसान की फसल के दाम मनमाने ढंग से तय करती आई हैं। किसान भी एक औसत व्यापारी की तरह खुले बाज़ार का हिस्सा क्यों न बने? किसान आंदोलन एमएसपी के पुराने ढर्रे से चिपके रहना चाहता है कि सरकार किसानों की फसल के दाम तय कर दे। बाज़ार में उससे कम पर खरीदना दंडनीय अपराध हो। यदि स्वामीनाथन आयोग की रपट को कोई गंभीरता से पढ़े, तो स्पष्ट हो जाएगा कि एमएसपी क्यों और किन फसलों के संदर्भ में जरूरी है। बहरहाल किसानों की कुछ अन्य मांगें भी बेजा हैं। देश भर के बिजली बोर्ड घाटे के संकट में हैं। केंद्र और राज्य सरकारों में उसके मद्देनजर संवाद होता रहा है, लेकिन किसानों को मुफ्त बिजली चाहिए। यह राजनीतिक और चुनावी मुद्दा भी बनता रहा है, लेकिन इतनी समझ होनी चाहिए कि सरकारें कुछ भी मुफ्त नहीं दे सकतीं। यदि बिजली-पानी मुफ्त मिलते होंगे, तो सरकारें किसी अन्य मद में पैसा वसूल लेती हैं और आम नागरिक को एहसास तक नहीं होता। पराली जलाने से जुड़ा मुद्दा या प्रस्तावित कानून इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आंदोलन जारी रखा जाए। भारत सरकार के कृषि सुधार पैकेज को लेकर इरादे स्पष्ट हैं। अब सरकार को मांगांे पर लाल लाइन खींच देनी चाहिए। संसद सत्र में श्रम कानूनों से संबंधित बिल भी पारित किया जाना है। उस पर भी बहस हो।

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