किसी भी लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन के नागरिक अधिकार की गारंटी वह बुनियादी कसौटी है, जिस पर उस देश की सांविधानिक-नागरिक संस्थाओं की ही नहीं, पूरी दुनिया की नजर होती है। इस कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र खरा उतरा है। पर बड़ा सवाल यह है कि सरकार और आंदोलनकारी किसान संगठनों के बीच कायम गतिरोध आखिर कब टूटेगा? दोनों पक्षों में संवादहीनता की स्थिति महीनों से बनी हुई है। हालांकि, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कल कहा कि 'किसानों को कृषि कानूनों के जिस भी प्रावधान में आपत्ति है, वे हमें बताएं। सरकार आज भी खुले मन से किसानों के साथ चर्चा करने के लिए तैयार है।' निस्संदेह, बातचीत से ही समाधान निकलता है, और कृषि मंत्री ने अपने तईं एक मुनासिब रुख दिखाया, लेकिन मंत्रिमंडल में उनकी ही एक सहयोगी ने कल ही किसानों के लिए जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, वह बातचीत की राह में रुकावट डालने वाली थी।
देश आज कितनी गंभीर चुनौतियों के मुहाने पर है, इसका एहसास सड़क पर बैठे किसानों से अधिक सरकार में बैठे लोगों को होगा। होना चाहिए। महामारी के इस मुश्किल वक्त में देश की अर्थव्यवस्था को सहारा देने में कृषि क्षेत्र की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। फिर मौजूदा राजनीतिक हालात में किसानों से टकराव सत्तारूढ़ गठबंधन के हित में भी नहीं। चंद महीनों बाद ही, मजबूत किसान राजनीति वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब व उत्तराखंड जैसे सूबे के लोग नई विधानसभा चुनने के लिए कतार में खडे़ होंगे। ऐसे में, सत्ताधारी लोगों को विशेष संयम बरतनी पड़ेगी। किसान संगठन बखूबी जानते हैं कि इन चुनावों के बाद सरकार पर दबाव बनाना आसान नहीं होगा, इसलिए उन्होंने सितंबर महीने से चुनावी प्रदेशों में कार्यक्रमों की घोषणा कर अपना मनसूबा साफ कर दिया है। बहरहाल, दोनों पक्षों को व्यावहारिक रुख अपनाते हुए इस गतिरोध को तोड़ना चाहिए। किसानों को भी यह समझना होगा कि कोई आंदोलन अनवरत नहीं चल सकता। अब तक गैर-राजनीतिक प्रकृति के कारण आंदोलन के प्रति जो आम जन-धारणा रही है, वह अगले चुनावों में उसकी किसी सियासी पक्षधरता से खंडित होगी। इसलिए उसके उद्देश्य की शुचिता भी इसी में है कि किसान बातचीत के जरिये अपने हितों की गारंटी सरकार से हासिल करें। देश का हित न किसानों से अलग है और न किसानों का हित देशहित से परे जा सकता है।